रेडियो के मार्फत मंटो के नाटक
मंटो को उर्दू और हिन्दी के अधिकतर पाठक उन्हें उनकी बेशुमार कहानियों को लेकर जानते हैं। जितना उन्हें उर्दू के लोग जानते हैं, उससे कम हिन्दी के लोग नहीं जानते हैं। बल्कि दोनों भाषाओं के पाठकों के बीच इतना लोकप्रिय हैं कि कभी-कभी तो लोग भूल जाते हैं कि वे किस भाषा के लेखक हैं। भले मंटो के साहित्य का काल आजादी और आजादी के कुछ वर्षों तक का है, लेकिन उसमें जिन सवालों को उठाया गया है, कहीं न कहीं आज की तारीख में भी प्रासंगिक हैं।
उनकी कहानियों ने देश, प्रान्त, भाषा की सारी सीमाओं को पार कर लिया है। वही हाल अब उनके नाटकों को लेकर है। उन्होंने दिल्ली प्रवास के दिनों में रेडियो के लिए कई रेडियो नाटक लिखे थे। इन्हें पढ़ कर ऐसा नहीं लगेगा कि ये रंगमंच को ध्यान में रख कर लिखे गये हैं। दरअसल रेडियो में नौकरी करने के दौरान उनको ध्यान में रख कर मंटो ने इन्हें लिखा था। लेकिन इन नाटकों का ऐसा फॉर्म है कि ये केवल रेडियो तक सीमित नहीं रहे। जब इनको मंच पर उतारा गया तो कहीं से भी नहीं लगा कि ये रेडियो नाटक हैं। इनके नाटकों को एक नया नाम दिया गया जो ‘रेडियोनामा’ के नाम से जाना गया।
मंटो पर अश्लील लेखन के लिए जितने भी आरोप लगते रहे, उतना ही मुखर होकर उन्होंने शारीरिक सम्बन्धों की बखिया उधेड़ने का काम किया। उन्होंने लेखन में दोहरा चरित्र कभी नहीं जिया। जिस बेबाकी से कहानियाँ लिखते थे, नाटक भी उसी त्वरा से लिखा। जो भी लिखा, छिपा कर नहीं लिखा। उन्होंने जितने भी नाटक लिखे, प्रकाशित हैं, तो कुछ रेडियो पर हैं, पुस्तक के रूप में अभी तक नहीं आये हैं, लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि उन्हें पढ़ कर या मंच पर प्रस्तुत कर कोई भी फैसला कर सकता है कि उनके लिखे रेडियो नाटक श्लील हैं या अश्लील? वैसे भी इस मुद्दे पर मंटो कहते थे, ‘जमाने के जिस दौर से हम इस वक्त गुजर रहे हैं, अगर आप उससे नावाकिफ हैं, तो मेरे अफसाने पढ़िए। अगर आप उन अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह है कि यह जमाना नाकाबिले बर्दाश्त है। मुझमें जो बुराइयाँ हैं, वो इस अहद की बुराइयाँ हैं। मेरी तहरीर में कोई नुक़्स नहीं। जिस नुक़्स को मेरे नाम से मंसूब किया जाता है, दरअसल मौजूदा निज़ाम का नुक़्स है। मैं हंगामा पसंद नहीं।’ इसी क्रम में मंटो आगे फरमाते हैं कि ‘मैं तहजीबों-सुसाइटी की चोली क्या उतारूँगा, जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इसलिए कि यह मेरा काम नहीं, दर्ज़ियों का है। लोग मुझे सियाह कलम कहते हैं, लेकिन मैं तख़्ताए-सियाह पर काली चॉक से नहीं लिखता। सफ़ेद चॉक इस्तेमाल करता हूँ कि तख़्ताए-सियाह की सियाही और भी ज़्यादा नुमायाँ हो जाये। यह मेरा ख़ास तर्ज है, जिसे फाहशनिगारी, तरक्की पसंद और ख़ुदा मालूम क्या-क्या कुछ कहा जाता है।’
