पुस्तक-समीक्षा

प्रेम का साहचर्य पक्ष है ‘वह साल बयालीस था’

 

बिंज एप पर रश्मि भारद्वाज का उपन्यास ‘वह साल बयालीस था’ बयालीस एपिसोड में 2021 में प्रकाशित हुआ है। यह अब प्रिंट में सेतू प्रकाशन से आ गया है।

       हम सबने बचपन से यह सुना है कि प्रेम समर्पण का नाम है। समर्पण के महिमामण्डन से ओतप्रोत प्रेम कहानियों में अपना सबकुछ होम (स्वाहा) कर देने का यह विशिष्ट गुण प्रायः स्त्री पात्र में ही हुआ करता था। गृहस्थ जीवन में इसी प्रेम का दूसरा रूप ‘पति परमेश्वर’ होता था/है। इसके नाम पर आजतक पत्नियों से और कई बार प्रेमिकाओं से (जो बाद में पत्नी बन जाती हैं) उनकी नौकरी, उनकी रुचि और रचनात्मकता की बलि माँग ली जाती है। साथ रहते हुए ‘प्रेम’ कब ‘अधिकार’ में तब्दील हो जाता है प्रायः पुरुष अपनी कंडीशनिंग के कारण समझ ही नहीं पाता। कई बार समझते हुए जानबूझकर उस कंडीशनिंग से बाहर नहीं निकलना चाहता क्योंकि ‘अधिकार’ की आड़ में वह अपनी सुविधा को बनाए रखना चाहता है।

       यह उपन्यास उपर्युक्त विचार का निषेध करता है और प्रेम में ‘साहचर्य’ पक्ष को मजबूती से स्थापित करता है जिसे अनाहिता ‘कम्पैनियनशिप’ कहती है। उपन्यास का हर पात्र साहचर्य के पक्ष में है और जो साहचर्य को ठीक से नहीं निभा पाया वह पश्चाताप में है। इस तरह हर पात्र प्रेम के साहचर्य पक्ष को अनिवार्य मानता हुआ उसे व्यक्तित्व में शामिल करने के लिए प्रतिबद्ध है। प्रेम अगर मुक्ति है तो ‘साहचर्य’ उस अवस्था तक पहुँचने का साधन है। साहचर्य का तात्पर्य यहाँ ‘व्यक्ति की स्वतंत्रता’ और ‘अवसरों के चुनाव’ से है। इसलिए जब अनाहिता को लगता है कि अमोल प्रेम के नाम पर उसके पैंशन और शरीर पर अधिकार करना चाहता है तब वह उस प्रेम सम्बन्ध से बाहर आ जाती है।

इसी तरह जब अनाहिता के पिता को इस बात का एहसास होता है कि उनकी पत्नी के मृत्यु का एक कारण उसका अभिनय के दुनिया से दूर हो जाना था तो वे पश्चाताप से भर जाते हैं। रूप और रुद्र की इस महान प्रेम कहानी में दोनों अलग-अलग जीवन जीते हुए भी आजीवन एक-दूसरे के साहचर्य को संजोए हुए ही सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्ध हैं। उपन्यास का हर प्रमुख पात्र प्रेम में साहचर्य की आकांक्षा से ओतप्रोत है। पुरुष पात्र कहीं भी शोषक की भूमिका में न होकर स्वयं पितृसत्ता द्वारा शोषित है। चाहे वह रामेश्वर हों या अनाहिता के पिता हों, दोनों साहचर्य को ठीक से नहीं निभा पाने के अपराधबोध में हैं। लेकिन कहीं भी वे अपनी पत्नियों के शोषक नहीं हैं।

ऐसा लगता है कि लेखिका हर पात्र को रचते हुए उसके साथ एकाकार होती गयी हैं। प्रेम में डूबकर लिखा गया उपन्यास है यह। इस उपन्यास में ऐसा कोई भी पात्र नहीं है जिससे पाठक पल भर भी अपना रोष व्यक्त कर सके। भाषा की कोमलता भावुक परिस्थितियों का निर्माण तो करती हैं; परन्तु यह उपन्यास की कमजोरी नहीं बनती। एक प्रेम कहानी में भावुकता की जरूरत तो होती ही है। इस उपन्यास में यह भावुकता स्त्री लेखन की विशेषता बनकर आती है जिसमें सभी पात्र बस प्रेम करने के लिए हैं। प्रेम की इस उपन्यास की पॉलिटिक्स है। पाठक चाहकर भी किसी पात्र पर रोष नहीं व्यक्त कर सकते।

    अकारण नहीं है कि उपन्यास का शीर्षक है ‘वह साल बयालीस था’। 1942 भारतीय इतिहास का ‘मुक्ति वर्ष’ है। इस वर्ष दुनिया ने देखा कि भारतीय जनता अब बिना शीर्ष नेतृत्व के भी अपनी आजादी लेकर रहेगी। इस आजादी में ‘साहचर्य’ की भावना चरम पर था। रूप और रुद्र की प्रेम कहानी के लिए एकदम उपयुक्त देशकाल परिस्थिति है। साहचर्य के विचार को स्थापित करने के लिए इससे पावन वर्ष क्या होता? रुद्र का व्यक्तित्व गाँधी के समान दृढ़, संयमी और मानवीयता से लबालब है वहीं आपरूप उसके हर कार्य में सहयोगी और महिलाओं के शिक्षा के लिए प्रतिबद्ध। आपरूप को अपने शरीर को लेकर कोई कुंठा नहीं है। लेकिन समाज ने उसके शरीर को ही जेल बना दिया है जिसके कारण कई बार उसके सपने भी दम तोड़ते नजर आते हैं। लेकिन रुद्र का साहचर्य उसे इस उहापोह से बार-बार बाहर निकाल लेता है।

