अंतरराष्ट्रीयपर्यावरण

पर्यावरणीय समृद्धि के संकल्प सूत्र

 

विश्व पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामना!

हार्दिक शुभकामना है कि आप स्वस्थ जीयें; मरें, तो संतानों को सांसों और प्राणजयी संसाधनों का स्वस्थ-समृद्ध संसार देकर जायें। 

संकल्प करें; नीचे लिखे 21 नुस्खे अपनायें; आबोहवा बेहतर बनायें; शुभकामना को 100 फीसदी सच कर जायें।

  1. स्वच्छता बढ़ायें।

कचरा चाहे, डीजल में हो अथवा हमारे दिमाग में; ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ाने में उसकी भूमिका सर्वविदित है, किन्तु स्वच्छता का मतलब, शौचालय नहीं होता। शौचालय यानी शौच का घर यानी शौच को एक जगह एक जगह जमा करते जाना। गन्दगी को जमा करने से कहीं स्वच्छता आती है?

दरअसल, स्वच्छता का मतलब होता है कचरे/कबाड़ का उसके स्त्रोत से न्यूनतम दूरी पर न्यूनतम समय में सर्वश्रेष्ठ निष्पादन करना; कचरे/कबाड़ का अधिकतम संभव पुर्नोपयोग करना तथा ऐसी आदत बनाना, ताकि कचरा/कबाड़ उत्पन्न होने की मात्रा शून्य पर आकर टिक जाये। अतः गन्दगी न फैलायें; गन्दगी को ढोकर न ले जायें। वह जहाँ है, उसे वहीं निपटायें। पुनचक्रित कर पुर्नोपयोग में लायें।

  1. कचरे को उसके स्त्रोत पर निपटायें।

हवा के कारोबारी, एक ओर कार्बन क्रेडिट की बात कर रहे हैं और दूसरी ओर कनाडा में हवा अब बोतलों में बन्द करके बेची-खरीदी जा रही है। कुदरत ने हमें जो कुछ मुफ्त में दिया है, आगे चलकर वह सभी कुछ बाजार में बेचा-खरीदा जायेगा; हमारे प्राण भी। क्या हम यह होने दें? सोचें कि क्या समाधान है?

दुनिया के देशों में कार्बन की सामाजिक कीमत, 43 डॉलर प्रति टन का अनुमान लगाया जाता है। मुनाफा कमाने वाले औद्योगिक और वाणिज्यिक उपक्रमों से कार्बन टैक्स के रूप में इसकी वसूली की बात कही जाती है। पर्यावरण कर के रूप में भारत में भी इसकी वसूली शुरु हो चली है। यह ‘प्रदूषण करो, जुर्माना भरो’ के सिद्धांत पर आधारित विचार है। क्या यह समाधान है ? क्या इस समाधान के कारण लोग टैक्स भरकर, कचरा फैलाने केे लिए स्वतंत्र नहीं हो जाते ?

अभी भारत, कचरे को उसके स्त्रोत से दूर ले जाकर निष्पादित करने वाली प्रणालियों को बढ़ावा देने में लगा है। लोग भी सीवेज पाइपों ही विकास मान रहे हैं। इस सोच को बदलकर, आइये हम स्त्रोत पर निष्पादन क्षमता का विकास करे।

  1. संयंत्रों से जो कार्बन डाईऑक्साइड निकले, वे उसे वापस धरती की भूगर्भीय परतों में  दबायें।

कोयले से बिजली बनाने वाले संयंत्र, कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन बङे दोषियों में से एक हैं। उनके लिए यह नुस्खा, कारगर हो सकता है। ऐसी तकनीक से बिजली उत्पादन की लागत तो बढ़ जायेगी, किन्तु कार्बन उत्सर्जन में जो कमी आयेगी, वह लागत की भरपायी से कम नहीं होगी। यह नुस्खा अपनाने से ताप विद्युत परियोजनाओं की जान बच जायेगी; वरना उनकी विदाई की मांग पर ध्यान देने के दिन आ गये हैं।

  1. ऐसी व्यवस्था बनायें, जो कम्पनियों की ऊर्जा बचत हेतु सक्षम बनाये तथा उनकी ऊर्जा बचत को प्रमाणित व प्रोत्साहित करे।

