राजस्थानी फिल्मों की उपेक्षा क्यों?
राजस्थानी परिवेश को आपने खूब फिल्मों में देखा है, यहां की बोली में संवाद भी खूब सुने हैं, लेकिन राजस्थानी फिल्म पिछली बार कब देखी है? आखिर क्या वजह है कि राजस्थानी परिवेश में रची बसी फिल्मों को हिंदी कैटेगरी में रखा जाता है, पड़ताल इस पर…
राजस्थानी भाषा की फिल्में जिस तरह से परिदृश्य से गायब हो रही है। उसे देखते हुए अक्सर इसके लिए सरकार के उदासीन रवैये को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है पर क्या सिर्फ़ यही एकमात्र वजह है? 1990 के बाद से राजस्थानी फिल्में बननी लगभग बंद सी हो गई हैं, लेकिन दूसरी तरफ अन्य भाषाओं एवं विदेशी फिल्मों की शूटिंग राजस्थान में बराबर होती रही है। निर्माता, निर्देशक राजस्थान के कल्चर और यहां की बोलियों को भी फिल्मों में जगह दे रहे हैं। वे फिल्म फेस्टिवल्स में कई पुरुस्कार भी हासिल कर लेते हैं। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, लेकिन ये फिल्में राजस्थानी नहीं कहलातीं, हिंदी की कहलाती हैं।
यह राजस्थान तथा राजस्थान की बोलियों एवं भाषाओं के साथ अन्याय या उनके प्रति अनदेखी ही कही जाएगी। राजस्थानी फ़िल्म के दर्शक भी हमेशा लालायित रहते हैं कि राजस्थानी फिल्में भी सिनेमाघरों में प्रदर्शित हों।
अभी हाल ही में एक फ़िल्म ‘मूसो’ नेशनल-इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल्स में भी खूब धमाल मचा रही है। उसे भी हिंदी फिल्म ही कहा गया है। इस फिल्म को दीपांकर प्रकाश ने निर्देशित किया है। फ़िल्म के संवाद निर्देशक ने चरणसिंह पथिक के साथ मिलकर लिखे हैं। इससे पहले चरणसिंह पथिक की कहानियों पर बनी फिल्म की बात करें तो ‘कसाई’ जिसके निर्देशक गजेंद्र श्रोत्रिय हैं उन्होंने भी अपनी फिल्म को हिंदी फिल्म ही कहा था। इसके अलावा प्रख्यात फिल्म निर्देशक ‘विशाल भारद्वाज’ जब पटाखा फिल्म लेकर आए तब उन्होंने उसे भी हिंदी सिनेमा ही कहा था।
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फ़िल्म ‘मूसो’ में ब्रज भाषा के साथ-साथ ढूंढाड़ी, हाड़ौती और माड़ बोली का टच भी है। मूसो फ़िल्म में बालू नाम का एक आदमी है, जो दिमाग से पैदल है। बचपन में बैल ने उसके सिर पर सींग मार दिया, उसके सिर पर, सो उसका दिमाग जाता रहा। गांव में वह अपने साथी किशन के साथ रहता है। कूड़ेदान में किशन की काकी को बालू पड़ा मिला, तो वो उसे साथ ले आई। काकी के मरने के बाद किशन उसे संभाल रहा है। बालू इतना भोला है कि उसे खरगोश की कहानी के अलावा कुछ याद नहीं रहता।
बालू को नरम, मुलायम चीजें सहलाने में मजा आता है। मजे-मजे में उसके द्वारा सहलाई जाने वाली सजीव वस्तुएं निर्जीव हो जाती हैं। उसकी मासूमियत भरे संवाद राजस्थान की मिश्रित बोली में नजर आते हैं, लेकिन यह फ़िल्म हिंदी की कैटेगरी में रखी गई है, ये स्थिति चिंताजनक तो है ही। फ़िल्म का परिवेश, कॉस्ट्यूम, लोक गीत के अलावा गीत-संगीत, कहानी, संवाद सबकुछ राजस्थानी है, आखिर फिर क्या बात है कि इन्हें राजस्थानी फिल्मों का दर्जा नहीं मिलता।
बता दें कि जॉन स्टैनबैक के उपन्यास ‘ऑफ़ माइस एंड मैन’ पर आधारित यह फ़िल्म तो एक ताज़ा उदाहरण मात्र है। जिसमें हमें एक तरफ़ बाल मन के दर्शन होते हैं, तो वहीं दूसरी ओर भीतर की कुंठाओं को भी यह हमारे सामने लेकर आती है। और इसी के साथ इस बहस को नए सिरे से शुरू करती है कि राजस्थानी भाषा की उपेक्षा क्यों?
