धागा प्रेम का टूटे जो, गठबन्धन करवाएं! उड़ने को तरसा करे, जो बन्धन में बन्ध जाये!!
समाज में प्रेम-सम्बन्ध टूटा ही करते हैं तब वैवाहिक गठबन्धन और भी लाजिमी हो जाता है चूँकि प्रेमी मन उन्मुक्त आकाश में विचरण करना चाहता है अत: उसे विवाह द्वारा सामाजिक बन्धन में बाँध दिया जाता है स्पष्ट है विवाह किसी के भी जीवन की अनिवार्य शर्त है, यह मेरा विचार नहीं अनुभव है आपका भी होगा। समाज में विवाह संस्था सिर्फ स्त्री पुरुष के गठबन्धन तक सीमित नहीं होता बल्कि यह दो परिवारों का भी सम्बन्ध होता है। डिजिटल युग में लोकल से ग्लोबल बना आज का युवा उन्मुक्त आकाश में विचरण करना चाहता है, तकनीक ने भी हर बैरियर ख़तम कर दिए हैं, जबकि विवाह संस्था हमें कई तरह के बन्धनों से जोड़ती है चाहे वह हमारी इच्छा में शामिल हो या ना।
रहीम से और साहित्य प्रेमियों से क्षमा के साथ कहूँगी कि मैंने ‘रहिमन धागा प्रेम का’ में थोड़ा उलट-फेर कर दिया अथवा कहूँ कि गुजरात की 24 वर्षीय क्षमा बिंदु के एकल विवाह के निर्णय के कारण ऐसा आयास हो गया। लेकिन यहाँ क्षमा का खुद से प्रेम है इसलिए वह खुद से ही गठबन्धन भी कर रही है। रहीम जब प्रेम धागे को न तोड़ने बात करतें हैं तो वे सम्बन्ध विवाह संस्था से उपजे पारिवारिक सम्बन्ध ही तो होते हैं (मित्रता को छोड़कर)। जबकि आज के युवा (स्त्री पुरुष दोनों) का सत्य यह है कि वह किसी भी प्रकार के प्रेम धागों में विश्वास नहीं करता अत: यदि सम्बन्ध ही न होंगे तो टूटेंगे कैसे फिर गाँठ की भी संभावनाएं ख़त्म हो गई। क्षमा ने जब एकल विवाह का निर्णय लिया तो एकबार को लगा कि कुछ तो विशेष है इस विवाह में लेकिन जब सम्बन्धों के बन्धनों की मूल जड़ विवाह-संस्था से बचकर, अपनी अस्मिता और अस्तित्व के नाम पर खुद ही से ब्याह करने के कारणों की तह में झाँकने लगी हो तो सकता है आप मेरी समझ से सहमत न हो पर लग रहा है कुछ तो चूक हो रही है।
विवाह संस्था के बन्धनों से मुक्त होने की इच्छा रखने वाले गुजरात की 24 वर्षीय क्षमा बिंदु का कहना है कि वह बचपन से ही ब्राइड/दुल्हन तो बनना चाहती है लेकिन पत्नी नहीं। अब हमारी पितृसत्ता समाज में लड़की का दुल्हन बनने का सपना कोई अनहोनी बात नहीं लेकिन ‘पत्नी नहीं बनना था’ यह अवश्य ही हमारे समाज के लिए चुनौती था। दुल्हन बनने की संकल्पना या परिकल्पना विवाह संस्था से जुड़ी हुई है, जब आप दुल्हन बनते हैं तो पत्नी के साथ-साथ बहु भाभी, चाची, मामी आदि पारिवारिक संबोधनों से भी तो बांध दिए जाते हैं। तो क्या ये रिश्ते वास्तव में हमारे जीवन के विकास में बाधक होते हैं? नारीवादी चश्मे से देंखेगे तो पायेंगे कि विशेषकर स्त्री के लिए विवाह एक बन्धन ही है और संभवत: यही कारण होगा कि क्षमा बिंदु किसी भी तरह की पारिवारिक सम्बन्धों से नहीं जुड़ना चाहती इसलिए उसने निर्णय किया वह खुद से विवाह करेगी।
