मज़ाक समझा है क्या !
हम मजाक को कभी भी गंभीरता से नहीं लेते, जानती हूँ आप कहेंगे कि मज़ाक तो मज़ाक होता है फिर मैं उलटी गंगा बहाने की बात क्यों कर रही हूँ! पर आप ये भी तो मानेंगें न कि मज़ाक-मज़ाक में बखेड़ा खड़ा हो जाता है! क्यों? क्योंकि हम आपस में मज़ाक करते भी हैं और दूसरों का मज़ाक उड़ाते भी हैं, कुछ लोग मजाकिया होते हैं पर कुछ लोग अपने भीतर बदले की भावना का विष दबाए, समय आने पर मज़ाक के रूप में निकाल देते हैं और कह देते हैं, अरे, मैं तो मजाक कर रहा था। हरिशंकर परसाई जी कहते हैं कि मजाक करना किसी की बहुत तमीज के साथ बेइज्जती करना ही है। मज़ाक हो या चुटकुले उनके केंद्र में हमेशा कमजोर ही रहता है। बात अगर स्त्री की हो तो उसे आज भी दोयम दर्जे का माना जाता है, आप पायेंगे कि स्त्रियों पर बहुतायत में चुटकुले बनते हैं खासकर के पत्नियों पर।
उस पर विडम्बना यह कि ये जानकार भी कि हमारा ही मजाक उड़ाया जा रहा है हम स्त्रियाँ भी उन्हें हँसी में उड़ा दिया करतीं हैं, तभी मैंने कहा कि मज़ाक को हम गंभीरता से नहीं लेते। सदियों से चुटकुलों व घर परिवार में होने वाले मज़ाकों ने स्त्री छवि को कमतर आंकते हुए उसका मज़ाक ही उड़ाया है यानी पत्नी हमेशा पति का उत्पीड़न करेगी लड़कियों के सजने-धजने को लेकर, बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम, उनके बात-चीत करने के तरीके, ज़रा ऊंची आवाज़ की नहीं कि फूहड़ मान ली जाती है तो बनाए गये सौन्दर्य मानकों से जरा ही कम होने पर उनके रूपरंग आकार को शूर्पणखा आदि संबोधनों से उन्हें हास्य का केंद्र बनाया जाता है।
अगर कहूँ स्त्री की तो ज़िन्दगी ही एक मज़ाक है तो आपको अतिश्योक्ति लग सकता है कि वह देवी है, पूजी क्यों नहीं जाती, वह लक्ष्मी है, अपनी ही कमाई पर उसका स्वतन्त्र अधिकार नहीं दिखता, वह सरस्वती है पर उस पर कभी शिक्षा की कृपा नहीं बरसती, उसे पत्थर की तरह वह चुप शांत व स्थिर रहना चाहिए। लेकिन अब इन मज़ाकों के प्रति हमें आपत्ति दर्ज करनी ही होगी, खुद स्त्री को और साथ में पति के रूप में विल स्मिथ जैसे पुरुषों को भी।
बात कर रहें हैं 94वें अकैडमी अवॉर्ड सन्दर्भ की, जिसमें होस्ट कर रहे कॉमेडियन क्रिस रॉक ने एक्टर विल स्मिथ की पत्नी जैडा पिंकेट स्मिथ के गंजेपन को लेकर मजाक किया प्रतिक्रिया स्वरूप विल स्मिथ ने मंच पर जाकर उन्हें एक थप्पड़ जड़ दिया और अभद्र शब्दों के साथ कहा ‘मेरी पत्नी का नाम मत लो’। विश्वमंच पर इस तरह थप्पड़ जड़ना अशोभनीय व हिंसा ही माना जाएगा लेकिन इस घटना का दूसरा पक्ष देखें तो समझ आएगा कि अपनी पत्नी के साथ हुई शाब्दिक हिंसा पर विल स्मिथ अपनी पत्नी के साथ खड़े होकर स्टैंड ले रहे हैं। पर इस पूरे प्रकरण पर नज़र डालें और वीडियो देखेंगे तो पायेंगे, आरंभ में तो इस जोक पर विल स्मिथ भी हँस रहे हैं लेकिन जब उन्होंने पत्नी के हाव-भाव देखे तो अगले ही पल उनकी प्रतिक्रिया बदल गई ये जानकार कि उनकी पत्नी को मज़ाक पसंद नहीं आया, वे उठे और फिर जो हुआ पूरी दुनिया ने देखा। क्रिस ने इसे सहजता से लेते हुए कहा कि मैं तो बस मजाक कर रहा था पर अब विल स्मिथ को भी यह मज़ाक पसंद नहीं आ रहा था।