न्यूनतम बिजली खपत वाले उपकरणों के प्रति जानकारी, सुलभता, उपयोग की अनिवार्यता तथा तद्नुसार बिजली दरों में विविधता सुनिश्चित कर यह किया जा सकता है। हाँ, याद रखें कि कम्पयुटर को हाइबरनेट या स्क्रीनसेवर मोड में रखने से ऊर्जा की बचत नहीं होती, बल्कि कार्बन उत्सर्जन और बढ़ जाता है। अगर अगले कुछ घंटे काम न करना हो, तो कम्पयुटर बन्द रखें। आखिरकार, इससे सभी का फायदा है; कम्पयुटर का भी।

  1. कम खपत वाले बल्बों से रोशनी बढ़ायें; ग्रीन लेबल उपकरण ही अपनायें; बिजली खपत घटायें।

कम खपत वाले बल्बों का चलन भारत में शुरु हो गया है। इनकी कीमतों को कुछ और घटाने तथा अपनाने को प्रेरित करने की जरूरत है। हर कनेक्शन पर मीटर की अनिवार्यता इसमे मददगार होगी। दूसरी ओर ऊर्जा क्षमता ब्यूरो की पहल पर अब बिजली की अधिक खपत वाले रेफ्रिजरेटर, ए सी, हीटर, कूलर, इस्त्री, ओवन जैसे कई उपकरणों पर ग्रीन लेबल दिखाई देने लगा है। यह लेबल, यह बताता है है कि उपकरण कितनी कम या ज्यादा बिजली खायेगा। खरीदारी करें, तो पहले ग्रीन लेबल देखें।

  1. जितनी बिजली / ईंधन खायें, उतना काम भी करके दिखायें यानी कम सक्षम उपकरण ही अपनायें, खटारा को विदाई कह आयें।

लगभग खटारा हो गये स्कूटर, कार, जीप, पंखे अथवा पुरानी हो गई डीजल मोटर क्यों रखें, यदि वह सामान्य से बहुत अधिक बिजली/ईंधन खाती है ? इस प्रकार वे कार्बन उत्सर्जन बढ़ाने में अपना योग ही बढ़ाते हैं। सरकारी रोक हो या न हो, स्वयं पहल कर उन्हे बेचें, बिजली / ईधन व अपना पैसा दोनो बचायें। अच्छा हो कि हाथ से चलने वाले उपकरण ले आयें।

  1. सूर्य, पवन औरऔर पशुधनको नमस्कार करें; सौर, पवन और बायोगैस ऊर्जा का आशीष घर ले आयें। 

सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और गोबर से घर-घर संभव बायोगैस व बिजली बेहतर विकल्प हैं। यह लकङी-उपले वाले चूल्हे से भी निजात देंगे और कोयले से भी। ताप विद्युत से सचमुच निजात पानी है, तो आइये, इन्हें सस्ता, सुलभ और सरल बनाने के काम मे लगें।

  1. कभी भूगर्भीय ऊर्जा और हाइड्रोजन ईंधन के बारे में भी विश्लेषण करें।  

वैज्ञानिक कहते हैं कि ज्वालामुखियों में बिजली उत्पादन की अकूत संभावना छिपी है। जापान में यह संभावना, हकीकत में बदलने लगी है। अंडमान-निकोबार जैसे भारतीय द्वीप समूहों  में अनेक ज्वालामुखी भूमि के गर्भ में सोये बैठे हैं। क्या हम उन्हे जगाकर, पुचकार कर बिजली बनायेंगे?

हाइड्रोजन का उत्पादन व संग्रहण एक समस्या जरूर है, किन्तु क्या हाइड्रोजन चालित दुपहिया/तिपहिया, बेहतर विकल्प हो सकते हैं? यह विचारणीय विषय है। दुनिया ने ऐसे वाहन बना लिए है। क्या भारत उनका उपयोग करें?

  1. कम ईंधन खपत और धुएं को साफ करके बाहर निकालने वाली प्रणाली अपनायें।

अब हाइब्रिड वाहनों का जमाना है, जो कम ईंधन खायें, काले-जहरीले धुएं के दर्शन न करायें और लाल बत्ती देखकर स्वतः बन्द हो जायें। हमें अपने वाहनों को ऐसी प्रणालियों के साथ ही बाजार में आने की इजाजत देने की दिशा में काम करना होगा।

  1. सार्वजनिक वाहन को आदर्श बनायें; ईंधन खर्च व खपत घटायें

सार्वजनिक वाहन को सर्वसुलभ और शान की सवारी बनाना बेहद जरूरी है। इसके अलावा विचार करने की जरूरत है कि सरकार व कम्पनियों द्वारा कर्मचारियों को दिए जाने वाले वाहन भत्ते को घटाकर तथा घर से न्यूनतम दूरी पर नियुक्ति और तबादला नीति अपनाकर ईंधन खर्च व खपत में कितनी बचत कर सकते हैं ? मौज चाहें, तो साईकिल से प्यार जतायें।

