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युद्ध के अंधेरे में सृजन की रोशनी बिखेर गया फोसवाल महोत्सव

 

 

‘यदि युद्ध पीड़ा उपजाते हैं तो युद्ध होते ही क्यों हैं?’ हालिया दो युद्धों से उपजा यह ज्वलंत प्रश्न इस बार फोसवाल महोत्सव में चर्चा का मुख्य विषय रहा। ‘फाउंडेशन ऑफ सार्क राइटर्स एंड लिटरेचर’ द्वारा आयोजित चार दिवसीय फोसवाल महोत्सव में इस प्रश्न पर गहन मंथन हुआ।

इजरायल-फलीस्तीन, रूस-यूक्रेन युद्ध से उपजे कई प्रश्न थे, जिनके उत्तर तलाशने की कोशिश महोत्सव में कई  गई। नए और पुराने समय के युद्धों के आचरण और बदलाव पर प्रकाश डालने के साथ इसके आमजन पर व्यापक असर पर गहराई से चर्चा हुई। युद्ध के कारणों और निवारणों पर भी सबने अपने-अपने विचार रखे।

एम.एल. लाहोटी ने युद्धों के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र की सार्थकता पर प्रश्न उठाया। उन्होंने कहा, “युद्धों से शांति भंग होती है और जब शांति भंग होती है तो कला और संस्कृतियां भी नष्ट होने लगती हैं।

एच. एस. फूलका ने कहा, “युद्ध कहीं भी हो उससे दुनिया का हर कोना प्रभावित होता है क्योंकि दुनिया अब ग्लोबल विलेज बन चुकी है। इस बारे में अभी सुबेदी के विचार में, “युद्ध में हुआ विनाश इतना भयानक है कि पीढ़ियों के पास कुछ याद करने को नहीं बचता। असल में कोई याद करने वाला ही नहीं बचता।”

‘द न्यू इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादकीय निदेशक प्रभु चावला ने अधिकतर युद्धों के लिए पोलिटिकल लीडर्स की मान्यताओं को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कोई किसी देश, धर्म या परिवार में पैदा हुआ है तो यह गुनाह नहीं है।” युद्ध कभी खत्म हो सकता है या नहीं इस प्रश्न के उत्तर में चावला ने कहा, “युद्ध कभी खत्म नहीं हो सकते क्योंकि अब यह अपनी टेरिटरी और बिजनेस बढ़ाने का जरिया बन चुका है।”

इस बारे में समाजविज्ञानी आशीष नंदी ने युद्धों के खिलाफ पहल की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने कहा, “यूनाइटेड नेशन को एक कमीशन की स्थापना करनी चाहिए, जो किसी भी युद्ध के शुरू होने की दशाओं का इन्वेस्टिगेशन कर सके। जो यह पता लगाए कि कोई भी गैरजरूरी युद्ध कैसे शुरू हो जाता है। यह बहुत मुश्किल विचार है मगर जरूरी भी। असल में युद्ध आरंभ करने को अपराध घोषित किया जाना चाहिए।”

फोसवाल महोत्सव सार्क देशों की कला और साहित्य को एक मंच पर लाने वाला अहम आयोजन है।  ‘फाउंडेशन ऑफ सार्क राइटर्स एंड लिटरेचर’ की चेयरपर्सन अजीत कौर के प्रयासों से यह सिलसिला जारी है। साहित्य महोत्सव के इस आयोजन को लेकर उनके जुनून ने उनकी बढ़ती उम्र को भी धता बता दिया है।

फोसवाल का यह 64 वां  महोत्सव कई मायनों में खास रहा। वर्तमान में चल रहे दो युद्धों की पीड़ा पर चर्चा के साथ जाने-माने कवियों की कविताओं का पाठ भी केंद्र में रहा। अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, पंजाबी  के कवियों की कविताओं ने युद्ध की तानाशाही को एक स्वर में नकार दिया और एक बेहतर दुनिया का स्वप्न श्रोताओं की आंखों में बोने का काम किया। वहीं भक्ति, सूफी और बौद्ध मान्यताओं की व्याख्याएं, अनुवाद के महत्व पर बातचीत, युद्धों में होने वाली रिपोर्टिंग के पीछे की सच्चाई जैसे विषयों को समेट कर महोत्सव ने इंद्रधनुषी छँटा बिखेरी।

महोत्सव का शुभारंभ ”फाउंडेशन ऑफ सार्क राइटर्स एंड लिटरेचर’  की चेयरपर्सन पद्मश्री अजीत कौर का स्वागत भाषण से हुआ। उन्होंने कहा कि इंसान की बनाई सीमाओं ने हमें बांटने का काम किया है। हमारे हाथ पैर बांध दिए। हमें मजबूर कर दिया मगर ऐसी बहुत सारी चीजें है, जिन्हें सीमाएं नहीं बांध  सकती।अलग-अलग सीमाओं में बंधे होने के बावजूद हमारी मैत्री और गठजोड़ कायम है।

इस समय हो रहे दो युद्धों के संदर्भ में उन्होंने कहा, “युद्ध से हर संवेदनशील व्यक्ति आहत है। आम आदमी शांति से रहना चाहता है। युद्ध केवल विनाश और दुख के निशान छोड़ते हैं।”

