
बाढ़ को वरदान बनाने के लिए चाहिए साझी नीति
हम आये दिन अख़बारों, न्यूज़ चैनलों में बाढ़ की खबर देखते हैं तो उसके कहर से मन द्रवित हो उठता है। हम कुछ करने में खुद को अक्षम मानने लगते हैं, उस घटना पर अपनी जान गवाने वाले लोगों के प्रति संवेदना वक्त करते हैं और जीवन में पुनः आगे बढ़ने लगते हैं। कहते हैं समय किसी के लिए नही रुकता है, समय बड़ा बलवान है। हम समय को तो रोक नही सकते हैं पर उचित समय प्रबंधन कर अपनों की जान तो बचा सकते हैं। हमें सरकारों के साथ मिलकर किस प्रकार पहल करनी होगी कि पहाड़ों में भारी बारिश के बाढ़ की तबाही को रोक उसे वरदान के तौर पर कैसे संचित किया जा सकता है?
उत्तराखण्ड सहित समूचे देश को प्रकृति ने जल का वरदान दिया है पर कुप्रबंधन और उदासीनता के चलते यह वरदान हर साल अभिशाप में बदल जाता है। जरा सोचें, पूर्वांचल में जनसंख्या घनत्व काफी ज्यादा है। यहाँ नदियों की भी बहुलता है। जाहिर है लोग वहीं बसते हैं जहाँ पानी की सहज उपलब्धता है। उत्तराखण्ड में भी नदियों के किनारे इसीलिए लोग ज्यादा बसे लेकिन हम प्रकृति से इफराद में मिले जल को सहेज नहीं पाए और एक वरदान अभिशाप में बदल गया। हर साल करोणों रुपये बाढ़ राहत और उससे पहले बचाव के नाम पर खर्च होते हैं मगर स्थिति वही ढाक के पात जैसी ही रहती है।
उत्तराखण्ड के पहाड़ी जिले हर साल बाढ़ की विभिषिका झेलते हैं। जन धन की हानि होती है। सैकड़ों हर साल बेघर होते हैं। कहीं एक दूसरे की शरण लेते हैं तो कहीं दूसरे गांव की सीमाओं में पशु आदि लेकर खानाबदोश का जीवन बिताते हैं। इस विपदा के लिए जो इंतजाम होते हैं वे आग लगने पर कुआं खोदने जैसे ही दिखते हैं। बाढ़ में दो दिक्कतें जबरदस्त होती हैं। एक पीने के पानी की दूसरा बच्चों की पढ़ाई की। उनके स्कूल टूट जाते हैं। रास्ते बह जाते हैं। बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र में इन दोनों का निर्माण ऊंची जगह पर होना चाहिए। वह पॉलिसी में ही नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि बाढ़ की रोकथाम के लिए जो भी पॉलिसी बनती है उसमें स्थानीय लोगों के सुझाव शामिल ही नहीं होते। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि करोंड़ो खर्च के बाद भी समस्या निपटने के बजाय और जटिल हो जाती है।
हर साल बाढ़ से बचाने की तैयारियां होती हैं, करोड़ों का बजट जारी होता है लेकिन नदियों को खतरे से ऊपर न आने का प्लान कोई नहीं बनता। ऐसे में सवाल है कि यह बजट कहाँ बह जाता है? नदियों के भयानक रूप के पीछे प्रमुख वजह गाद, मिट्टी होती है। हर साल पानी के साथ बहकर आने वाली गाद से नदियों का प्रवाह बाधित होता है और पानी विपदा की वजह बन जाता है।
उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखण्ड की सभी प्रमुख नदियां गंगा, यमुना, कोसी और गंडक, घाघरा, सरयू, उफान पर हैं। क्या हमारे देश में नदियां पहली बार अपना रौद्र रूप दिखा रही हैं? नहीं, यह हर साल की समस्या है। सरकारों के पास इस बात का तथ्य तक नहीं है कि हर साल कितना पानी व्यर्थ बह जाता है और ये नदियां कितना नुकसान कर देती हैं। यह किसी एक राज्य की समस्या नहीं है।
नदियां राज्य की सीमाएं देखकर नहीं बहती हैं जो राज्य इन नदियों के बहाव क्षेत्र में आते हैं वे जब तक मिलकर इस समस्या का हल नहीं निकाल लेते नदियां यूं ही कहर बरपाती रहेंगी। राज्य सरकारों को हर साल बाढ़ बचाव पर होने वाले खर्च को सार्वजनिक करना चाहिए। साथ ही बहती नदियों के पानी को बचाने की योजना में उन शहरों, कस्बों के लोगों को भी शामिल किया जाना चाहिए जो प्रभावित होते हैं।
“गौर करने की बात यह है कि बाढ़ का असर झेलने वाले कोई और हैं और उसका प्रोजेक्ट बनाने वाले कोई और। उनमें कोई तालमेल नहीं है। पानी जब तक राष्ट्रीय महत्व का विषय नहीं बन जाए तब तक हम यूं ही बर्बाद करते रहेंगे।”
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक शहरी क्षेत्र में एक इंसान को प्रतिदिन 140 लीटर पानी की जरूरत होती है, लेकिन देश के कोई तीन चौथाई लोगों को इस आवश्यकता का 10% पानी भी नसीब नहीं हो रहा है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार विश्व में 10% लोगों को ही पीने का शुद्ध पानी मिल पाता है।
पानी के महत्व को समझना है हमें कृषि पर खर्च होने वाले पानी के आंकड़ों से इसे समझना होगा। एक किलो गेहूं उगाने के लिए एक हजार लीटर और एक किलो चावल उगाने के लिए 4 हजार लीटर पानी की जरूरत होती है। हमारे देश में 45% पानी की खपत खेती बारी में होती है। नदियों के व्यर्थ बहते पानी को रोकने के लिए कोई परियोजना बन गई तो उस दिन हमारे देश की दशा और दिशा ही बदल जाएगी। इस समस्या को बड़ी समस्या समझकर साझी नीति बनानी होगी। तभी हम बाढ़ के कहर व पानी की कमी से लोगों का जीवन बचा पायेंगे।
“आपदा पहाड़ का सबसे बड़ा दर्द है। पहाड़ का दर्द को समझते हुए हम सभी को आज विकास की इस अंधी दौड़ में पहाड़ों को बिकने से बचाना होगा। विनाश की ओर बड़ती ताक़तों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द करनी होगी। सरकारों को चेताना होगा। नई नीतियों का निर्माण कराना होगा। तभी हम, आप और यह प्रकृति सुरक्षित रहेगी।”