आइये इस एकल विवाह का एक दूसरा पक्ष समझने की कोशिश करते हैं। हम जानते हैं जून का प्राइड मंथ चल रहा है जो समलैंगिकों के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है वे अपने अस्तित्व को पूरी दुनिया के सामने गर्व के साथ संप्रेषित करते हैं। जून LGBTQIA+ लोगों के गौरव को सेलिब्रेट करने का महीना होता है जिससे बाजार भी अछूता नहीं, कई प्रसिद्ध ब्रांड भी इस महीने का लाभ उठाते हुए उनके प्रति सम्मान की भावना दिखाते हैं; बस दिखाते भर हैं। प्राइड महीना इस समुदाय विशेष के लोगों के संघर्ष और चुनौतियां के प्रति एक सकारात्मक बदलाव लाने का प्रयास भी होता है। कोई आश्चर्य नहीं, प्राइड मंथ का लाभ उठाते हुए ही 11 जून को क्षमा बिंदु में एकल विवाह का निर्णय लिया।
आपको बता दें कि क्षमा ने स्वयं को बाई-सेक्सुअल बताते हुए कहा है कि उसके जीवन में दो बार अलग-अलग स्त्री और पुरुष के साथ सम्बन्ध बने जो सफल न हो सकें इसलिए उसने खुद से ही विवाह का फैसला लिया और अब इसके प्रचार के लिए प्राइड मंथ से बेहतर क्या हो सकता था क्षमा अपने विवाह का विज्ञापन-सा करती नज़र आ रहीं हैं, कि किस ख़ास ब्रांड की ज्वेलरी, लहंगे मेकअप आदि का इस्तेमाल करने वाली हैं यहाँ तक कि टूरिज्म को बढ़ावा देने हेतु उन्होंने अपने हनीमून स्पॉट की भी घोषणा कर दी है। एक स्त्री के स्वतन्त्र रहने के निर्णय का मैं सम्मान करती हूँ, यह एक ऐसा निर्णय है जो सीधे तौर पर विवाह संस्था पर प्रहार कर रहा है, सिंगल रहना ठीक है, यदि आप पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं, आर्थिक रूप से भी स्वतन्त्र हैं तो अकेले रहने में कहीं कोई बुराई नहीं है बल्कि आने वाले समय में आप जनसंख्या ना बढ़े इसमें बहुत बड़ा योगदान दे रहे हैं लेकिन उसके लिए विवाह संस्था से जुड़े रहना, चिपके रहना कहां की समझदारी है।
मुझे ये सिर्फ सस्ती लोकप्रियता का पाने का एक ढकोसला लगा। जबकि आप अपने एकल विवाह की घोषणा करते हो!! पर विवाह ही क्यों? यह प्रश्न मुझे बैचैन कर रहा है। अगर आप स्वतन्त्र रहना चाहते हैं चाहे पुरुष हो अथवा स्त्री रहें अकेले, बन्धन की कुंठाओं से परे मस्त रहें पर वापस उसी विवाह संस्था की शरण में जाने का क्या औचित्य? विवाह से जुड़े रीति-रिवाजों को मनाने के लिए विविध ताम-झाम के लिए खर्चे करने का एकमात्र उद्देश्य जो मुझे समझ में आया सब बाजार का खेल है क्योंकि शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए के लिए बाज़ार में तमाम उपकरणों का भी तो कोई खरीदार होना चाहिए न! अत: इसे स्त्री सशक्तिकरण अथवा अस्तित्व से जोड़ना बेतुका होगा।
हम उस दौर से गुज़र रहें है जबकि विवाह संस्था की विश्वसनीयता पर लगातार प्रश्नचिह्न लग रहें हैं, क्या स्त्री क्या पुरुष सहजीवन या एकल जीवन में आ रहे हैं। हमारे समाज में हर वर्ग में विवाह ही ऐसा अवसर होता है जबकि परिवार में शान और हैसियत से अधिक खर्च किया जाता है। ऐसे में शादी के बाज़ारों का क्या होगा? दो व्यक्ति साथ रहना चाहते हैं भले ही वह स्त्री-पुरुष हो या समलैंगिक हो तो वैवाहिक अनुष्ठानों की अनिवार्यता समझ में आती है, वहाँ सामाजिक स्वीकृति या मोहर लाजमी-सी हो जाती है लेकिन खुद से खुद के साथ रहने के लिए इस तरह के मोहपाश में बन्धना मेरी दृष्टि में एक चूक ही है जो एक दिग्भ्रमित मस्तिष्क की मूर्खता भी हो सकती है,क्योंकि विदेशों में एकल विवाह में तलाक़ के किस्से भी सुनने में आये हैं जो उन्हें दूसरे से प्रेम होने के बाद करना पड़ा यानी आप अपने प्रति ही ईमानदार न रह पाए, तो भविष्य के सम्बन्धों का क्या ही कहिए?