अभी भी मंटो की कहानियों की जितनी चर्चा होती हैं, नाटकों की कम होती हैं। बहुतों को तो शायद इस बात की जानकारी भी नहीं है कि मंटो ने रेडियो नाटक भी लिखे हैं। वो भी दर्जन-दो दर्जन नहीं, सौ से भी ऊपर। और वो भी कुछ वर्षों में ही। दिल्ली प्रवास के दौरान। मुंबई में उन्होंने इस विधा पर हाथ नहीं आज़माया था। मुंबई में तो जितने वर्षों तक रहे, पत्रिकाओं और फ़िल्मों के लिए कहानियाँ लिखते रहे। जब मुंबई से दिल्ली के ऑल इंडिया रेडियो आये, कई दृष्टियों से उनका एक भरपूर अनुभव रहा। वहाँ कृष्ण चन्दर प्रोड्यूसर के तौर पर थे। कृष्ण चन्दर के कहने पर उपेन्द्र नाथ अश्क़ भी आ गये थे। हाफिज जावेद, बलवंत गार्गी और हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय भी उन दिनों वहीं थे। ये लोग रोज़ आपस में मिलते थे, बतियाते थे, टकराते थे और अपनी-अपनी दुनिया में खो जाते।अश्क़ को लगता था कि वे सबों में उम्र में ही बड़े नहीं हैं, नाटक और कहानियाँ लिखने में भी सबों से सीनियर हैं। मंटो इस तरह की सीनियरिटी को दो कौड़ी का मानते थे। इसलिए दोनों में खींचतान और खटपट मची रहती। दोनों में नाटक लिखने की होड़ लगी ही रहती। छेड़छाड़ करने, उकसाने और मज़ा लेने की प्रवृति मंटो में शुरू से ही थी और अश्क़ भी बाज आने वालों और पीछे हटने वालों में नहीं थे। कृष्ण चन्दर को दोनों के काम को देखने-जाँचने में बड़ी दिक़्क़त पेश आती। बड़ी सावधानी बरतनी पड़ती, पता नहीं कौन कब बिगड़ जाए? अश्क़ को तो सीधे-सीधे समझा लेते थे, लेकिन मंटो को संशोधन के लिए मनाना टेढ़ी खीर थी। मंटो के साथ वे बड़ी सूझ-बूझ और कौशल से काम लेते थे और जैसे-तैसे उसकी सहमति ले लेते थे।
मंटो ने दिल्ली में रेडियो में नौकरी करते जो नाटक लिखे, वे ऑल इंडिया रेडियो के दिल्ली केन्द्र से ही नहीं, अन्य केन्द्रों से भी ब्रॉडकास्ट हुए। यही सारे नाटक जो प्रसारित हुए, बाद में ‘आओ’, ‘मंटो के ड्रामे’, ‘जनाज़े’ और ‘तीन औरतें’ नाम के संग्रहों में प्रकाशित हुए। इन संग्रहों के नाटक रेडियो पर इतने लोकप्रिय हुए कि देखते-देखते मंटो एक रेडियो नाटककार के रूप में देश भर में प्रतिष्ठित हो गये। जिन दिनों मंटो रेडियो के लिए नाटक लिख रहे थे, रेडियो नाटक का कोई फॉर्म उभर कर नहीं आया था। मंटो रेडियो के पहले नाटककार थे जिन्होंने रेडियो नाटक को एक सुसंघटित रूप दिया। रेडियो नाटक लेखन का किस तरह का कथ्य होना चाहिए, कथ्य के साथ कैसा निर्वाह करना चाहिए, उसे मंटो ने अपने नाटकों के माध्यम से स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया।