हालांकि इस तरह के अवॉर्ड फंक्शंस कई बार स्क्रिप्टेड भी होते हैं जो दर्शकों को हँसाने के लिए बनाए जाते हैं, आपको बता दें कि स्टैंडअप कॉमेडियन की लोकप्रियता आज बड़े-बड़े सितारों को टक्कर देती है शायद इसी अति उत्साह में दर्शकों को हँसाने की मंशा से, क्रिस ने मज़ाक कर लिया जो उन्हें महंगा पड़ सकता है; शायद नहीं भी, क्योंकि स्त्रियों पर हुए मज़ाक को हम गंभीरता से नहीं लेते। इस प्रकरण में जेडा पिंकेट स्मिथ का हावभाव स्पष्ट बता रहा है कि ये स्क्रिप्टड नहीं था लेकिन उस सामाजिक स्क्रिप्ट का ज़रूर था जो सदियों पहले स्त्री को अपमानित हीन करने के लिए गढ़ी जा चुकी है। क्रिस ने यह कहकर कि ‘यह टेलीविजन के इतिहास में सबसे बड़ी रात होगी’ और अपनी प्रतिक्रिया न दिखाते हुए दर्शकों को अपने पक्ष में कर लिया।
बाद में जब बेस्ट फिल्म किंग रिजल्ट के लिए विल स्मिथ को बेस्ट एक्टर का अवार्ड मिला तो उन्होंने स्टेज पर अपने व्यवहार के लिए आयोजकों से माफी मांगी। अगले दिन अपने ट्वीट के माध्यम से भी अपनी इस हरकत के लिए माफी मांगते हुए सोशल मीडिया पर लिखा कि किसी भी तरह की हिंसा जहरीली और बर्बाद करने वाली होती है पिछली रात एकेडेमी अवॉर्ड्स में मेरा बर्ताव स्वीकार्य नहीं था और इसके लिए कोई बहाना नहीं चलेगा मेरे हिसाब से मजाक हमारे काम का हिस्सा है पर जेडा के मेडिकल कंडीशन पर जोक करना मेरे लिए कुछ ज्यादा हो गया मैं उसे सहन नहीं कर पाया और भावनात्मक रूप से रियेक्ट कर गया।
हम जानतें हैं स्त्री सौंदर्य मानकों में बालों का बहुत महत्व है, हिन्दी फिल्मों की ही बात करें तो रेशमी जुल्फों पर आपको कई गीत मिल जाएंगे। जब भारतीय स्त्रियाँ बाल कटवाने लगी तो इंदिरा गांधी तक को यह सुनना पड़ा कि ‘मोती की पोती जूड़ा ना चोटी’ बचपन में इस पहेली का हम खूब आनंद लिया करते थे लेकिन इसके केंद्र में पितृसत्तात्मक सोच है कि स्त्रियों के बाल अनिवार्यत: लम्बे ही होने चाहिए। इस घटना में पितृसत्तात्मक समाज की एक महत्त्वपूर्ण मानसकिता को बिलकुल ही छिपा दिया गया; जिसमें विल स्मिथ का अपनी पत्नी के प्रति प्रेम और थप्पड़ सभी को दिख रहा है लेकिन क्रिस रॉक जिसने एलोपेसिया नामक बीमारी से जूझती महिला का मज़ाक उड़ाया, अभी तक माफी नहीं माँगी है, और इस प्रकार की कोई माँग सुनाई भी नहीं पड़ रही है कि क्रिस को उस महिला से माफी मांगनी चाहिए।
