भारत में कोविड-19 के चलते होने वाले लॉकडाउन में कुछ ही क्षण में एक भयानक सन्नाटे में जाग गया। जहाँ अगली सुबह सड़क पर और स्थानीय चाय की दुकानों पर अब कोई नही था जहाँ कारखाने के कर्मचारी, सुरक्षा गार्ड और ऑटो-रिक्शा चालक मण्डली बन्द थे। तालाबन्दी शुरू होने से पहले श्रमिकों के कई वैन लोड को कारखाने के परिसर से बाहर ले जाया गया था। फल, चाय और नाश्ते बेचने वाले स्ट्रीट वेंडर सब छोड़ चुके थे। सभी पुलिस बैरिकेड्स थे, जिसमें अधिकारी किसी भी राहगीर को रोकते और पूछताछ करते थे। जहाँ भारत की वित्त मन्त्री, निर्मला सीतारमण ने अब, सभी स्वयं सहायता समूहों की सभी महिला सदस्यों को 500 रूपये प्रति माह नकद भुगतान और भारत के रोजगार गारंटी कार्यक्रम के हिस्से के रूप में वेतन में वृद्धि सहित कई उपायों की घोषणा की है।
केरल, दिल्ली, राजस्थान और पश्चिम बंगाल के साथ तमिलनाडु में राज्य सरकारों ने भी संकट के दौरान सामाजिक सुरक्षा उपायों का विस्तार किया है। तमिलनाडु में, कारखानो के श्रमिक – उनमें से कई अन्य राज्यों के प्रवासियों, विशेष रूप से उत्तरी भारत के – चावल, दाल, तेल और चीनी मुफ्त में प्राप्त करेंगे, साथ ही साथ 1,000 रूपये के नकद समर्थन के लिए अन्य ज़रूरी खर्चों को पूरा करने के लिए अगले दो महीने रिक्शा और टैक्सी चालकों और निर्माण श्रमिकों को भी इन उपायों तक पहुँच प्राप्त होगी। परन्तु इन सब परिस्थितियों में पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों को अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। जहाँ इस संक्रमण से अधिक बड़ी समस्या परिवार को चलाने और भूख से संघर्ष करने की है जिनको पूर्ण करना महिलाओं का कर्तव्य है।
समकालीन युग के वर्तमान समय के अनुसार विश्व में लगभग 60 प्रतिशत महिलाएँ अर्थव्यवस्था में अनौपचारिक रूप से कार्यरत हैं, क्योंकि उन्हें मिलने वाला वेतन कम होने के कारण कम कमाना, और कम बचाना हैं। परन्तु वर्तमान में जब भारत में इतनी अधिक मात्रा में मजदूरों के पलायन की रूपरेखा जो प्रस्तुत हो रही है उसमें इस समूह की अस्मिता पुरुष से तुलना करके देखी जा सकती है, और इसमें अधिक दृष्टिकोण में पुरुष ही है परेशानियों पर विचार अधिकतर पुरुष मजदूरों से पूछ कर किया जा रहा है, जहाँ स्त्रियों को उपाश्रित श्रेणी में शामिल करने का प्रयास किया गया है और उस समूह की महिलाओं को हमेशा की भाँति न तो केन्द्र में स्थान दिया गया न ही परिधी में कर दिया गया है। जहाँ इनका स्थान केवल गरीबी या भुखमरी से संघर्ष करना ही नहीं है अपितु परिवार एवं बच्चों की देखभाल के कर्त्तव्य से लेकर हर प्रकार के शोषण और स्वास्थ से भी संघर्ष करना है।
इस युग के संक्रमण में सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात है स्वयं को शुद्ध पानी से साफ रखना परन्तु एक गरीब महिला जो अपने सम्पूर्ण परिवार को खाना बना कर खिलाती है, जिनके पास पीने योग्य पेय जल तक नही पहुँच पाता उनके हाथ धोने के लिए साफ पानी का होना बहुत कठिन है, दूसरी ओर सरकार द्वारा दी जाने वाली परिवारों को आर्थिक मदद परिवार के पुरुषों के हाथों में दी जाती रही है, जिस पर महिलाओं को कोई जानकारी ज्ञात नही हो पाती और न ही वह उसकी अधिकारी होती। सम्भवतः यह कहा जा सकता है कि मजदूरों के इस पलायन को राजनीति का हिस्सा बनाया गया साथ ही सरकार द्वारा भी आर्थिक सहायता के रूप में धन पहुँचाया गया, परन्तु दोनों ही स्थिति में महिलाओं को मार्गदर्शन और उनकी उपस्थिति न के बराबर देखने को मिलती है।