सब्सिडी के बावजूद …
पहले यह कहा जाता था कि राजस्थान सरकार फिल्मों के लिए सब्सिडी कम देती है या देती ही नहीं कई बार। लेकिन वर्तमान सरकार ने 25 लाख रुपए का इंसेंटिव और कोई जीएसटी नहीं लगाने का वादा किया है। उसके चलते राजस्थान या राजस्थानी फिल्मों का निर्माण होना शुरू हो जाए तो एक पुरसुकून बात होगी। अब समय आ गया है कि राजस्थानी भाषा को भी सिनेमा में वह स्थान देना होगा, जिसकी वह हकदार है। हिंदी सिनेमा के मोहपाश से आज़ाद होकर ही ऐसा किया जा सकता है। जब निर्माता , निर्देशक राजस्थान में कहानियां तलाश करते हैं, इस प्रांत की बोली को उसमें स्थान देते हैं, तब क्यों वे अपनी फिल्मों को राजस्थानी भाषा की कैटेगरी में नहीं रखते, ये सोचना होगा।
कहते हैं दीपांकर …
‘हिंदी सिनेमा कहने से ऑडियंस बढ़ जाती है। ‘मूसो’ मेरी डेब्यू फिल्म भी है। और राजस्थानी फ़िल्म के दर्शक अभी ज्यादा नहीं है। उनकी कमी हमेशा से महसूस की गई है। इस फ़िल्म में डायलॉग्स भी हिंदी के करीब हैं, सिनेमेटिक छूट/लिबर्टी भी ली गई है। प्रोड्यूसर के पैसे भी लगे होते हैं। ऐसा नहीं है मैं राजस्थानी सिनेमा नहीं करना चाहता, पर कुछ सीमाएं है हमारी।
सिनेमा में राजस्थानी परिवेश …
हाल ही में जब दिनेश यादव की राजस्थानी फ़िल्म ‘टर्टल’ को 66 वां राष्ट्रीय पुरस्कार मिला तो एक उम्मीद सी जगी। देशभर के लोग राजस्थानी परिवेश और भाषा को पसंद कर रहे हैं। एक तथ्य यह भी है कि पिछले 60 साल से भी ज्यादा समय से राजस्थानी फिल्में बन रही हैं, लेकिन राष्ट्रीय पुरस्कार ‘टर्टल’ के ही हिस्से आया, क्योंकि यह पानी की समस्या पर बनी फिल्म है। जो एक वैश्विक समस्या भी है। इससे पहले बाई ‘चाली सासरिये’ , ‘नानी बाई को मायरो’ , ‘बींदणी हो तो ऐसी’ जैसी फिल्में खूब मशहूर हुई हैं। इन फिल्मों ने अच्छी कमाई भी की है। वैसे राजस्थानी सिनेमा में गत पंद्रह वर्षों में ‘बाई चाली सासरिये’ ही एकमात्र सफल फ़िल्म है, जिसकी कहानी केशव राठौड़ ने लिखी थी। यही फ़िल्म पहले ‘महीयर नी चुंदड़ी’ नाम से बनी थी, फिर राजस्थानी में बनी, इसके बाद हिंदी में यह फ़िल्म ‘साजन का घर’ नाम से बनी और निर्देशक थे भरत नाहटा। इसी तरह ‘नानी बाई को मायरो’ फ़िल्म यूं तो एक लोक कथा है, लेकिन पर्दे पर इसने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया। लेकिन ये कहानियां अब युवाओं को नहीं लुभाती। कुछ समय पहले ‘भोभर’ फ़िल्म आई थी, जहां कहानी में बदलाव देखा गया था।
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यूं राजस्थानी बोली और परिवेश को गैर राजस्थानियों ने ‘रुदाली’ और ‘पहेली’ जैसी फिल्मों से ज्यादा महसूस किया है। दोनों ही फ़िल्मों की कहानियां महान लेखकों की है। ‘विजयदान देथा’ उर्फ़ बिज्जी की ‘दुविधा’ कहानी पर आधारित है ‘पहेली’। वहीं ‘रुदाली’ की कहानी महाश्वेता देवी की है। ऐसे में यह भी लगता है कि अगर कहानी दमदार हो तो वह दर्शकों तक पहुंचती जरूर है।, भले ही उसे किसी भी भाषा कैटेगरी में रख दो। लेखक अपने प्रांत इसे सुलझी हुई स्थिति नहीं कह सकते। भाषा की स्वीकार्यता के मसले को किसी भी पहेली की तरह नहीं देखा जा सकता।
नोट – यह लेख रविवार, 27 जून, 2021 को राजस्थान पत्रिका में ‘कौन बूझेगा ये पहेली’ नाम से प्रकाशित हुआ था जिसमें बात थी उन फिल्मों की जिन फिल्मों में राजस्थान है पर फिल्म नहीं कहलाती वे राजस्थानी।
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