मुनादी

गरीबों की सुनो

 

ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने सीआरआई (कमिटमेंट टू रिड्यूसिंग इनइक्वैलिटी) इंडेक्स की जो रिपोर्ट जारी की है. उसकी सूची में शामिल 157 देशों में भारत का 147वां स्थान है. ऑक्सफैम ने भारत के बारे में कहा है कि देश की स्थिति बेहद नाजुक है और यहाँ सरकार स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा पर बहुत कम खर्च कर रही है. स्थिति की गम्भीरता को समझने के लिए ऑक्सफैम का हवाला आवश्यक नहीं है, लेकिन ऑक्सफैम की यह रिपोर्ट  दर्शाती है कि भारत की गरीबी की रुदाली अब विश्व स्तर पर भी गायी जाने लगी है. इस सूची में चीन 81वें स्थान पर है और स्वास्थ्य व कल्याणकारी योजनाओं पर भारत की तुलना में वह कई गुना ज्यादा खर्च कर रहा है. इसलिए भारत की अपेक्षा चीन में आर्थिक विषमता कम है. भारत में आर्थिक विषमता का तो हाल यह है कि देश की 80 प्रतिशत सम्पत्ति देश के सिर्फ 20 प्रतिशत लोगों के पास है. दूसरी तरफ भारत में 35 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर करने के लिए मजबूर हैं.

भारत की 27.5 प्रतिशत आबादी बहुआयामी गरीबी की मार झेल रही है और कुपोषण का शिकार हो रही है. वहीं 8.6 प्रतिशत भारतीय इतने गरीब हैं कि उनके लिए दोनों समय भोजन जुटाना सपने जैसा बनता जा रहा है. एक अचरज वाली बात यह है कि भारत में गरीबी रेखा को कैलोरी के उपभोग की मात्रा से जोड़कर देखा जाता है. स्वास्थ्य की दृष्टि से एक मान्य पैमाना यह है कि एक व्यक्ति को अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए ग्रामीण इलाके में 2410 कैलोरी और शहरी इलाके में 2070 कैलोरी की न्यूनतम आवश्यकता प्रतिदिन होती है. इस कैलोरी को हासिल करने के लिए गाँव में एक व्यक्ति पर 324 रुपये 90 पैसे और शहर में 380 रुपये 70 पैसे न्यूनतम खर्च करने होते हैं. पिछले एक दशक में कैसी गरीबी, गरीब कौन और कितने गरीब इन बातों के निर्धारण के लिए लगभग आधा दर्जन समितियाँ बनीं.

इनमें से अर्जुन सेनगुप्ता की वह रिपोर्ट  बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, अर्थशास्त्रियों और राजनीतिकर्मियों के बीच बहस और सरकार को कोसने का वर्षों मुख्य विषय बनी रही जिसमें कहा गया था कि 77 प्रतिशत भारतीय 20 रुपये प्रतिदिन से कम पर अपना जीवन गुजारने के लिए मजबूर हैं. जहाँ पर्याप्त कैलोरी के लिए प्रतिदिन तीन चार सौ रुपये चाहिए वहाँ 20 रुपये में तो पानी का सिर्फ एक बोतल ही खरीदा जा सकता है. इस विषम परिस्थिति में स्वस्थ जीवन जीना तो दूर गरीबों के लिए जान बचाना भी दूभर होता जा रहा है. पिछले दो दशकों में गरीबी उन्मूलन के नाम पर ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता योजना, राष्ट्रीय वृद्धा पेंशन योजना, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना, राष्ट्रीय प्रसव लाभ योजना, शिक्षा सहयोग योजना,  सामूहिक जीवन बीमा योजना, जयप्रकाश नारायण रोजगार गारंटी योजना, बालिका संरक्षण योजना, बाल्मीकि अम्बेडकर आवास योजना, राजीव गाँधी श्रमिक कल्याण योजना, इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना, महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी जैसी योजनाओं पर सरकारी कोष से अरबों रूपये खर्च हुए और हो रहे हैं, लेकिन गरीबों की स्थिति में कोई कारगर सुधार नहीं दीखता.