वहीं दूसरी ओर मजदूरों में विशेष रूप से महिलाओं पर यदि ध्यान केन्द्रित किया जाए तो महिलाएँ पूरे दक्षिण एशिया में कृषि क्षेत्र का एक अभिन्न अंग बन जाती हैं, और अक्सर कृषि कार्यबल का बहुमत बना लेती हैं, तो उन्हें अक्सर कम या बिना मजदूरी के और खराब परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर भी किया जाता है। अपने परिवारों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उन्हे यह स्वीकारना होता है। यह उन्हें घरेलू और देखभाल के काम के लिए बहुत कम समय देता है, जिससे अपर्याप्त चाइल्ड केअर और खराब स्वास्थ्य होता है। इसे ध्यान में रखते हुए, भारत में महिलाओं पर तालाबन्दी और इसके संभावित प्रभावों के बारे में तीन मुख्य चिन्ताएँ सामने आती हैं- सबसे पहले, महिलाओं को भोजन खरीदने के लिए प्राथमिक ज़िम्मेदारी निभानी होगी, साथ ही अपने घरों के लिए इसे तैयार करना होगा। राशन की आपूर्ति करने वाली नामित दुकानों से आपूर्ति प्राप्त करना महिलाओं की जिम्मेदारी होगी।
वर्तमान युग मे यदि राजनीति और सामाजिक परिस्थिति परिदृश्य पर विचारों को यदि केन्द्रित किया जाए तो आज के युग में अधिकतर जनता सामाजिक दूरी को बनाए रखने हेतु कार्यों को घर से ही सम्पन्न करने के प्रयास में है जहाँ इसको स्पष्ट करते हुए उदाहरण के तौर पर विलियम शेक्सपियर और आइजैक न्यूटन के सबसे सफल कार्यों की चर्चा की जाने लगी है, परन्तु यहाँ इस बात पर यह विचार करना भूल गये कि उनमें से किसी के पास भी बच्चों की परवरिश के कर्त्तव्य नही थे जिसके कारणवश बिना किसी पारिवारिक उत्तरदायित्व के एक संक्रामक-रोग के प्रकोप के समय में उन्हें किंग लेयर को लिखने या प्रकाशिकी के एक सिद्धान्त को विकसित करने का पूर्ण समय प्राप्त हुआ। सुरक्षित रोजगार और नियमित आय वाले लोगों के लिए, अस्थायी लॉकडाउन की गति को कम करने, कायाकल्प करने और उनके रचनात्मक पक्ष को केन्द्र में लाने का एक अच्छा माध्यम हो सकता है। यद्यपि, रचनात्मकता को कभी समाप्त न होने वाले घरेलू कार्यों के भार तले दबाया जाना उनकी रचनात्मकता को समाप्त करना है।
विश्व के कई क्षेत्रों विशेष रूप से भारत और पाकिस्तान में, उच्चतम स्तर पर है, जहाँ पुरुषों के सापेक्ष महिलाओं द्वारा अवैतनिक देखभाल के कार्य पर अधिक समय दिया जाता है। लॉकडाउन के अन्तर्गत सभी परिवारों के लिए घरेलू कार्य के भार में वृद्धि हो जाती है। भारत में, उच्च वर्गीय और मध्यम वर्गीय परिवारों का दैनिक जीवन सेवा प्रदाताओं की सेवाओं से ही चलता है। घर का काम करने वाली सहायक, ड्राइवर, माली, धोबी, कचरा बीनने वाले, छोटे विक्रेता जो घर के दरवाजे पर आवश्यक सामान लाते हैं। अब यह पूरी व्यवस्था बाधित हो गयी है। आज जबकि पुरुष और महिलाएँ दोनों घर में फँसे हुए हैं, प्रश्न यह है कि दोनों में से कौन घरेलू कार्य के इस उत्तरदायित्व को पूरा कर रहा है, सैद्धांतिक रूप से दोनों की श्रेणी इसमें शामिल है, परन्तु व्यवहार में, यह कार्य स्वाभाविक रूप से महिलाओं को प्रदान किया जाता है बिना इस पर विचार किए कि वे रोजगार करती हैं (यानी मजदूरी कमाती हैं) या नही। यदि वे कार्यरत हैं, तो घरेलू कार्यों और उनके दिन के रोजगारों का दोहरा भार अब कई गुना अधिक है, क्योंकि उनके दिन का रोजगार का अब एक नया नाम है- घर से कार्य करना (वर्क फ्रॉम होम)।
