विकास के राजपथ पर कहां हैं गांव?
समाज विज्ञानी जॉर्ज मैथ्यू ने करीब छह साल पहले सोशियोलॉजिकल बुलेटिन के सितम्बर-अक्टूबर, 2016 के अंक में प्रकाशित अपने एक महत्वपूर्ण लेख पॉवर टू द पीपल ऐंड इट्स एनेमी (लोगों का सशक्तिकरण और उनके शत्रु) में एस.के. डे हवाले से एक वाकये का जिक्र किया था। आज जब हम देश की आजादी की 75वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं तो उस पर गौर करना समीचीन होगा, उन्होंने ये लिखा है – एस.के. डे ने उन्हें बताया था कि नेहरू ने उनसे कहा था, “हमने देश को विदेशी शासन से मुक्त कराने के लिए पचास, साठ, सत्तर सालों से संघर्ष किया। आखिर किस उद्देश्य के लिए? लोगों को शासक बनाने के लिए।”
एस.के. डे यानी सुरेंद्र कुमार डे थे कौन? वे औपनिवेशिक भारत में 1906 में बंगाल के सिलहट जिले के एक गाँव में पैदा हुए थे, जो अब बांग्लादेश का हिस्सा है। भारत के स्वतन्त्र होने पर डे ने पुनर्वास मन्त्रालय में बतौर तकनीकी सहायक अपना करिअर शुरू किया था। आजादी मिलने के साथ ही देश को विभाजन और पलायन के रूप में भयावह मानव त्रासदी का सामना करना पड़ा था। पाकिस्तान के हिस्से से लाखों लोग भारत आ रहे थे और विस्थापितों को बसाना जवाहरलाल नेहरू की सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती थी। उनकी सरकार ने विस्थापितों को बसाने के लिए कई तरह की योजनाओं पर काम किया। उनमें से एक थी नीलोखेड़ी परियोजना। नीलोखेड़ी राजधानी दिल्ली से करीब 140 किलोमीटर दूर दिल्ली अम्बाला हाईवे पर एक ब्लॉक है, जिसके अधीन तब करीब 135 गांव थे। यहाँ करीब सात हजार विस्थापितों को बसाया गया। इसे सहकारिता और सामुदायिक विकास के मॉडल के रूप में विकसित किया गया और आत्मनिर्भरता पर आधारित इस परियोजना का नाम दिया गया था, ‘मजदूर मंजिल’। इस अर्ध शहरी और अर्ध ग्रामीण कॉलोनी में स्कूल, कृषि फार्म, पॉलिटेक्निक प्रशिक्षण केन्द्र, डेयरी, पोल्ट्री फार्म, सुअर पालन फार्म, बागवानी उद्यान, प्रिंटिंग प्रेस, परिधान कारखाना, इंजीनियरिंग कार्यशाला, साबुन कारखाना इत्यादि सब कुछ थे। इस योजना के वास्तुकार थे एस.के.डे।
उनके इस उद्यम से प्रभावित होकर ही प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने 1956 में उन्हें अपने मन्त्रिमंडल में नवगठित सामुदायिक विकास मन्त्रालय के मन्त्री के रूप में शामिल किया था। उनके जिम्मे ग्रामीण विकास की अहम जिम्मेदारी थी।
जॉर्ज मैथ्यू ने अपने उस लेख में लिखा, “यह महसूस किया गया कि हमारे देश के सारे गांवों का विकास करना होगा।” और जवाहरलाल नेहरू ने एस.के.डे से कहा, “मैं आपको सभी 5,57,000 गांव सौंपता हूं। जाकर उन्हें बताओ कि वे अब मालिक हैं। उन्हें इस देश में वह सब करने दें, जो वे करना चाहते हैं।” जॉर्ज मैथ्यू ने इसके साथ ही सवाल किया, “स्वतंत्रता के 68 वर्ष बाद क्या आज लोग शासक हैं? क्या गांव के लोग आज मालिक हैं?”
जॉर्ज मैथ्यू की तरह पूछा जा सकता है, “स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद क्या आज लोग शासक हैं? क्या गांव के लोग आज मालिक हैं?”