प्रेम का यही वह स्वरूप है जिसे लेखिका ने पूरे उपन्यास में विस्तार दिया है। एक ऐसा प्रेम जो बड़े सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्ध है। यह जोड़ा इस विचार को लेकर चल रहा है कि ‘जब तक गलती करने की स्वतंत्रता न हो तब तक आज़ादी अधूरी है।’ रूप के लिए इस आज़ादी का मतलब है कि ‘लड़कियों को शिक्षा का अधिकार मिले, विवाह में छूट मिले, अवसर की उपलब्धता हो।’ इसकी सफल अभिव्यक्ति है अनाहिता। अनाहिता दो पीढ़ियों के संघर्ष की उपलब्धि है। उसकी दादी रूप जितना पढ़ना चाहती थीं ,जितना काम करना चाहती थीं उतना नहीं कर पायीं। घर-गाँव तक ही सिमट कर रह गयीं। अना की माँ मंच तक पहुँची, कला की दुनिया में नाम बनाया। परन्तु, एक समय के बाद खुद को घर की चारदीवारी में कैद कर लिया। इस तरह दो पीढ़ी ने अपना बलिदान दिया तब तीसरी पीढ़ी की अना इतने आत्मविश्वास से अपना निर्णय ले पा रही है। हर बंधन से लड़ने की शक्ति उसे अपने इन्हीं पूर्वजाओं से मिल रही है।

   परिस्थितिवश दोनों का जीवन साथ में आगे नहीं बढ़ता। परन्तु, दोनों अपने उद्देश्यों के लिए समर्पित हैं। शादी के बाद रूप अपनी यूटोपिया बनाती है जिसका केंद्र गाँव का मंदिर है जहाँ वो स्त्री शिक्षा के लिए प्रयासरत है। रुद्र गुमनाम जीवन जीते हुए इतिहासकार बनता है जो हर तरह के नफरत के खिलाफ है। दो लोगों के साहचर्य की यह प्रेम कहानी हमारे समय की जरूरत है। यह वर्तमान परिस्थिति ही है जिसने इस तरह की कहानी को जन्म दिया है। चहुँओर जब नफरत और कट्टरता हमारे मस्तिष्क को एटम बम बनाने के लिए प्रयासरत है ऐसे समय में यह प्रेम कहानी हमसब को इतिहास से जोड़ते हुए प्रेम के रास्ते पर वापस खींच लेने की जिद करता है।

इस उपन्यास की दो और विशेषता है। पहला, स्त्री नजरिये से 1990 के बाद के गाँव का वर्णन और दूसरा, साहचर्य के विचार को देश की सीमा से परे ले जाना। अनाहिता जब गाँव जाती है तब देखती है कि देवी मंदिर के पास अब गुमटी खुल गयी है। बाहर कमाने वाले लोग भीड़ लगाकर पान-गुटखा खाते हुए और ‘एगो चुम्मा ले ले राजाजी’ टाइप गाना बजाकर स्त्रियों के लिए वह जगह अब प्रवेश निषेध टाइप बनाने की कोशिश कर रहे हैं। बाजार ने जिस तरह भारतीय गाँव का बेढब विकास किया है उससे अपसंस्कृति का ही विस्तार हुआ है। सुविधाओं के नाम पर गाँव की मूल आत्मा तो विस्थापित हुई ही साथ में बाजार ग्रामीण पितृसत्तात्मक मूल्यों से गठजोड़ करता हुआ स्त्रियों के लिए और बड़े खतरे पैदा कर रही है। मुक्ता बुआ इस खतरे को समझती है और चिंतित है।

   रुद्र की खोज में जब अनाहिता लंदन पहुँचती है तो उसकी मुलाकात सिद्धार्थ और एग्नेस से होती है। एग्नेस से मिलकर अना को साहचर्य को और नजदीक से जानना का मौका मिलता है। जिस अंग्रेजों के खिलाफ रुद्र ने आजीवन संघर्ष किया; अंतिम समय में उसे एक अंग्रेज महिला प्रोफ़ेसर ही संभालती रही, प्रेम करती रही। लेखिका ने सही कहलवाया है कि ‘उसकी लड़ाई अंग्रेजों से नहीं उनकी उस प्रवृत्ति से थी।’ जैसा कि इस उपन्यास का थीम ही है कि कोई प्रेम कहानी पूरी नहीं होती और हर प्रेम कहानी का अंत एक दूसरे प्रेम कहानी की शुरुआत होती है। दरअसल प्रेम कहानियाँ अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। वह शरीर और विवाह से बंधा हुआ नहीं होता। इसलिए जहाँ रुद्र और रूप की प्रेम कहानी का खत्म होता हुआ लगता है ठीक उसी पल अना और सिद्धार्थ की प्रेम कहानी की शुरुआत होती है। लेखिका ने सही लिखा है कि ‘प्रेम हर नफरत पर भारी रहा है।’ जब नफरत दुनिया पर हावी है तो दुनिया के हर कोने में कहीं न कहीं नई प्रेम कहानियाँ जन्म ले रही होती हैं

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महेश कुमार

लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया में स्नातकोत्तर (हिंदी विभाग) छात्र हैं। सम्पर्क +917050869088, manishpratima2599@gmail.com
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