जिन दिनों वे रेडियो नाटक लिख रहे थे, समानान्तर रूप से कहानियाँ भी लिख रहे थे। दो विधाओं पर काम कर रहे थे और कहीं से भी कोई विधा एक दूसरे पर आरोपित नहीं हो रहे थे। जितने प्रयोग वे कहानी विधा में कर रहे थे, नाटक के क्षेत्र में भी नये-नये प्रयोग कर रहे थे। इन नाटकों में कथ्य के साथ दृश्य का जिस तरह मंटो करते थे, पाठकों और श्रोताओं को एक नये स्वाद से परिचय करा रहा था। रेडियो पर कई तरह के दवाब होने के बावजूद मंटो अपने लेखन पर किसी तरह का दवाब महसूस नहीं करते थे। मंटो को समय की पहचान थी और वे कभी समय से बच कर न जीवन जिया, न लेखन किया। वे लोगों की नब्ज पहचानते थे, इसलिए उनके नाटकों में जन आकांक्षाएँ, संवेदना, चेतना साफ़ दिखाई देती थी।यही कारण था कि कुछ ही महीनों के अन्दर मंटो अपने नाटकों को लेकर प्रबुद्ध पाठक-श्रोता वर्ग से लेकर सामान्य जन मानस के घरों और दिलों तक पहुँच गये।
मंटो ऑल इंडिया रेडियो में नाटक लिखने के सिलसिले में 19 महीने ही रहे। कहानी लेखन और फ़िल्मों के स्क्रिप्ट लिखने के साथ–साथ लगभग 100 रेडियो नाटक लिखे। इतने कम समय में रेडियो के लिए इतने उत्कृष्ट नाटक लिखना उनकी प्रतिभा का ही सूचक है। कभी भी रेडियो नाटक लेखन को हल्के में नहीं लिया। भले नाटक लिखना उनकी रोज़ी–रोटी के लिए आवश्यक ज़रिया था, लेकिन गुणवत्ता के स्तर पर उन्होंने समझौता नहीं किया। क्रिकेट की शब्दावली में मंटो ने रेडियो नाट्य लेखन में एक सेंचुरी की थी। क़ायदे से इसका जश्न मनाया जाना चाहिए था, लेकिन हुआ यह कि मंटो की इस शानदार उपलब्धि को मंटो की तस्वीर के साथ कवर पर देने के बजाय आकाशवाणी की पत्रिका ‘आवाज़’ के अन्दर के पन्नों पर उसके एक छोटे से फ़ोटोनुमा चौखटे के साथ दे दिया गया। मंटो को अच्छा नहीं लगा। वे आहत हुए। इसलिए नहीं कि उन्हें समुचित स्थान नहीं मिला बल्कि इसलिए कि एक अदीब को जो जायज़ जगह मिलनी चाहिए, इसके लायक़ उन्होंने नहीं समझा। बलराज मेनरा और शरद दत्त ने यह सवाल उठाया है, ‘क्या मंटो के किसी समकालीन रेडियो मुलाजिम ने, क्या किसी और साहित्यकार ने, विभाजन के पहले और विभाजन के बाद उपमहाद्वीप में रेडियो के इतिहास में इतने कम समय में इतना अधिक लिखा?’ यह सचमुच आश्चर्य में डाल देता है। निस्संदेह, यह मंटो की प्रतिभा के उत्कर्ष का समय था जब उस उसने अन्य विधाओं और कला माध्यमों को आज़माने के साथ, नाटक में भी अभिव्यक्ति के नये रास्तों की खोज की। लेकिन साहित्य और रंगमंच का दुर्भाग्य कहिए कि उनकी साधारण कहानियों को भी साहित्य में जितना तरजीह दी गयी, इसके लिखे नाटक पर न उस वक्त के आलोचकों ने ज़्यादा तवज्जो दी, न आज उन नाटकों पर कोई गम्भीर बात करने को तैयार है।आज भी उनके नाटकों को नोटिस नहीं लिया जा रहा है।
