मानवीयता और संवैधानिक कर्तव्यों की तिलांजलि आख़िर क्यों?
विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
- महेश तिवारी
5 जून 1974 को पहला विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया था। तदुपरांत से हर वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। इस वर्ष भी हम विश्व पर्यावरण दिवस मनाने जा रहें। इस मर्तबा विश्व पर्यावरण दिवस मानव समाज उन परिस्थितियों में मनाएगा, जब वह वैश्विक महामारी कोरोना से भयभीत है। इतना ही नहीं भारत को देखें तो जो सनातन परम्पराओं का देश है। वह सिर्फ़ कोरोना से हैरान-परेशान नहीं, अपितु वह प्राकृतिक आपदाओं यानी पहले अम्फन और अब निसर्ग तूफ़ान की मार झेल रहा।
ऐसे में सवाल यही कि हम हर वर्ष पर्यावरण संरक्षण दिवस भी मानते? फ़िर क्यों पिछले कुछ वर्षों से प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखा रही? यहाँ एक बात स्पष्ट होती भले मानव समाज फ़लां-फ़लां दिवस मनाने का ढोंग करता हो, लेकिन उसकी बढ़ती भौतिकवादी भूख और प्रकृति को अपने वश में करने की भूल ने पारिस्थिकीय असन्तुलन उत्पन्न कर दिया है। जिसका भुगत- भोगी भी मानव सभ्यता ही बनेगी और वर्तमान में बन भी रही।
चलिए बीते दिनों घटी एक ह्रदयविदारक घटना से बात समझते हैं। केरल में एक अमानवीय घटना सामने आई है। हाँ यह वही केरल है, जहाँ शिक्षा व्यवस्था देश में सबसे बेहतर और फ़ीसदी में भी सबसे ज़्यादा है। यहाँ कुछ शरारती तत्वों ने एक गर्भवती हथिनी को पटाखों से भरा अनानास खिला दिया। पटाखे हथिनी के मुँह में फट गये और जिससे हथिनी सहित उसके गर्भ में पल रहें बच्चे की मौत हो गयी। यह मामला केरल के मलप्पुरम जिले का है। ऐसे में हमारे समाज में प्रचलित एक कहावत याद आ रही। जब आदमी कोई शर्मनाक कार्य करता तो कहा जाता कि जानवर हो क्या? लेकिन उन्नत, शिक्षित राज्य के लोग ऐसी मानवताहीन कार्यो को अंजाम देने लगें तो शायद अब यह कहावत भी बदलनी पड़ेगी।
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वैसे अब तो पढा-लिखा और अनपढ़ होना सब बराबर नजर आता जब समाज मे ऐसी घटनाएँ होती जो मानवता और जीवों के प्रति दया भाव को चकनाचूर करती नज़र आती। आज भले मानव सुपरपॉवर में तब्दील हो गया हो, लेकिन वह अपनी सोच और कार्यो के माध्यम से इस धरा का सबसे निकृष्टतम और खतरनाक प्राणी बनता जा रहा। देखिए न इंसान अपना धर्म और कर्म भूल रहा, लेकिन वह हथिनी जिस दौर में दर्द से कराह रही था। उस वक्त जंगल की तरफ़ भागते हुए भी किसी को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया और नदी में तीन दिन खड़ें रहकर वहीं जलसमाधि ले ली। जब जानवर पशु-पक्षी बेवज़ह किसी को हानि नहीं पहुँचाते फ़िर मानव क्यों दानव बनने पर तुला हुआ है। यह बात समझ से परे है।
इंसानियत शर्मसार
केरल के मल्लपुरम ज़िले की घटना ने इंसानियत को शर्मसार कर दिया है। उस सनातन परम्परा को आघात पहुँचाया है। जहाँ जीव-हत्या पाप कहलाती है। आज इंसानियत रो रही है। मानवता कराह रही और इस मानव समाज के निकृष्टतम कार्य को देखकर तो वह शक्ति भी अपने आप को ग्लानि भरे भावों से देख रही होगी कि उसने मानव जैसा कैसा प्राणी बना दिया कि वह बुद्धिमान होते हुए भी जानवरों से भी गया-गुजरा बनता जा रहा। केरल के मल्लपुरम में हुई इस घटना ने कई प्रश्नचिह्न खड़ें कर दिए हैं मानवीय समाज पर?
लेकिन रुकिए केरल का मल्लपुरम ही क्यों मानव तो अपनी भूख की शांति और चित्त की प्रसन्नता के लिए आएँ दिन प्रकृति और पर्यावरण के साथ खेल रहा। शायद वह अपने को अजेय समझ लिया है, नीले आसमां के तले। वह पता नहीं किस मद में मदांध हो गया है, कि उसे मानवीय नीति, संस्कार, संवेदना और कर्तव्य किसी का ध्यान नहीं रहा है। वह सिर्फ़ स्व की पूर्ति के लिए आन्दोलित होता। अपने हित के लिए उसे संवैधानिक अधिकार याद आएँगे, लेकिन जब बारी प्रकृति, समाज के प्रति कर्तव्यों के निर्वाहन की आएगी तो वह सारी बातों को भूल कर्तव्यविमूढता की तरफ बढ़ जाएगा।
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मानते हैं हथिनी की हत्या मानवीय मूल्यों की हत्या है। संवेदनाओं और भारतीय सनातन संस्कारों की हत्या है। लेकिन इन संस्कारों और मूल्यों का गला तो आएँ दिन रेता जा रहा। कहीं मौज के लिए तो कहीं स्वाद के लिए और कहीं अर्थ के लिए। फ़र्क बस इतना ही है कि केरल की घटना के बाद सोशल मीडिया पर मानवीय संवेदनाओं की बाढ़ आ गयी है। वह भी शायद इस कारण क्योंकि वहाँ सिर्फ़ हथिनी नहीं, अपितु उसके पेट में बच्चा भी मरा है। विदित हो कि हमारे देश में ही आएँ दिन लाखों करोड़ों की संख्या में पशु-पक्षियों को मारा जाता और इन्हें मारने के पीछे का कारण क्या होता? पेट की भूख की शांति। इससे ज़्यादा होगा तो अर्थोपार्जन।
देखिए न तभी तो 2017 में एक ख़बर प्रकाशित होती जिसमें भारत देश में लगभग 25 हज़ार गैर क़ानूनी बूचड़खाने चलने की बात कही जाती। इसके अलावा भारतीयों ने अपने संस्कार और संस्कृति तो कब का बेच दिया। जिस देश से 40 से अधिक देशों में बीफ़ का कारोबार होता हो। वह काहें का संस्कार वाला देश और विश्वगुरु? अरे भाई क्या देश में गेहूं-चावल और खाद्यन्न कम पड़ गये क्या, जो निरीह जानवरों के प्राण लेना पड़ रहा? वैसे जिस समाज ने अपने ही बच्चियों को कोख़ में मारना शुरू कर दिया हो। उससे बहुत ज़्यादा की उम्मीद करना भी बेईमानी लगता है। दुख तो अब ओर हो रहा जब कोरोना ने हम इंसानों का चिठ्ठा खोलकर रख दिया है कि प्रकृति और खाद्य-श्रृंखला से बहुत खेल लिए। अभी भी वक्त है संभल जाओ, लेकिन मानव है कि वह अपने स्वार्थीपन से बाहर ही नहीं निकल पा रहा।
जीव-जन्तुओं की हत्या कैसे मानव समाज के विनाश का कारण बनती है। उसके बारे में दिल्ली यूनिवर्सिटी के तीन वैज्ञानिकों ने अपनी ख़ोज में बताया है। इन वैज्ञानिकों ने एक थ्योरी दी है जिसका नाम है “आइंस्टीन पैन वेव थ्योरी।” जिसे “बिस थ्योरी” भी कहा जाता। तीन वैज्ञानिकों डॉक्टर मदन मोहन बजाज, डॉक्टर इब्राहिम और डॉक्टर विजय सिंह ने 1995 में रूस में एक शोध पत्र प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने ने सिद्ध किया कि भूकंप और अन्य प्राकृतिक आपदाएँ आने का कारण है “आइंस्टीन पैन वेव्स।” इस शोध पत्र के मुताबिक एक बूचड़खाने से निकलने वाली पैन वेव की क्षमता 1040 किलो वाट तक होती है। यह शोधपत्र इटिमोलॉजी ऑफ अर्थक्वेक्स, ए न्यू अप्रोच! का हिस्सा है। जिसको इंदौर के एचबी प्रकाशन ने छापा है।