  1.  ईंट, सीमेंट, इस्पात के पक्के ढांचे घटायें; आपदा प्रबन्धन बेहतर बनायें; हरे ढांचे अपनायें।

ईंट, सीमेंट और इस्पात उत्पादन इकाइयों का औद्योगिक क्षेत्र में होने वाले कार्बन उत्सर्जन में काफी बङा योगदान है। ईंट, सीमेंट और इस्पात निर्माण में प्रयुक्त होने वाले ईंधन का अधिकतम उपयोग न कर पाने का दोष भी इन इकाइयों पर लगता है। वे इसमें सुधार करें और हम इन उत्पादों की खपत कम करने में। जाहिर है कि हरे ढांचे इसमे उपयोगी हो सकते हैं। आगे चलकर आपदाओं के आने की संख्या बढ़ने की पूरी संभावना है। आपदा आने पर ढांचागत बर्बादी होती है और उसके पुननिर्माण  में  यही सब सामग्री खर्च होती है। बेहतर आपदा प्रबन्धन से इस खर्च को रोका जा सकता है।

  1.  जलनिकासी पर लगाम लगायें; जल संचयन को शौक बनायें।

नमी, कार्बन अवशोषण बढाने और ताप घटाने के लिए वायु और मिट्टी में नमी तथा जलसंरचनाओं में जल की पर्याप्त मात्रा जरूरी है। लगातार बढ़ती जलनिकासी और घटते जल संचयन के कारण हम नमी और वाटर बैलेंस के मामले में कंगाल होने की राह पर हैं। आकाश से बरसे मीठे जल को सहेजने का कोई विकल्प नहीं है। इसके साथ ही हम हरियाली बढ़ाने के अपने लक्ष्य को पा सकेंगे। इसके लिए शासन-प्रशासन की प्रतीक्षा न करें। यह पृथ्वी पर जीवन बचाने का काम है। इसे स्वयं के लिए, स्वयं की संतानों को लिए, खेती, सेहत, अर्थव्यवस्था, रोजगार बचाने, पलायन रोकने तथा मेरी प्यारी मछली के लिए भी यह करें जरूर।

  1.  छोटे नदी-तालाबों का जलवा दिखायें; नदी जोङ व बङी जल परियोजनाओं से बाज आयें।

नदियों का एक काम, अपने मीठे जल ले जाकर समुद्र के खारे जल में मिला देना है; ताकि समुद्र का खारापन इतना न बढ़ने पाये कि समुद्री जीवन संकट में पङ जाये अथवा समुद्र के किनारे रहने वालों का पेयजल नमकीन विष से भर जाये व खेती पूरी तरह उजङ जाये। नदियों का जल, समुद्र में जाकर उसके जलीय तापमान को भी नियंत्रित करता है। अंग्रेजी में इसे आप ‘डाइल्युशन इज सोल्युशन टू पोल्युशन’ के नुस्खे का निर्वाह कह सकते हैं। इस भूमिका का जलवायु परिवर्तन से गहरा संबंध है। नदी जोङ परियोजना, नदी की उक्त दो भूमिकाओं की राह में बाधा उत्पन्न करती है। ऐसे में जलपुरुष राजेन्द्र सिंह का कहा कथन स्वयंमेव एक समाधान है – ”नदियों को जोङना है, तो धरती के ऊपर से नहीं, भूजल स्तर बढ़ाकर धरती के नीचे से जोङें। यह किसी पाइप, नहर, सुरंग अथवा नदी जोङ की वर्तमान परियोजना से नहीं होगा। इसके लिए लोगों को नदियों से जोङना होगा।”  सच है कि बङे-बङे  ढांचे जलसंकट का समाधान नहीं है। परावलम्बन, बजट और खर्च में भ्रष्टाचार भी इसके कारण हैं। छोटे-छोटे जलसंचयन ढांचों का पुनरोद्धार होगा, तो छोटी-छोटी नदियाँ, प्राकृतिक नाले खुद-ब-खुद पानीदार हो जायेंगे। छोटी-छोटी नदियाँ, पानीदार हो गये, तो सूख गई नदियों को पानीदार होते ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। हम नदीजोङ-नदीजोङ चिल्लाने की बजाय, जल-जन जोङ के मंत्र को जमीन पर ले आयें। जलसंचयन ढांचों को अपने पुरुषार्थ का प्रतीक बनायें।