अधिकतर लोगों को शायद इस बात की जानकारी भी न हो कि मंटो ने इतने महत्त्वपूर्ण नाटक लिखे हैं। जो लोग मंटो की जिन्दगी और अदब को ऊपरी तौर पर देख कर उन्हें घोर ‘अनैतिक’ कह देते हैं, उन्हें नाटकों के भीतर से मंटो के नैतिक बोध का ही नहीं, मूल्य बोध का भी अनुमान हो जाएगा। किसी ने ठीक ही कहा था, ‘अगर मंटो ने दिल्ली प्रवास के दौरान केवल एक नाटक ‘जेबकतरा’ ही लिखा होता तब भी उनका दिल्ली प्रवास साहित्य के इतिहास में यादगार बन जाता।’ इन नाटकों में उनकी जिन्दगी की कश्मकश तो प्रतिबिम्बित है ही, जीने–मरने के उस तरीक़ों की खोज भी नज़र आती है। ’जनाज़े’ संग्रह के नाटक, ‘बाबर की मौत’ हो या ‘टीपू सुल्तान की मौत’, ‘शाहजहाँ की मौत’ हो या ‘चंगेज़ खाँ की मौत’, ‘रासपुलिन की मौत’ हो या ‘नेपोलियन की मौत’, ‘तैमूर की मौत’ हो या ‘किलोपेट्रा की मौत’, शासकों, तानाशाहों की जिन्दगी की अन्तिम झाँकियाँ हैं जो उनकी बेबसी और अकेलेपन का बोध कराती है। ये नाटक मंटो की जानकारी के विस्तृत फलक और उनके ज्ञानात्मक आधारों का पता तो देते हैं, ये नाटक एक तरह से मंटो की ख़ुद की बेबसी और अकेलेपन को भी दर्शाते हैं। नाटक में मंटो ने न्याय प्रणाली के विद्रूप को सीधे–सीधे देखा था। नाटक में मंटो ने उसे व्यंग्य और फार्स की मिली–जुली शैली में व्यक्त किया है।’
इस बात पर गौर करने की ज़रूरत है कि जिन दिनों मंटो दिल्ली में नाटक लिख रहे थे, उन दिनों दिल्ली रंगमंच की दृष्टि से वीरान पड़ी थी। कमोबेश हर जगह यही हाल था, नहीं तो मंटो अपने बचपन के रंग संस्कार को मंच पर अमली जामा ज़रूर पहनाते क्योंकि उनके कई ड्रामों में श्रव्य और दृश्य की बंदिश के साथ नाटकीय शब्द की मार कई तरफ है और नाटकीय अपेक्षाएँ भी पूरी होती दिखती हैं। उन्हें अफ़सोस रहा होगा कि वे अपने कई नाटकों को रंगमंच पर न ला सके और अपनी रेडियाई कलम से रेडियाई ड्रामे लिखने तक सीमित रहे।
मंटो जब रेडियो नाटक लिखते थे तब वे केवल लेखन तक ही अपने को सीमित नहीं रखते थे, उनके सामने नाटक के चरित्रों के साथ–साथ उसमें भाग लेने वाले सभी अभिनेता भी उनके ज़ेहन में रहते थे। वे अपने नाटकों के रिहर्सलों में मौजूद रहते थे। वे अभिनेताओं को नाटक के चरित्रों के बारे में बताते रहते थे। अगर किसी सुझाव की ज़रूरत पड़ती थी तो देते रहते थे। रेडियो आर्टिस्ट मंटो के इस सहयोग से खूब लाभान्वित होते थे। वे मंटो का बहुत सम्मान करते थे। मंटो के ड्रामों को उन कलाकारों ने जिस लगन और परिश्रम से किया और बोर्डकास्ट किया कि वे जनता में बहुत लोकप्रिय हुए।
