भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को बंगा, लायलपुर, पंजाब (अब पाकिस्तान) में हुआ था। देशभक्ति उन्हें विरासत में मिली थी। जिस दिन भगत सिंह का जन्म हुआ था उसी दिन उनके पिता सरदार किशन सिंह, चाचा सरदार अजीत सिंह, सरदार स्वर्ण सिंह जेल से रिहा हुए थे। इसलिए उनकी दादी ने उनका नाम भागोवाला रखा जो आगे चल कर भगत सिंह के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनके चाचा सरदार अजीत सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह का जुड़ाव क्रांतिकारी आन्दोलन से था। पिता सरदार किशन सिंह कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे।
देशभक्ति भगत सिंह में कूट-कूट कर भरी थी। देश के लिए जीना और मरना उनके जीवन का मकसद हो गया था। देश का राजनैतिक माहौल तेजी से बदल रहा था। तिलक के बाद कांग्रेस की कमान गांधी जी ने संभाली थी। असहयोग आन्दोलन ने आजादी की लड़ाई में जान फूंक दी थी। देश उबाल पर था। इस माहौल में भगत सिंह का तरुण मन भला कैसे चुपचाप बैठे रह सकता था। भगत सिंह इस आंदोलन में शरीक हुए। उन्होंने डीएवी कॉलेज छोड़ कर नेशनल स्कूल में दाखिला लिया। लेकिन गांधीजी ने अचानक चौरी चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। पूरा देश गांधी जी के इस फैसले से अवाक, हतप्रभ रह गया। इसका प्रभाव भगत सिंह के मन पर भी पड़ा। इस अप्रत्याशित घटना ने भगत सिह को क्रांतिकारी आंदोलन की ओर मोड़ दिया।
स्वराज्य प्राप्ति के तरीकों में मतभेद के बावजूद भगत सिंह यह मानते थे कि स्वराज के लिए लोगों में जागरण का जितना काम गांधी जी ने किया उतना किसी अन्य ने नहीं किया। इसलिए वे गांधी जी की बहुत इज्जत करते थे। गांधी जी भी भगत सिंह की बहादुरी और देशभक्ति के कायल थे।
इतिहास अतीत से सबक सीखने के लिए है, बदला लेने अथवा महापुरूषों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने और लड़ाने के लिए नहीं है। मगर कुछ संक्रीर्ण मानसिकता वाले गांधी बनाम भगत सिंह की नकली विवाद खड़ा कर रहे हैं। खासकर युवाओं को गुमराह कर रहे हैं। जनता का ध्यान मूल सवाल से हटाने के लिए वे लोग फर्जी बहस एवं मुद्दे खड़ा करते हैं। विशेषकर युवाओं में यह भ्रम फैलाया गया है कि अगर गांधी चाहते तो भगत सिंह को बचा सकते थे। जो लोग यह बात कह रहे हैं उन्होंने न तो गांधी को समझा है और न भगत सिंह को। क्या वे समझते हैं कि भगत सिंह जिनका मिशन ब्रिटिश हुकूमत को देश से उखाड़ फेंकने के लिए देश को जगाना था, वह स्वाभिमानी देशभक्त युवा भगत सिंह क्या अंग्रेजों की भीख दी हुई जिंदगी जीना पसंद करते। इस संदर्भ में भगत सिंह का 22 मार्च 1931 को अपने साथियों को लिखा पत्र गौर करने लायक है। उन्होंने लिखा, ‘साथियों, स्वभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। लेकिन मैं एक शर्त पर जिन्दा रह सकता हूं कि कैद होकर या पाबंद हो कर जीना नहीं चाहता। मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दलों के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है- इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा हरगिज नहीं हो सकता। आज मेरी कमजोरियां जनता के समने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिह्न मद्धिम पड़ जाएगा या संभवत: मिट ही जाए।