इस विफलता की प्रामाणिक वजह एक बार पूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने बताया था कि ऊपर से एक रुपया जब चलता है तो नीचे जरुरतमंदों तक पन्द्रह पैसे ही पहुँच पाते हैं. तन्त्र में ऊपर से नीचे तक व्याप्त भ्रष्टाचार को राजीव गाँधी ने साहस के साथ स्वीकार किया था, उनकी यह स्वीकारोक्ति उनका भोलापन था और उनकी ईमानदारी भी. लेकिन अभी की व्यवस्था इतनी ढीठ और बेशर्म है कि अम्बानी को पार्टनर बनाकर उसे लाभ पहुँचाने के लिए 600 करोड़ रुपये के लड़ाकू विमान को 1600 करोड़ रुपये में खरीदकर देश को अच्छे दिन का सब्जबाग दिखा रही है. लड़ाकू विमान की कीमत में अप्रत्याशित वृद्धि की जो दलील सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पेश की है वह कहीं से पचने लायक तर्क नहीं है.

भारत जैसे देश में जहाँ जाति, धर्म और सम्प्रदाय के आधार पर समाज में तिक्त बँटवारा हो, वहाँ आर्थिक विषमता  के दुष्परिणाम ज्यादा मारक हैं. इसलिए आर्थिक विपन्नता एक जैसी हो तो भी सवर्णों की तुलना में अति पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की गरीबी विषम सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण ज्यादा त्रासद होती है. एक समरस समाज की पुनर्रचना और लोकतान्त्रिक संस्कारों वाले शासन के गठन के लिये यह जरूरी है कि समाज में विषमता कम हो और संसदीय संस्थाओं में गरीबों और अभिवंचितों का प्रतिनिधित्व ज्यादा से ज्यादा हो. लेकिन सरकारी नीतियों के कारण थोड़े लोग ज्यादा अमीर और ज्यादा लोग ज्यादा गरीब होते जा रहे हैं. और जहाँ तक संसदीय संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का मुद्दा है, कुछेक दुर्लभ अपवादों को छोड़ दें तो संसदीय इलाके (ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक) में अभिवंचितों का प्रवेश वर्जित है. अभी 350 सांसद करोड़पति हैं, अमीरों की संसद में गरीबों के हितों की बात कैसे हो सकती है? अब मुखिया के चुनाव में लाखों और विधान सभा के चुनाव में करोड़ों रुपये फूंके जा रहे हैं. ऐसे में तो कोई गरीब भारत में चुनाव लड़ने का सपना भी नहीं देख सकता.

गरीबी रेखा के इस पार और उस पार पर तो वर्षों से बहस हो रही है, अब वक्त आ गया है कि अमीरी रेखा पर भी इस देश में बात होनी चाहिए. कोई कितना अमीर हो सकता है यह तय हो जाना चाहिए. कोई अम्बानी प्रतिदिन  करोड़ों रुपये मुनाफा कमाए और कोई मजदूर हाड़-मांस गलाकर भी तीन सौ रूपये हासिल नहीं कर पाए, यह गैरबराबरी बर्दाश्त करने लायक नहीं है.

दुनिया के जाने-माने फ़्रांसिसी अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने अपने एक शोध पत्र ‘भारतीय आय असमानता 1922-2014: अँग्रेजी राज से अरबपति राज?’ में कहा है कि अभी भारत में असमानता की खाई 1922 के बाद से सबसे ज्यादा चौड़ी है. दुनिया आगे जा रही है और हम पीछे भाग रहे हैं. विपन्नता के महासागर में सम्पन्नता के द्वीप खड़ा करके हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र की रक्षा नहीं कर सकते. जैसे भी हो विषमता की इस खाई को हमें ख़त्म करना होगा.

.

कमेंट बॉक्स में इस लेख पर आप राय अवश्य दें। आप हमारे महत्वपूर्ण पाठक हैं। आप की राय हमारे लिए मायने रखती है। आप शेयर करेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।
Show More

किशन कालजयी

लेखक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'संवेद' और लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक 'सबलोग' के सम्पादक हैं। सम्पर्क +918340436365, kishankaljayee@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

2 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
2
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x