योगेन्द्र यादव की राजनीति और किसान आन्दोलन के हित!
संयुक्त किसान आन्दोलन के नेतृत्व में योगेन्द्र यादव एक ऐसा प्रमुख नाम है जिनके साथ कोई महत्वपूर्ण किसान संगठन नहीं होने पर भी वे आन्दोलन में अपनी मेहनत और एक सधे हुए बौद्धिक के नाते आन्दोलन के प्रवक्ता बने हुए हैं। इस अर्थ में अब वे सिर्फ संवाददाता सम्मेलनों में चमकने वाले नेता नहीं रहे हैं। इधर, ख़ास तौर पर राजस्थान में किसानों की कुछ महा पंचायतों में तो उन्हें मुख्य वक्ता के रूप में भी देखा गया है।
ऐसे में योगेन्द्र यादव से यह उम्मीद करना स्वाभाविक है कि वे आन्दोलन के एक प्रमुख प्रवक्ता के नाते इस आन्दोलन की मूल भावना और इसकी प्रतिबद्धताओं का पूरी निष्ठा के साथ पालन करेंगे; कोई भी ऐसा रुझान ज़ाहिर नहीं करेंगे जो आन्दोलन की मूल भावना के विरुद्ध उसे उसके घोषित लक्ष्य से भटकाने वाला हो।
इस किसान आन्दोलन ने हमेशा अपने को एक अराजनीतिक आन्दोलन कहा है, जिसके सामने मुख्य रूप से सिर्फ़ दो प्रमुख लक्ष्य है। पहला तीनों कृषि क़ानूनों की वापसी और दूसरा एमएसपी की वैधानिक गारंटी। बाकी सब मुद्दे महत्वपूर्ण होने पर भी अनुषंगी और स्थानीय मुद्दे ही है। आन्दोलन के लिए बाक़ी माँगे महत्वहीन न होने पर भी गौण माँगें हैं।
चूँकि आन्दोलन के दोनों प्रमुख मुद्दे केंद्र सरकार से जुड़े हुए हैं, इसीलिये किसान आन्दोलन की सीधी टक्कर केंद्र सरकार से है। इस टक्कर के अगर कोई राजनीतिक पहलू हैं तो उनसे किसान आन्दोलन को कोई परहेज़ नहीं है, क्योंकि केंद्र सरकार से अपनी मुख्य माँगों को मनवाने के लिए ही उस पर राजनीतिक दबाव पैदा करना आन्दोलन का ज़रूरी हिस्सा हो जाता है।
कहा जा सकता है कि इस अर्थ में घोषित तौर पर किसानों का यह ‘अराजनीतिक’ आन्दोलन बहुत गहराई से मोदी सरकार-विरोधी एक गंभीर राजनीतिक आन्दोलन भी है। किसानों के संयुक्त मंच का अपना कोई राजनीतिक लक्ष्य नहीं होने पर भी आन्दोलन के अपने लक्ष्य के ही ये कुछ स्वाभाविक राजनीतिक आयाम है। अर्थात् राजनीति इसके लिए कोई ऐसी चीज नहीं है जो इसके अंदर की एक ज़रूरी मगर निष्कासित शक्ति हो; राजनीतिक तौर पर यह कोई जड़ आन्दोलन नहीं है। पर यह साफ़ है कि इसकी राजनीति केंद्र-सरकार विरोधी वह राजनीति है जो खुद सत्ता की प्रतिद्वंद्विता में शामिल नहीं है। इस मायने में इसके लिए राजनीति किसान आन्दोलन के हितों को साधने की एक ज़रूरी राजनीति है, जो किसान आन्दोलन को, और उसकी एकता को भी उसके शत्रु के ख़िलाफ़ बल पहुँचाती है। यह कत्तई केंद्र सरकार को बल पहुँचाने वाली राजनीति नहीं बल्कि उसे कमजोर करने वाली राजनीति है।
एनडीए से अकाली दल को हटने के लिए मजबूर करना और दुष्यंत चौटाला पर हरियाणा की सरकार से निकलने का दबाव बनाना या बीजेपी के विधायकों, मंत्रियों पर गाँव-बिरादरी में प्रवेश पर प्रतिबन्ध की तरह की सारी घटनाएँ उसकी इसी राजनीति की द्योतक है। देश के हर कोने में बीजेपी को कमजोर करना किसान आन्दोलन के लक्ष्य का एक अनिवार्य राजनीतिक पहलू है।
ऐसे में इस आन्दोलन के किसी भी नेतृत्वकारी व्यक्ति से यही उम्मीद की जाती है कि वह कभी भी कोई ऐसी राजनीतिक स्थिति को नहीं अपनाएगा जो केंद्र सरकार-विरोधी प्रतिपक्ष की सामान्य राजनीति को कमजोर करती है, क्योंकि ऐसा करना प्रकारांतर से किसान आन्दोलन की अपनी अन्तर्निहित राजनीति के विरुद्ध आन्दोलन की एकता को भी कमजोर करना साबित होगा। जिस आन्दोलन में किसान अपने सभी राजनीतिक मतों को भूल कर अपनी किसान पहचान के साथ शामिल हुए हैं, उसमें विपक्ष के केंद्रों के साथ राजनीतिक मतभेदों की बातों को लाना आन्दोलन की एकता के लिए घातक ही होगा। किसान आन्दोलन की अपनी राजनीति के परिसर में केंद्र सरकार की राजनीति के विरोध से बाहर और किसी राजनीतिक-मतवादी विरोध की कोई जगह नहीं हो सकती है।