खुद भगत सिंह गांधी के बारे में क्या सोचते थे, अब जरा इस पर गौर करें। भगत सिंह जब जेल में राजनैतिक बंदियों पर राजनैतिक बंदियों जैसा बर्ताव किया जाय के प्रश्न पर अनशन कर रहे थे इस अनशन में क्रांतिकारी जतिन दास की मृत्यु हो गई थी। भगत सिंह की हालत बिगड़ रही थी। देश में चिंताएं बढ़ रही थीं। कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित कर भगत सिंह से अनशन तोड़ने का आग्रह किया। कांग्रेस का प्रस्ताव लेकर उनके पिता सरदार किशन सिंह भगत सिंह के पास गये। उन्होंने भगत सिंह से कहा “बेटा कांग्रेस पार्टी ने तुमसे आग्रह किया है कि तुम लोग इस अनशन को छोड़ दो।” भगत सिंह ने कहा कि हम सभी क्रांतिकारी इस पार्टी की इज्जत करते हैं, क्योंकि हम सब को पता है कि इसने देश की आजादी के लिए कितने संघर्ष किए है। पर हाँ, यह भी सही है कि महात्मा गांधी के अहिंसापूर्ण तरीके से देश की आजादी प्राप्त करने को मैं असंभव सपना मानता हूँ। …मगर इस बात से कौन इनकार करेगा करेगा कि भारत में किसी ने जागरण लाया है तो यह काम गांधी जी ने किया है। …इस कारण मैं उनकी इज्जत करता हूँ।” स्पष्ट है अंग्रेजों से लड़ाई के तरीकों को लेकर भगत सिंह और गांधी में मतभेद थे। मगर इसके साथ ही भगत सिंह गांधी के काम को सर्वाधिक महत्त्व का मानते थे और इस कारण उनकी बहुत इज्जत करते थे।
इस बारे में सुभाष चंद्र बोस का बयान महत्त्वपूर्ण है।
स्वयं गांधीजी ने कांग्रेस के कराची अधिवेशन में, जो भगत सिंह के फांसी के तुरंत बाद में हुई थी, एक प्रश्न के उत्तर में कहा था “मैं वायसराय को जिस तरह से समझा सकता था, उस तरह से समझाया। समझाने की जितनी क्षमता मुझमें थी, सब मैंने उनपर आजमा कर देखी। भगत सिंह के परिवार वालों के साथ निश्चित आखिरी मुलाकात के दिन अर्थात 23 मार्च को सबेरे मैंने वायसराय को एक खानगी खत लिखा। उसमें मैंने अपनी सारी आत्मा उड़ेल दी, सब बेकार गया। आप कहेंगे कि मुझे एक बात और करनी चाहिए थी – सजा को घटाने के लिए समझौते में एक शर्त रखनी चाहिए थी पर फांसी की सजा समझौते के बाद सुनाई गई। अब ऐसा नहीं हो सकता था।” स्पष्ट है जो लोग यह प्रचार कर रहे है कि गांधी जी ने भगत सिंह को बचाने का प्रयास नहीं किया इसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है, यह पूरी तरह भ्रामक और असत्य है। वे कौन लोग हैं जो सुनियोजित ढंग है गांधी के बारे में झूठ और भ्रम फैलाकर लोगों को गुमराह कर रहे हैं। ये वो लोग हैं जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों का साथ दिया था, अब अपना खोटापन को छिपाने के लिए गांधी के खिलाफ समाज में गहर फैलाने के कुत्सित प्रयास में लगे हैं। इस अभियान में दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनो शामिल हैं।
भगत सिंह साम्प्रदायिकता को भी उतनी ही बड़ा दुश्मन मानते थे, जितना साम्राज्यवाद को। भगत सिंह ने जिस नौजवान सभा की संरचना की उसने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव भगत सिंह की अगुआई में पारित किया कि किसी भी धार्मिक संगठन से जुड़े नौजवान को उसमें शामिल नहीं किया जा सकता क्योकि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है और साम्प्रदायिकता हमारी दुश्मन है जिसका हर हालत में विरोध किया जाना चाहिए।