  1.  दलदली क्षेत्रों से घबरायें नहीं, उन्हे बचायें।

भारत में करीब 27 हजार दलदली क्षेत्र हैं। ये सभी जैवविविधता का भंडार हैं। भूजल स्तर बढ़ाने में मददगार हैं। स्थानीय वनस्पतियोंऔर जीवन यापन के साधन बढ़ाने में मददगार हैं। कृपया इन्हें बेकार समझ कर बस्ती बसाने या उद्योग नगरी बनाने की गलती न करें। हम इनकी सूची बनायें और इन्हें बचायें। ये हमारा जीवन बचायेंगे।

  1.  गांव को गांव रहने दें; गांव को शहर न बनायें।

बङे होते सपने, बढ़ती जेब और बढ़ते बाजार का मतलब यह नहीं होता कि हम गांव और शहर में ढांचे से लेकर उपभोग का भेद ही मिटा दें। भेद मिटाना है, तो शहर को गांव जैसा बनायें, गांव को शहर जैसा नहीं। बढ़ता शहरीकरण भी उपभोग बढाने का ही रास्ता है। इस रास्ते पर चलकर कार्बन उत्सर्जन घटाया नहीं जा सकता। कृपया शहर की बीमारी गांव न ले जायें। गांव को गांव ही रहने दें; किन्तु एक आदर्श गांव।

  1.  सूखा रोधी बीज अपनायें, खेतों की मेङें ऊंची बनायें; मवेशी बढ़ायें; देसी खाद अपनायें।

कृषि में उत्पादन घटेगा। सूखे का चक्र बढेगा। सेहत का बाजा बजेगा। अतः जलवायु परिवर्तन के दुष्भाव से बचने के लिए ही नहीं, जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए भी हमें ये कदम उठाने होंगे; क्योंकि पानी की कमी और रासायनिक उर्वरकों की अधिकता भी कार्बन व वायुमंडल का ताप बढाती है।

  1. नीले-हरित क्षेत्र ही नहीं, भवन निर्माण व उपयोग की भी हरित आचार संहिता बनायें।

नदी, तालाब, झील, पहाङ, पठार, जंगल ही नहीं, हमें हर प्रकार की भूमि के उपयोग की आचार संहिता बनानी और अपनानी होगी। हम भवनों को जहाँ चाहे, जैसे चाहे कुकुरमुत्तों की तरह उगने की इजाजत नहीं दे सकते। इसके लिए निर्माण संबंधी आचार संहिता तो चाहिए भवनों में उर्जा सरंक्षण और हरीतिमा की भी आचार संहिता चाहिए। इससे हिमालय भी बचेगा और गंगा भी।

वर्ष 2007 में सरकार ने ऊर्जा संरक्षण आचार संहिता जारी की थी। भू-अधिग्रहण व उपयोग को लेकर कानून बना ही है। इनमें मौजूद अनुकूलता अपनायें, खराबी हो तो सुधार लायें। इससे नीलिमा व हरीतिमा बचेगी, ऊर्जा खपत घटेगी और कार्बन उत्सर्जन भी।

  1. फुटपाथ ही नहीं, घर में भी हरियाली बढ़ायें और टाई-कोट की जगह धोती-लुंगी अपनायें; ताकि ए सी को विदा कह पायें।

फुटपाथ की हरियाली का अच्छा घर तथा सेहत और सफर के अच्छे साथी होते हैं। इन्हें हम बचायें भी और बढायें भी। संरक्षण और मुनाफे में समाज की सहभागिता से यह हो सकता है, किन्तु घर की हरियाली के लिए तो हमें किसी अन्य की प्रतीक्षा नहीं करनी है। हरियाली बढे़गी, गर्मियों में खिङकियाँ व परदे खुलेंगे और हम पहनावे में हल्के व कम रंगीन कपङे चुनेंगे, तो एयरकंडीशनर लगाने की जरूरत ही नहीं रहेगी। खास मीटिंगों और मौकों पर लुंगी, धोती, हाफ कट कुरता, इसमें सहायक हो सकते हैं। स्कूल व मैनेजरी की पढ़ाई में टाई-कोट की यूनीफॉर्म, गर्म देशों के अनुकूल नहीं। उन्हे व्यापार का मारवाङी अंदाज सिखायें। इससे बिजली बचेगी, मौसम के अनुकूल रहने में मददगार शारीरिक क्षमता बढ़ेगी।

  1.  हवाई उङान को मंहगी बनाये; रेल सफर को सर्वश्रेष्ठ बनायें।

अमेरिका  में  12 फीसदी कार्बन उत्सर्जन सिर्फ हवाई उङानों की वजह से होता है। जैसे-जैसे नौजवानों का पैकेज तथा शासन, प्रशासन और विश्वविद्यालयों में  सेमिनार-मीटिंग-इटिंग का भत्ता बढ़ता जा रहा है, भारत में भी हवा में उङने वालों की संख्या व सफरनामा विशाल होता जा रहा है। अनुमान है कि 2050 तक विमानों  से होने वाला कार्बन उत्सर्जन तीन गुना हो जायेगा। आसमान को गंदला करने वाला काम अच्छा कैसे हो सकता है?

यूरोप के कई कम्पनियों ने अपनी हवाई यात्राओं में कटौती शुरु कर दी है। हम भी करें। हवाई यात्रायें अत्यन्त महंगी बनायें । गम्भीर बीमारों को छूट दिलाये। रेल की लेटलतीफी, साफ-सफाई, खान-पान, सुरक्षा और सीटों की उपलब्धता सर्वश्रेष्ठ बनायें। अत्यन्त जरूरी हो, की इजाजत का निमयम बनायें। रेलवे पैकेज टूर इतना आरामदेह और मनोरंजक बनायें कि सोनी-धोनी भी छुट्टियों में हवाई जहाज की बजाय, रेल यात्रा की जिद् पर आ जायें।

  1.  पॉलीथीन के बिना काम चलायें, कागज बचायें।

पॉली कचरा और ई कचरा, दीर्घकालिक जहर हैं। इन्हें जलाना भी जहरीला है और मिट्टी के नीचे दबाना भी। तीन हजार साल बाद मानव प्रजाति का क्या होगा ? जलवायु की उथल-पुथल को देखते हुए अभी कहना मुश्किल है। किन्तु क्या हम चाहेंगे कि तीन हजार साल बाद हमारे वंशज जब ज़मीन खोदें, उसमें से पॉलीथीन की झिल्ल्यिां, गिलास, दोना, पत्तल और बोतलें निकलें और उनसे वे हमारी कारीगरी, कुसमझ और असभ्यता का अंदाज लगायें ? सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई में मिट्टी के खूबसूरत बर्तन निकले। निश्चित ही वे एक खूबसूरत सभ्यता के जनक और पोषक लोग थे और हम ? पॉलीथीन के बगैर काम कैसे चलेगा और कागज कैसे बचेगा ? सोचें और अपनायें।

  1.   उपभोग घटायें; कबाड़ घटायें; सादगी को समाज का ताज बनायें

कबाड़ को जल्दी से जल्दी घर से बाहर निकालें; ताकि वह किसी फैक्टरी में जाकर पुनः हमारे काम की कोई चीज बन जाये। इससे रबर, इस्पात, एल्युमीनियम, कागज आदि के लिए हो रहे कटान-खदान को कम करने में मददगार होंगे। कबाड़मुक्त परिसर हमारे में सकारात्मक ऊर्जा का जो संचार करेगा, वह बोनस होगा।

अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि जब तक उपभोग नहीं घटेगा, उक्त सभी नुस्खे मिलक्र भी आबोहवा को बहुत कुछ बेहतर नहीं कर सकेंगे; उल्टे, उक्त उपायों में कई के कारण हमारे उपयोग की वस्तुओं की लागत अवश्य बढ़ जायेगी। अतः जरूरी है कि हम उपभोग कम करें। इसकी प्रेरणा और विस्तार तभी संभव है कि जब हमारा समाज पद, पैसा, दिखावट और मंहगी सजावट की बजाय, मानसिक-भौतिक सादगी और शुचिता को सम्मान देना शुरु कर दे। वायुमंडलीय ताप और कार्बन उत्सर्जन को मौसमी अनुकुलता की जद में ले जाने की प्रेरणा का प्रवेश बिन्दु भी यही है और शुभकामना फलीभूत करने का उत्तर बिन्दु भी यही। हम यह करें।

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अरुण तिवारी

लेखक पानी, पर्यावरण, ग्रामीण विकास व  लोकतान्त्रिक मसलों के अन्तर्सम्बन्धों के अध्येता हैं। सम्पर्क +919868793799, amethiarun@gmail.com
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