लेकिन हम कई मर्तबा यह गौर करते हैं कि योगेन्द्र यादव इस विषय में आन्दोलन के एक परिपक्व नेतृत्व का परिचय देने के बजाय अक्सर अजीब प्रकार के राजनीतिक बचकानेपन का परिचय देने लगते हैं। गाहे-बगाहे कांग्रेस दल और उसकी सरकारों पर हमले करना उनके के एक अजीब से शग़ल का रूप ले चुका है। राजस्थान की महा पंचायतों में वे अशोक गहलोत की सरकार को बींधते हुए उस पर जिस प्रकार हमले कर रहे थे, उससे लगता है कि वे किसान आन्दोलन के उद्देश्य के बाहर अपने ही किसी अलग राजनीतिक एजेंडा पर काम कर रहे हैं। इससे लगता है कि वे यह भूल जा रहे हैं कि उनके आन्दोलन का एकमात्र विरोध केंद्र सरकार से है, क्योंकि उनके आन्दोलन की केंद्रीय माँगें सिर्फ़ और सिर्फ़ केंद्र सरकार से हैं।
हमारी राय में, किसान आन्दोलन के अपने लक्ष्य के बाहर योगेन्द्र यादव के अपने कुछ निजी राजनीतिक लक्ष्य हो तो उन्हें उन लक्ष्यों को साधने के लिए किसान आन्दोलन के मंचों का कत्तई प्रयोग नहीं करना चाहिए। इसके लिए अगर वे अपना कोई अलग राजनीतिक मंच चुन ले तो शायद किसान आन्दोलन के लिए बेहतर होगा। अपने राजनीतिक मंच से वे केंद्र सरकार के बजाय और भी कई दिशाओं में निशाना साध सकते हैं। पर किसान आन्दोलन के लक्ष्य उनकी तरह बहुदिक या चतुर्दिक नहीं हैं। किसान आन्दोलन का निशाना अर्जुन की मछली की आँख के लक्ष्य की तरह एक ही है – मौजूदा केंद्रीय सरकार। उसे परास्त करने में जो भी सहायक होगा, उन सबका किसान आन्दोलन की भावना के अनुसार वह उसका तहे-दिल से स्वागत करेगा, भले ही उसे अपना मंच प्रदान नहीं करेगा। और इस अर्थ में किसान आन्दोलन का मंच योगेन्द्र यादव की राजनीति का भी मंच नहीं हो सकता है।
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कांग्रेस तो अभी देश की सबसे प्रमुख विपक्षी पार्टी है। उसे लक्ष्य बना कर केंद्र-विरोधी राजनीति को कमजोर करके योगेन्द्र यादव सिर्फ़ किसान आन्दोलन के नुक़सान के अलावा और कुछ भी हासिल नहीं कर सकते हैं।
इसीलिए हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि लगता है जैसे इतने महीनों के एक संयुक्त साझा आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी के बावजूद योगेन्द्र यादव अब तक भी इस आन्दोलन की मूलत: और अनिवार्यता: मोदी सरकार विरोधी राजनीति को पूरी तरह से आभ्यांतरित नहीं कर पाए हैं। किसान आन्दोलन के संदर्भ में अंध-कांग्रेस विरोध की अपनी हमेशा की राजनीति की निस्सारता को समझते हुए वे उसे आन्दोलन के हित में ही परे नहीं रख पा रहे हैं।
हम कल्पना कर सकते हैं कि योगेन्द्र यादव सरीखी यह ‘शुद्ध’ राजनीति, जिसे किसान आन्दोलन के लिए वर्जित माना गया है, राजस्थान में किसान महापंचायतों के वैसे व्यापक आयोजनों में, जैसे आयोजन पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में देखने को मिल रहे हैं, कितनी बाधाएँ पैदा कर रही होगी ! इस पूरे आन्दोलन के बीच से राजस्थान का वामपन्थी आन्दोलन फासीवाद-विरोधी एकजुट संघर्ष में पूरी शक्ति से उतरने में अपनी आत्म बाधाओं से निकलने का जो रास्ता पा सकता है, योगेन्द्र यादव की तरह के मित्र उसे ऐसे उत्तरण के बजाय उन्हीं बाधाओं में रमे रहने की रसद जुटाते हैं। अपने पूर्वाग्रहों के प्रति हठपूर्ण रवैये से वे एकजुट किसान आन्दोलन के ज़रिए जनतांत्रिक संघर्ष की शक्ति के विस्तार के मार्ग में बाधक की भूमिका ही अदा करेंगे।