महिलाओं को शास्त्रों से लेकर समकालीन युग तक एक से कई पीड़ाओं का शिकार देखा गया है और बिना किसी संक्रमण के जब यह शिकार होती रही है तो स्वाभाविक है कि संक्रमण के युग में इनकी स्थिति और दयनीय होगी। वर्तमान युग इस समय में सबसे भयानक और स्पष्ट प्रभाव घरेलू हिंसा में वृद्धि के रूप में देखने को भी मिल रहा है, जिसको लेकर समाज एवं सरकार अनजान है। इतना ही नही इस संक्रमण के अन्तर्गत सामाजिक रूप से दूरी बनाये रखने के इस विचार ने लोगां के मन में विभिन्न समुदायों के प्रति हीन भावना को भी उत्पन्न किया है जिसमें महिलाओं को ही अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ा है उदाहरणतः भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों की महिलाओं एवं छात्राओं पर चीनी लोगों के साथ समानता के कारण नस्लवादी हमले एवं ’गो कोरोना’ जैसे वाक्यों का प्रयोग करने की घटनाएँ सामने आयी हैं। इसके अतिरिक्त किराए के मकान में रह रहीं महिला नर्सों एवं डॉक्टरों तथा विमानो कें जगत में काम कर रही महिलाओं के साथ मकान मालिकों द्वारा दुर्व्यवहार एवं उनके देरी से घर में आने को लेकर उनके चरित्रहीन होने की शिकायतें भी सामने आयी हैं।
परन्तु आज जब हम इस महामारी के सन्दर्भ में विभिन्न सरकारों के प्रयत्नों एवं मीडिया की भूमिका को देखते हैं तो केवल धार्मिक बहसें या ऐसे मुद्दे देखने को मिलते हैं जिन पर राजनीति करना सरल है, जिनसे राजनीतिक लाभ अधिक मिलते हैं। ऐसी स्थिति में गर्भवती महिलाओं की समस्या, हिंसा के विषय में सोचने के लिए किसी के पास समय नहीं या फिर कह लीजिये उनकी आवश्यकताओं पर राजनीति नही की जा सकती। ऐसे में सरकार द्वारा बनाई गयी नीति भी केवल नागरिकों के लिए हैं, जिसमे वह पुरुष और महिलाओं के लिए एक नीति का निर्माण करते हैं, परन्तु सरकारें यह भूल जाती हैं कि समाज में महिलाओं की स्थिति, उनका जीवन व उनकी आवश्यकताएँ असमान हैं जिसके चलते उनके लिए अलग नीतियों की आवश्यकता है। परन्तु दुर्भाग्यवश, नीति बनाम राजनीति की इस लड़ाई में महिला न तो नीति का हिस्सा बन पायी और न ही राजनीति का। संक्रमण में आत्मनिर्भर भारत में जो सहायता परिवारों को प्रदान की जा रही है उस स्थिति में आत्मनिर्भर महिला होना अधिक कठिन है जिस पर महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान के साथ विशेष नीतियों की अतिआवश्यकता है क्योंकि एक स्त्री पूरे परिवार की संरक्षक होती है।
.
रजनी
लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग में पीएच. डी. शोधार्थी हैं। सम्पर्क- riya7116@gmail.com
Related articles

नारी स्वतंत्रता और ‘छिन्नमस्ता’
सरिता सिन्हाJul 20, 2021
स्त्री को तलाश करती ‘अस्तित्व’
तेजस पूनियांJun 03, 2021
महिलाओं के साथ भेदभाव करता है समाज
नरेंद्र सिंह बिष्टAug 30, 2020
वेब शृंखला की संस्कृति और राजनीति में स्त्री
रजनीJul 23, 2020
महामारी, महिलाएँ और मर्दवाद
जावेद अनीसApr 26, 2020डोनेट करें
जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
विज्ञापन