1919 में जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड के बाद ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों का खूब प्रचार शुरू किया। इसके असर से 1924 में कोहाट में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। उसके बाद राष्ट्रीय राजनीति चेतना में साम्प्रदायिक दंगों पर लम्बी बहस चली। इस मौके पर भगत सिंह ने जो विचार व्यक्त किए वह गौर करने लायक है। “भारतवर्ष की दशा इस समय अत्यन्त दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों की जान के दुश्मन हैं। …यह मार-काट इसलिए नहीं है कि फलां आदमी दोषी है, वरना इसलिए कि फलां आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य अंधकारमय नजर आता है। इन दंगों ने संसार की नजर में भारत को बदनाम किया है। इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबार का हाथ है।” भगत सिंह लाला लाजपत राय की बहुत इज्जत करते थे। यह मालूम होते ही कि लाला लाजपत राय का रुझान साम्प्रदायिक होने लगा है तो उन्होंने उनकी विचार धारा के खिलाफ एक मुहिम छेड़ दी। …जिसमें बड़े- बड़े बैनरों पर लाला जी का चित्र बना कर उन्हें मरा हुआ नेता लिख कर लाहौर में बंटवाया।
आज एक बार फिर देश का साम्प्रदायिक माहौल बिगड़ रहा है। जो काम कभी अंग्रेजी हुकूमत करती थी वही काम इस समय देश का शासकवर्ग कर रहा है। देश का साम्प्रदायिक वातावरण बिगाड़ने, लोगों को बांटने और शासन करने की साजिशें परवान चढ़ रही हैं। ऐसे में भगत सिंह का साम्प्रदायिकता पर स्पष्ट विचार इस घने अंधकार में प्रकाशपुंज की तरह हमारा मार्गदर्शन कर सकता है। आजादी के दौर और उसके बाद के वर्षों में जिस दृष्टि, मूल्य, विचार एवं कार्यक्रम पर राष्ट्रीय सहमति थी उसको चुनौती देने वाली और राष्ट्र को विपरीत में ले जाने वाली कटिबद्ध ताकतें आज हाशिए से केन्द्र में आ गई हैं। उग्र राष्ट्रवादी एवं पुनरुत्थानवादी ताकतें आज उभार पर हैं। प्राचीन सभ्यता वाले देशों में भारत ही अकेला है जिसके जीवन में आज भी उसकी पुरानी संस्कृति के उदात्त मानवीय मूल्य एवं समता वाली दृष्टि की छाप मौजूद है। संयम, सह अस्तित्व एवं समन्वय भारतीय संस्कृति की आत्मा है।
भगत सिंह ने साम्राज्यवाद को इस देश से उखाड़ फेंकने तथा इसके लिए देश, विशेषकर युवाओं को जगाने के लिए आपना आत्म बलिदान दिया। आज साम्राज्यवाद पहले से ज्यादा खतरनाक रूप में देश को अपने चपेट में ले चुका है। साम्प्रदायिक एवं फासीवादी शक्तियां देश का साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ने तथा सदियों से कायम गंगा-यमुनी संस्कृति को खत्म करने में लगी हैं। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि भगत सिंह के विचार को मानने वाले, उनसे प्रेरणा लेने वाले युवा क्या आज भगत सिंह की विरासत संभालने के लिए तैयार है? देश को इन्तजार है ऐसे देशभक्त सपूतों का जो भगत सिंह के विचार एवं देशभक्ति की परम्परा को आगे बढ़ाएं।
अशोक भारत
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संदर्भ : 1. गांधी और भगत सिंह , ले. सुजाता, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी
- गांधी और सुभास, ले. सुजाता , सर्व सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी
- भगत सिंह से दोस्ती , सं. विकास नारायण राय, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद