हिन्दी की शिखर-गद्यकार, अन्याय के विरुद्ध सदा जुझारू और सशक्त आवाज़ कृष्णा सोबती आज सुबह नहीं रहीं| 94 वर्षीय कृष्णा जी पिछले कुछ समय से अस्वस्थ थीं। पर विचार के स्तर पर पहले की तरह ही बुलंद! एक बड़ी लेखिका और महान् इंसान थीं! नई पीढ़ी कृष्णा जी के रचना-संसार और व्यक्तित्व से बहुत कुछ सीख सकती है! खासतौर पर अन्याय के खिलाफ दृढ़ता के साथ खड़ा होने का साहस! असहिष्णुता के खिलाफ उनके संघर्ष को हम कैसे भूल सकते हैं। उन्होंने जो दिया और किया, वह हमारी धरोहर है जो हमें झूठ के बरक्स सत्य के संधर्ष में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रहेगी। अपनी मुखर राय के लिए जानी जाने वाली कृष्णा सोबती का जन्म 18 फ़रवरी 1925 को अब के पाकिस्तान में हुआ था। “मित्रो मरजानी” “जिन्दगीनामा” “समय सरगम” जैसी किताबों के लिए विख्यात कृष्णा सोबती को ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजा गया था। देश में असहिष्णुता के माहौल के विरोध में उन्होंने 2015 में ये अवार्ड लौटा दिया था। हिंदी महिला कथा-लेखन को बुलंदियों पर पहुँचाने वाली लेखिका को बार-बार सलाम! सादर श्रद्धांजलि !

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जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
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