अजीत कौर  के शब्दों में “सार्क देशों की सीमाओं के मध्य हम सिर्फ नदियां, समुद्र और मानसून ही नहीं बांटते बल्कि अपनी सभ्यताओं की यात्राएं भी एक दूसरे के साथ साझा करते हैं।” इसके साथ ही उन्होंने अफगानिस्तान और पाकिस्तान के मित्रों को याद करते हुए उनसे जल्द मिलने की कामना भी की। अपने पाकिस्तानी मित्र को याद करते हुए उन्होंने कई किस्से भी सुनाए। इस कार्यक्रम के आयोजन को मूर्त बनाने के लिए उन्होंने  मशहूर चित्रकार व अपनी बेटी अर्पणा कौर और लेखक, पत्रकार, चित्रकार देव प्रकाश चौधरी का आभार जताया।

बांग्लादेश के प्रोफेसर फखरुल आलम, श्रीलंका की कंचन प्रियकंथा, भूटान के डॉ रिनज़ीन रिनज़ीन, नेपाल के अभी सुबेदी, भारत से के जे अल्फोंस, डॉ सुजाता प्रसाद, के वी डोमिनिक, एन एन वोहरा आदि लोगों ने भी युद्ध पर चर्चा में हिस्सा लिया।

महोत्सव में युद्ध की विनाशकारी प्रवृत्तियों पर चर्चा हुई तो भक्ति, सूफी और बौद्ध धर्म पर भी वक्ताओं ने अपने विचार व्यक्त किये। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के जाने-माने प्रोफेसर हरबंस मुखिया ने इस प्रसंग में कबीर के असाधारण मान्यताओं की गहराई में उतरकर पड़ताल की। ईश्वर अल्लाह की लड़ाई में एक वैश्विक ईश्वर की अवधारणा के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा, “भक्तिकाल के कवि कबीर ने एक वैश्विक ईश्वर से हमारा परिचय करवाया। वह ईश्वर न हिन्दू था न मुसलमान। उन्होंने प्रथाओं और लोगों के संकुचित विचारों में जकड़े ईश्वर को मुक्त किया।”

चार दिवसीय महोत्सव में कविता पाठ के कई सत्र आयोजित हुए, जिसमें भारत समेत सार्क देशों के प्रतिनिधि  कवियों ने अपनी कविताओं का पाठ किया। भारत में नेपाल के राजदूत शंकर प्रसाद शर्मा ने साहित्य के लिए कई दशकों से कार्य कर रही संस्था एकेडमी ऑफ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर की प्रशंसा की।

कविता पाठ वाले इन सत्रों में  हिस्सा लेने वाले प्रमुख कवियों में बांग्लादेश के डॉ विमल गुहा, डॉ अशरफ जवेल, डॉ कमरुल हसन, डॉ शिहाब शहरयार, यूसुफ मोहम्मद, नेपाल के डॉ भीष्म उप्रेती, बिधान आचार्य, मेघ राज शर्मा, सुष्मिता आदि कवियों ने हिस्सा लिया।

इसके अलावा भूटान के डॉ चाडोर वांगमो, शेरिंग पेल्डेन और भारत की अनामिका, लिली स्वर्ण, ओम निश्चल, सविता पाठक, कविता सिंघल, कमलेश भट्ट कमल, अशोक आत्रेय, बिनोद खेतान, संजय जैन, डॉ देव शंकर नवीन आदि कवियों ने अपनी कविताओं से महोत्सव को रंग दिया।

हमारी सभ्यताओं को जोड़ने के लिए अनुवाद एक अहम जरिया है। महोत्सव में अनुवाद के महत्व पर भी चर्चा हुई। अनुवाद की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए डॉ बिमल गुहा ने कहा, “अनुवाद सिर्फ साहित्य के लिए जरूरी नहीं है बल्कि अन्य क्षेत्रों की जानकारियां प्राप्त करने के लिए भी जरूरी है। जब हम कविताओं का अनुवाद कर रहे हों तो हमें कविताओं के भावों की समझ भी होनी चाहिए। जैसे कला को समझने के लिए पारखी नजर चाहिए वैसे ही कविता का अनुवाद करने के लिए भावनाओं की समझ होनी चाहिए।”

इस चर्चा में  प्रो प्रवीण कुमार ने कहा, “अंग्रेजों ने सिर्फ एक भाषा अंग्रेजी को लादकर अलग-अलग स्थलों के साझे सच को नष्ट करने का काम किया। हर जगह की संस्कृति के कुछ मूल तत्व होते हैं, जिसे समझने के लिए अनुवाद जरूरी है।” कवि, लेखक फकरुल आलम ने अपनी अनूदित कविताओं का पाठ कर अनुवाद के महत्व पर प्रकाश डाला।

कुल मिलाकर महोत्सव युद्ध से लेकर सृजन के विभिन्न आयामों पर चर्चा कर सकारात्मक संदेशों के साथ समाप्त हुआ। युद्धों से उपजे अंधेरे को सृजन के दीपों से मिटाने की कोशिश के साथ महोत्सव 6 दिसम्बर को समाप्त हो गया। महोत्सव ‘एकेडमी ऑफ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर’ के परिसर में आयोजित किया गया था।

सरस्वती रमेश

 

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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