मंटो अपने अभिनेताओं से इतना प्यार करते थे कि उन्होंने अपने रेडियो नाटकों का पहला संकलन निकाला तो उन कलाकारों के नाम समर्पित किया। इसमें सन्देह नहीं कि अपने रोज़मर्रा के तनावों और सन्तापों को उन्होंने अपने रेडियो नाटकों में कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया कि उनकी भावनात्मक उत्तेजनाओं का विरेचन सम्भव हो सका। पाबन्दियों से घिरे हुए वजूद को झटकने और पाखण्डपूर्ण मध्यवर्गीय मानसिकता को तार–तार करने का वे कोई भी अवसर नहीं छोड़ते थे। ‘करवट’ और ‘क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ’ जैसे नाटकों में रेडियो शिल्प और भाषा के ज़रिये मंटो कई तहों में लिपटे हुए यथार्थ को बड़ी नाटकीयता से उघाड़तें हैं। ठीक ही कहा गया है कि ‘आवाज़ की दुनिया में मंटो की वही अहमियत थी जो चार्ली चैपलिन की फ़िल्मी दुनिया में। चैपलिन की तरह मंटो की विशेषता भी अपना निशान छोड़े बग़ैर नहीं रह सकती थी।’
मंटो बनी-बनायी लीक पर चलने वाले शख़्स नहीं थे। कहानियों की तरह उनके ड्रामे भी विवादों में रहते थे। वे सच कहते थे और उनके साहित्य लिखने का उसूल भी था।कुछ लोगों को उनका सच बर्दाश्त नहीं होता था। उनका ड्रामा ‘जर्नलिस्ट’ रेडियो से जब प्रसारित तो हंगामा हो गया। यह नाटक उनके एक पुराने पत्रकार दोस्त और उनके साथ अख़बारों के मालिकों के शोषण और उनकी दमनकारी नीतियों के विरोध में था। यह किसी एक अख़बार के विरुद्ध नहीं था, बल्कि किसी भी भाषा में निकलने वाले अख़बारों के मालिकों की पूँजीवादी मानसिकता के ख़िलाफ़ था। उर्दू अख़बारों के कुछ सम्पादकों को इस नाटक से कुछ ज़्यादा ही एतराज हो गया। उन्होंने ऐसा कोहराम मचाया कि उसे थमने के लिए रेडियो के डायरेक्टर जेड. ए. बुख़ारी को इस नाटक के प्रसारण पर प्रतिबन्ध लगाना पड़ा।
जब तक मंटो दिल्ली में रहे और रेडियो से जुड़े रहे, खूब नाटक लिखा। विवाद तो उनके साथ शुरू से चलता रहा है। यहाँ भी विवाद छूटने वाला नहीं था। लेकिन दिल्ली में अधिक दिनों तक रहना शायद लिखा हुआ नहीं था। साल बीतते-बिताते उनका दिल्ली से मोह भंग हो गया। वे निराश हो चले थे। वे बेहद सुस्त रहने लगे। उदास और अशांत रहने लगे। जिस दिल्ली में वे बड़े उत्साह और उल्लास से आये थे, वही दिल्ली उसे बहुत बुरी जगह लगने लगी। ऐसे में जब मंटो को बंबई से नज़ीर लुधियानवी के खत आने लगे की प्रसिद्ध फ़िल्म डायरेक्टर शौक़त हुसैन रिज़वी अपनी फ़िल्मों के लिए कहानियाँ लिखवाना चाहते हैं तो वे तत्काल दिल्ली छोड़ बंबई लौट गये। दिल्ली छोड़ने के पहले मंटो ने अपनी पत्नी सफ़िया से कहा,’ बंबई चलें?’
‘तो चलिए न।’ साफ़िया ने जवाब दिया, ‘मेरा यहाँ कौन बैठा है?’
दिल्ली के सब्ज़ी मंडी के क़ब्रिस्तान में मंटो का बेटा आरिफ़ दफन था… और ढेर सारे नाटक और उसके किरदार थे जो आज भी दिल्ली के मोहल्ले, गलियों में घूमते रहते हैं और इस बात का अहसास दिलाते रहते हैं कि मंटो का यहाँ कोई है… मंटो के नाटक वल किताबों के पन्नों में ही नहीं, मंचों पर भी हैं… और पूरे वजूद के साथ...