खुद के साथ रहने के लिए सामाजिक स्वीकृति हेतु वैवाहिक गठबन्धन करना क्या पितृसत्ता की गहरी जड़ों की ओर संकेत नहीं कर रहा है? आप समलैंगिक हो अथवा खुद से एकल विवाह करें, आपको विवाह संस्था से छुटकारा न मिलेगा! क्योंकि विवाह जिन्दगी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है, इसलिए क्षमा के लिए या किसी भी युवा के लिए अपने जीवन में शादी ना करने का फैसला (किसी भी कारण से) अत्यंत कठिन होता है चाहे, ऐसे में क्षमा की यह घोषणा कि ‘मैं खुद से प्रेम करती हूं इसलिए खुद से शादी कर रही हूं’ उसकी विवशता है अथवा विवाह संस्था के प्रति आस्था! अथवा शौक या फिर कहें बाज़ार का प्रभाव अथवा सभी मान सकतें हैं। इसीलिए वह तमाम रीति रिवाज और रस्में निभा रही है और तामझाम भी कर रही है जिसमें वह खुद ही दूल्हा बन रही है खुद ही दुल्हन! जो सामान्य नहीं ही है। वरना आप अपने आप से खुश हैं तो समाज को खुश करने के लिए वैवाहिक बन्धन का क्या आशय? वस्तुत: जिस विवाह संस्था से क्षमा भाग रही है वास्तव में उसी को बढ़ावा दे रही है और कहीं ना कहीं आने वाली पीढ़ी को पथभ्रष्ट कर गलत उदाहरण पेश कर रही है।
अंत में आपको मालूम होगा कि 1959 ‘गुनाहों का देवता’ उपन्यास में धर्मवीर भारती ने लिखा था ‘विवाह संस्था एक अच्छा विकल्प है लेकिन अब यह परिष्कार की मांग कर रहा है, रूढ़ियों के कारण उसमें विकृतियां आ गई हैं अतः प्रगतिशील समाज के लिए ‘स्वस्थ वैवाहिक विधान’ अनिवार्य है’। प्रेम के संदर्भ में वे कहतें हैं ‘एक दूसरे को समझे, प्यार करे, तब ब्याह के कोई मायने हैं’। समाज में वैचारिक स्वतन्त्रता वैवाहिक जीवन में सुख-शांति ला सकता है जातिबन्धन की रूढ़ परम्पराओं को तोड़कर प्रेम-विवाह समाज को एक नई दिशा प्रदान कर सकता है। इससे समाज की कई कुरीतियाँ स्वयं समाप्त हो जाएगी’ लेकिन विवाह में जिस बदलाव या परिष्कार की बाद भारती करते हैं वह एकल विवाह कदापि नहीं है। हम सिंगल रहकर भी अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व का विकास कर समाज के विकास में सहयोग दे सकते हैं उसके लिए गठबन्धन के बन्धन के चक्रव्यूह में क्यों फँसना।