जेडा अपनी इस बीमारी से जुड़ी समस्याओं पर एक शो पर बात कर चुकी है। हम इस बात को भी जानतें हैं कि फ़िल्मी दुनिया में सौन्दर्य-मानकों को बनाये रखना ख़ासकर नायिकाओं के लिए कितना जटिल होता है ऐसे में इस तरह की बीमारी उन्हें मानसिक रूप से भी हताश करने वाली रही होगी। अकेले अमेरिका में इस डिसऑर्डर से इस समय कोई लाखों लोग पीड़ित हैं यानी इस बीमारी में बालों के झड़ने के बाद जो गंजापन आता है उसे लेकर बनाया गया मज़ाक, दरअसल उन सभी लाखों लोगों का भी मज़ाक बनाया जाना है जो अपने आप में एक क्रूर कृत्य है, अत: यह अनिवार्य है कि इस मज़ाक को गंभीरता से लिया जाए।
इसमें कोई दो राय नहीं कि हँसी-मजाक जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। विविध आवाज़ों, शारीरिक चेष्टाओं के साथ चेहरे पर हँसी की अभिव्यक्ति का सौभाग्य केवल मानव को ही प्राप्त है, जानवरों को हम रोते देख सकते हैं लेकिन हँसते हुए हम अपवादस्वरूप एकाध जानवर को ही देख समझ सकतें है वो भी मैं कयास लगा लगी रहीं हूँ। कोई खिलखिला कर हँसता है, कोई ठाहके मार कर हँसता है, रावण का-सा अट्टहास भी मानव के नसीब में है, कोई हँस-हँस के लोटपोट हो जाता है, हँसते-हँसते किसी की आँखों में आँसू तक आ जाते हैं तो कोई खाली मुस्कुरा कर रह जाता है। जिसे हम सेंस ऑफ ह्यूमर कहते हैं मनोविज्ञान के अनुसार वह मनुष्य की स्वस्थ मानसिकता की निशानी है, जो मनुष्य को हँसमुख स्वाभाव का बनाता है लेकिन सेंस ऑफ ह्यूमर के नाम किसी की कमजोरियों को निशाना बनाकर उन्हें नीचा दिखाते हैं और अपने आप को बड़ा दिखाना वास्तव में अस्वस्थता का लक्षण है।
जब जातिवादी या लिंग-जेंडर आधार पर चुटकुले छेड़े जातें हैं, सभी हँसते हैं, तो हँसी के पीछे शाब्दिक हिंसा का वर्चस्व नजर आता है। आज के तनाव भरे परिवेश में हँसना और हँसाना बहुत आसान काम नहीं है इसलिए विशुद्ध हास्य लगभग विलुप्त हो चुका है इसलिए जीवन में व्यंग्य बाण, कटाक्ष और मज़ाक बचे हैं अत: मज़ाक करते समय अक्सर ध्यान नहीं रखते और अंतर्मन में बैठी हुईं कटुताओं को मजाक के रूप में व्यक्त करने लगते हैं हम खुद को श्रेष्ठ बताकर दूसरे को हीन दिखने की चेष्टा करते हैं पल भर का मजाक कई बार पूरा माहौल बिगाड़ देता है जैसा कि एकेडमी अवार्ड में यही हुआ।
वैश्विक मंच से किसी की शारीरिक, मानसिक, कमजोरी का, गरीबी अथवा शिक्षा का, रूप-रंग का मज़ाक बनाना कदापि मानवीय नहीं है, बीमारी को जानकार मजाकिया टिप्पणी करना या मज़ाक उड़ाना नैतिकता की दृष्टि से क्या शाब्दिक हिंसा नहीं? उस मज़ाक के कारण किसी का मन दुखी और आहत हुआ हो तो वह हिंसा का ही रूप माना जाएगा, महिलाओं पर बने चुटकुलों पर समाज खुल कर हँसता है, स्पष्ट है कि समाज इनकी समस्याओं पर जरा भी गंभीरता से नहीं सोचता। मी टू कैंपेन की शुरुआत करने वाली टेरेना बर्क ने जब अपने साथ हुए यौन शोषण की बात कही तो लोगों ने कहा कि समझ नहीं आता कि इस मोटी काली भद्दी महिला का कौन और यौन उत्पीड़न करेगा?