वैसे हो सकता इन तीनों भारतीय वैज्ञानिकों की बातों से कोई इत्तेफाक न रखें क्योंकि भारतीय ख़ोज को मान्यता देता कौन है? ख़ुद भारतीयों को भी अपने यहाँ के मनीषियों के बौद्धिक बल पर संशय जो रहता! हमारी सनातन परम्परा जिस शक्ति को भगवान के रूप में मानती। उसके अस्तित्व पर हमेशा प्रश्न उठाया जाता रहा, लेकिन जैसे ही स्विट्जरलैंड में वैज्ञानिकों द्वारा हिग्स बोसॉन की खोज की जाती उसे ईश्वरीय कण मान लिया जाता। वैसे यहाँ बहस इस बात की नहीं कि भगवान है या नहीं। बात तो यह है कि आख़िर क्यों मानव प्रजाति अपने अतीत से सीख नहीं लेती? आज कितने सारे जीव-जन्तु विलुप्ति की कगार पर हैं। जो पर्यावरण और पारिस्थिकीय तन्त्र के लिए आवश्यक हैं। फ़िर क्यों हम अपनी मौत का जाल खुद-ब-खुद बिछा रहें।
देखिए न आज प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुँच रहा। स्वच्छ और प्रदूषणमुक्त वातावरण हम सभी का क़ानूनी अधिकार है और कर्तव्य भी। फ़िर भी हम उससे वंचित हैं। कारण एक ही है मानव की गतिविधियाँ ही ऐसी हो चुकी है कि वह ख़ुद के साथ ही न्याय नहीं कर पा रहा। आधुनिकता की चाह और भौतिकवादी सोच इतनी हावी होती जा रही, कि मानव अपने विनाश का चक्रव्यूह ख़ुद रच रहा, लेकिन वह सिर्फ़ आधुनिकता का बेहतरीन पक्ष ही देख पा रहा। ऐसे में अगर मानव समाज को अपने आनी वाली पीढ़ी को बेहतर और सुंदर वातावरण देना है और मानव चाहता कि उसकी सभ्यता दीर्घकालिक काल तक चलती रहें तो उसे पुनः मानवीय गुणों को आत्मार्पित करना होगा। अपने देश की ही बात करिए तो हम अपने अधिकारों के लिए तो संविधान की दुहाई देने लगते, लेकिन जब बात कर्तव्यों के निर्वहन की आती, फ़िर मूकदर्शक बन जाते।
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इस धरा पर संतुलन तभी बना रह सकता जब पशु-पक्षी सभी रहेंगे। ऐसे में जब मूक जानवर अपनी व्यथा को व्यक्त नही कर पाते। फ़िर उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी तो मानव को समझना चाहिए, लेकिन मानव तो दानव बनने पर तुला है। संविधान का अनुच्छेद 48(ए) कहता कि राज्य पर्यावरण संरक्षण व उसको बढ़ावा देने का काम करेगा और देशभर में जंगलों व वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए काम करेगा। इसके अलावा अनुच्छेद 51(ए) भी कहता कि जंगल, तालाब, नदियों, वन्यजीवों सहित सभी तरीक़े की प्राकृतिक पर्यावरण संबंधित चीजों की रक्षा करना व उनको बढ़ावा देना हर भारतीय का कर्तव्य होगा।
फ़िर अधिकार के लिए आन्दोलित होने वाला मानव समाज क्यों कर्तव्यों के निर्वहन से दूर भागता? अगर कर्तव्यों का निर्वहन सही ढंग से होगा, तभी अधिकार सुरक्षित हो पाएगा। तो क्यों आज मानवीय समाज इस बात को भूल रहा। ऐसे में एक बात तय है मानव को अपनी प्रवृत्तियों को पर्यावरण के अनुकूल करना होगा। तभी पारिस्थिकीय साम्य बना रह सकता वरना इसकी भारी कीमत मानव सभ्यता ही चुकाएगी। जिसकी शुरुआत कहीं न कहीं हो चुकी है। बेचारे निर्जीव जीव-जन्तु तो अपन दर्द भी नही व्यक्त कर सकते। मानव अभी नही सुधरा तो उसका दर्द भी सुनने वाला कोई नहीं बचेगा यह निश्चित मानिए।
लेखक टिप्पणीकार है तथा सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर लेखन करते हैं|
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