पितृसत्तामक समाज का वर्तमान पुरूष
पिछले कुछ वर्षों में पितृसत्तामक समाज में भी पुरूष दिवस मनाने का चलन महिला दिवस की ही तर्ज पर जोर पकड़ने लगी है। किंतु, दोनों दिवस मनाने के उद्देश्य के पीछे काफी अंतर है। महिला दिवस जहाँ उनकी अस्मिता को रेखांकित करता है तो वहीं पुरूष दिवस पुरूषों के योगदान को रेखांकित करता है। अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस की एक थीम निर्धारित होती है, जिसके आधार पर इस दिन को मनाया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस 2022 की थीम ‘पुरुषों और लड़कों की मदद करना’ (Helping Men and Boys) है। इस थीम का उद्देश्य विश्व स्तर पर पुरुषों के स्वास्थ्य और कल्याण में सुधार के लिए कार्य करना है।
पहली बार अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस भारत में साल 2007 में मनाया गया था। दरअसल, इस साल पुरुषों के अधिकार के लिए लड़ने वाली संस्था ‘सेव इंडियन फैमिली’ (Save Indian Family) ने पहली बार अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस भारत में मनाया था। वर्तमान में 80 देशों में 19 नवंबर को अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस मनाया जाता है और इसे युनेस्को का भी समर्थन प्राप्त है। यह दिन मुख्य रूप से पुरुषों को भेदभाव, शोषण, उत्पीड़न, हिंसा और असमानता से बचाने और उन्हें उनके अधिकार दिलाने के लिए भी मनाया जाता है। जिस समाज में महिलायें पुरूषों के अधीन रहा करती थी, उसी समाज में आज महिलाओं द्वारा पुरूषों को भी प्रताडि़त किया जाने लगा है। महिलाओं की रक्षा के लिए बने कानून ही पुरूषों की प्रताड़ना का कारण बन गया है। आज इनसे उबारना पुरूषों के लिए अति आवश्यक हो गया है। आज पत्नियों से प्रताडि़त पतियों के लिए मुक्ति केंद्र तक स्थापित किये जा रहे हैं।
कहा जाता है कि हर कामयाब पुरूष के पीछे एक महिला का हाथ होता है, किंतु इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि अब महिलाओं के कामयाबी के पीछे भी पुरूषों का योगदान बढ़ता जा रहा है। जिस पितृसत्तामक समाज में महिलाओं का घर से बाहर कदम रखना दुभर था, उस समाज में आज महिलायें पुरूषों के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलने लगी हैं। आज के अधिकांश पुरूष महिलाओं के काम में इसलिए हाथ बंटा रहे हैं ताकि आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली महिलायें अपने भविष्य को संवार सकें, सदियों की गुलामी की दासता से आजाद हो सकें। लंबे समय से चले आ रहे उस भ्रम को तोड़ सके, जिसमें नारी को नर्क का द्वारा माना जाता था। जहाँ, महिलायें सिर्फ भोग-विलास की वस्तु के तौर पर उपयोग की जाती थी, वहीं आज वह अपनी योग्यता और क्षमता के कारण सम्मान प्राप्त कर रही हैं। आज के पुरूष यह समझने लगे हैं कि महिलाओं को यदि उड़ान भरने के लिए छोड़ दिया जाये तो वह आसमां को छूने में देर नहीं करेंगी।
किसी भी समाज में महिला और पुरूष नदी के दो किनारे नहीं बल्कि नदी की एक धारा है, जो एक के भी असहयोग से निर्वाध नहीं बह सकती है। इनके आपसी तालमेल के बिना समाज और जीवन दोनों बाधित होता रहेगा। यदि संतुलित समाज का निर्माण करना है तो दोनों को साथ-साथ चलना आवश्यक है। एक के बिना दूसरा अधूरा है। वर्तमान दौर का पुरूष महिलाओं की हर हिस्सेदारी को सहजता से स्वीकार करने लगा है। हर जिम्मेदारी को मिल-बांट कर उठाने लगा है। महिलाओं की सहभागिता, सलाह और निर्णय के बिना शायद ही कोई कदम उठा रहा है। आज का पुरूष महिलाओं को यह एहसास कराने में भी पीछे नहीं हट रहा है कि उन्हें अपनी रक्षा के लिए पिता, प्रेमी, भाई, बेटे के रूप में किसी रक्षक की जरूरत नहीं है, बल्कि वह स्वयं सक्षम है।
किंतु, एक स्याह पक्ष यह भी है कि बहुत सारे पुरूष आज भी ऐसे हैं जो महिलाओं को अपना गुलाम या फिर पैर की जूती ही समझ रहे हैं। सदियों से चली आ रही रूढि़वादी मानसिकता उनके दिमाग से नहीं निकल पा रही है। परिणामस्वरूप कभी निर्भया तो कभी श्रद्धा आदि जैसी घटनायें सामने आती रहती है। आज पूरे देश में आफताब और श्रद्धा के किस्से सुर्खियों में है। किसी डेटिंग एप के संपर्क में आने पर किसी के लिए ऐसा दुष्परिणाम साबित हो सकता है, यह सोच कर ही रूह कांप जाता है। जिस तकनीक को मानव सभ्यता के विकास का अहम् हिस्सा माना जा रहा है, उस तकनीक का इस्तेमाल कर कुछ कुंठित पुरूष महिलाओं को बर्बाद करने का जो प्रयास कर रहे हैं वह बेहद निराशाजनक है। यह पुरूषों की पितृसत्तामक सोच ही है जो ‘बुल्ली बाई एप’ के रूप में समय-समय पर सामने आती है। जब भी किसी पुरूष को यह लगने लगता है कि कोई महिला उसकी या उसके कामयाबी के आड़े आ रही है तो वह सबसे पहले उस महिला का चरित्र हनन करता है या फिर उसकी देह से अपनी भूख मिटाता है। या फिर हिंसा पर उतारू हो जाता है। या फिर मां-बहन अथवा जेंडर आधारित गालियों का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार पितृसत्तामक समाज का पुरूष अपनी पितृसत्तामक मानसिकता का तुष्टिकरण करता रहता है।
निष्कर्षत: हम यह कह सकते हैं महिला-पुरुष दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं और दोनों को यह बात स्वीकार करनी ही होगी। पुरूषों का भी पालन-पोषण उसी माहौल में होनी चाहिए, जिस माहौल में महिलाओं की होती है। पुरूषों को शक्तिशाली बताना और महिलाओं को कमजोर बताने की मानसिकता भी खत्म करनी होगी। दोनों की परवरिश सिर्फ योग्यता और क्षमता को ध्यान में रखकर ही करनी चाहिए। यदि लड़कियों पर सवाल उठाये जाते हैं तो लड़कों को भी सवालों के घेरे में रखना चाहिए। दोनों की परवरिश में समता और समानता का समावेश होना ही चाहिए।
एक के बिना दूसरे की कल्पना भी बेईमानी प्रतीत होती है। महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए पुरुषों को प्रताडि़त करना या फिर पुरुषों को आगे बढ़ाने के लिए महिलाओं को पीछे धकेलना दोनों ही गलत है। यह दिवस सफलता तभी सबित हो सकता है, जब समाज पुरुषों के योगदान को वह मान्यता दे, जिसके वे हकदार हैं और पुरुष भी महिलाओं को वह सम्मान अथवा तवज़्जो दे, जिसमें वह अपनी बराबरी को देख सके। महिलाओं को साथ लेकर बढ़ने में ही पुरुष दिवस की सार्थकता निहित है। साथ ही स्वस्थ और समतामूलक समाज की संकल्पना भी इसी में संभव है।