कुछ इसी तरह की टिप्पणी मायावती जी के विषय में भी कहीं गई थी, उनकी शारीरिक बनावट रंग-रूप का मजाक बनाया जाता रहा है। स्त्री चाहे प्रधानमंत्री हो अथवा मुख्यमंत्री, उन्हें नीचा दिखाने के लिए पुरुष वर्ग शब्दों से खेल उनमें अलग-अलग अर्थ मतलब निकाल-डाल नये सन्दर्भ में प्रस्तुत कर देता है क्योंकि भाषा में पितृसत्ता की झलक साफ़ देखी जा सकती है, जैसे ममता बनर्जी के लिए ‘दीदी’ शब्द का इस्तेमाल सम्मानजनक रूप में नहीं है बल्कि उनका उपहास, अपमान और तिरस्कार करने के लिए किया गया, स्त्री विमर्श में स्त्री भाषा पर भी विमर्श किया जाता है।
इस तरह के मज़ाक एक स्वस्थ मानसिकता का प्रतीक कदापि नहीं हो सकते क्योंकि हंसी मजाक करना भी मजाक का काम नहीं है यानी कोई हंसी खेल या खिलवाड़ नहीं है एकेडमी अवार्ड की घटना को इस सन्दर्भ में भी समझना चाहिए कि औरतें कोई मनोरंजन की वस्तु नहीं है यह बेहद जरूरी है कि जब स्त्रियों पर हर तरह के हिंसा बलात्कार लैंगिक भेदभाव आदि होते हैं और विरोध किया जाता है तो चुटकुलों में भी आपत्ति दर्ज करवानी चाहिए। जहाँ भी औरतों का इस तरह से मजाक बनाया जाए तुरन्त उसका विरोध किया जाये।
मज़ाक विशुद्ध व्यंग्य तब माना जायेगा जबकि सामाजिक विसंगतियों और विडम्बनाओं को हमारे सामने लाने का प्रयास हो, जब ताकतवर की कुनीतियों पर टिप्पणियां की जाती है। अन्यथा कमजोर का मज़ाक अपने आप में ओछी हरकतों में माना जाएगा, जैसे किसी को अचानक गिरते हुए देखकर हँसना। वर्तमान समय में जिस तरह से मज़ाक का स्वरूप और उद्देश्य बिगड़ चुका है मुझे लगता है इस पर गंभीरता से बात करने की आवश्यकता है। विशेषकर स्त्री केन्द्रित चुटकुलों और मज़ाक पर चिंतन मनन होना चाहिए।
मज़ाक से यदि स्त्रियाँ नाराज नहीं होती बल्कि अपने ऊपर की गई हास्यास्पद टिप्पणी पर स्वयं भी हँसने लगती है तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसने मजाक को हल्के में ले लिया कहीं ना कहीं वह दु:ख और दर्द अपने भीतर उसी वक्त जज्ब कर लेती है। वह अपमान या निंदा का घूँट उसके भीतर तक जम जाता है, अत: हमें मज़ाक पर होने वाली प्रतिक्रिया पर एक गंभीरता से बात करनी चाहिए। मज़ाक करने में एक स्वस्थ मानसिकता, सूझ बूझ, बौद्धिकता और संवेदनशीलता का होना बेहद जरूरी है। अन्यथा प्रतिक्रिया विल स्मिथ जैसी हो सकती है।
विल स्मिथ थप्पड़ प्रकरण में हमें जेडा यानी स्त्री होने पर जिनका मजाक बनाया गया, क्रिस के लिए छूट लेने जैसा रहा होगा हमें जेडा के विचारों से भी अवगत होना चाहिए, जिसके आत्मसम्मान के लिए उनके पति को आगे आना पड़ा, इस उपहासात्मक टिप्पणी का वह स्वयं विरोध क्यों न कर पाई, वे एक सशक्त महिला कलाकार है पर ‘महिला’ पहले हैं इसलिए मुँह बिचकाकर रह गई, अपनी बीमारी के दौरान जाने ऐसे कितनी अपमानजनक टिप्पणियों को उन्होंने अनदेखा अनसुना किया होगा! फिर रोजमर्रा के जीवन में होने वाले मज़ाको के केंद्र में सामान्य स्त्री भला कितना विरोध कर पाती होगी यह गंभीर प्रश्न है।
कमजोर पक्ष का मज़ाक बनाना हम बचपन से ही देखना, समझना और करना शुरू कर देते हैं, यह परंपरा या संस्कृति धीरे-धीरे हमारे व्यवहार में घुल जाती है, हमें पता ही नहीं चलता, कहीं ना कहीं हम ही तो मानक बनाते स्थापित करते चले जाते हैं, जिनके आधार पर आने वाली पीढ़ियों में भी संस्कार, विचार और छवियाँ गढ़ती-बनती चली जाती हैं कि सुंदर होने का क्या अर्थ है, अमीर होने का क्या अर्थ है, गरीब होने का क्या अर्थ है और इस तरह समाज में भेदभाव की नींव तैयार रहती है जिस पर वर्तमान समाज का ढांचा खड़ा है जिसमें स्त्रियों के हक़ में सम्भवत: कोई एक ईंट भी नहीं। अत: अब जब भी स्त्री पर कोई मज़ाक या जोक आप सुने उस पर अपना विरोध दिखाए और सख्त आवाज़ में कहें ‘मज़ाक समझा है क्या?’