हम यदि 15 अगस्त, 1947 के भारत से आज के भारत की तुलना करें, तो निश्चय ही बहुत कुछ बदला है। आजादी मिलने के समय देश की आबादी 34.5 करोड़ के करीब थी और करीब 80 फीसदी आबादी यानी करीब 25 करोड़ लोग गरीब थे। ये ऐसे लोग थे, जो दो वक्त का भोजन भी नहीं जुटा पाते थे। उस वक्त देश अपने लोगों को अन्न उपलब्ध कराने के मामले में आत्मनिर्भर नहीं था। आजादी मिलने से ठीक पहले 1943 के बंगाल के भयावह अकाल ने देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी थी। देश की प्राथमिकता अपने लोगों को अन्न और स्वास्थ्य तथा शिक्षा जैसी जरूरी चीजें मुहैया कराने की तो थी ही, लेकिन विभाजन से उपजी विकट सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक परिस्थितियों से निपटने की भी जरूरत थी।
14 और 15 अगस्त की दरम्यानी रात स्वतन्त्र भारत में बतौर प्रथम प्रधानमन्त्री नेहरू ने बहुत ही भावानात्मक भाषण दिया था, जिसे नियति से साक्षात्कार के नाम से जाना जाता है। उसके अगले कई वर्षों तक 15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से दिए गए उनके भाषणों में तब की चुनौतियाँ साफ नजर आती हैं।
आजादी मिलने के एक साल बाद 15 अगस्त, 1948 को नेहरू ने लालकिले की प्राचीर से दिए गए भाषण में कहा, “… हमने और आपने ख्वाब देखे हिन्दुस्तान की आजादी के, उन ख्वाबों में क्या था? यह तो नहीं था खाली कि अँग्रेजी कौम यहाँ से चली जाए और फिर हम गिरी हुई हालत में रहें। वो स्वप्न जो थे वो थे कि हिन्दुस्तान के करोड़ों आदमियों की हालत अच्छी हो, उनकी गरीबी दूर हो, घर मिले रहने को, कपड़ा मिले पहनने को, खाना मिले पढ़ाई मिले सब बच्चों को, और मौका मिले हर शख्स को कि वह हिन्दुस्तान में तरक्की कर सके, मुल्क की खिदमत करे, अपनी देखभाल कर सके, और इस तरह से मुल्क…सारा मुल्क उठे।…”
जाहिर है, आजाद भारत के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती गरीबी से निपटने की थी। ऐसे में तब के ग्रामीण भारत की कल्पना की जा सकती है कि वह कैसा रहा होगा। आंकड़े बताते हैं कि अभी देश की 65 फीसदी आबादी (करीब 88 करोड़) ग्रामीण भारत में रहती है।
यह जानने के लिए किसी गहन शोध की जरूरत नहीं है कि भारत की अधिकांश आबादी कृषि और उससे सम्बन्धित कामकाज पर निर्भर है। हर साल बजट से पहले आने वाली आर्थिक समीक्षा हमें बताती है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी महज बीस फीसदी के आसपास है। अर्थशास्त्रियों के साथ ही नीति नियन्ताओं को यही शिकायत है कि जीडीपी में कृषि क्षेत्र पर आधे से अधिक आबादी निर्भर है, लेकिन जीडीपी में उसकी हिस्सेदारी महज बीस फीसदी है। लिहाजा जाने-अनजाने ग्रामीण भारत को निशाना बनाया जाता है। जबकि एक हकीकत यह भी है कि बहुत से लोगों के लिए कृषि सालभर का रोजगार नहीं है। इसलिए उन्हें फसलों के कटने या कृषि के मौसम के बाद शहरों, खासतौर महानगरों का रुख करना पड़ता है। ग्रामीण भारत से यह पलायन दशकों से हो रहा है। अमूमन ऐसा पलायन उन राज्यों में अधिक हुआ है, जिन्हें 1980 के दशक में जनसांख्यिकी विशेषज्ञ आशीष बोस ने ‘बीमारू’ राज्य करार दिया था। ‘बीमारू’ शब्द बिहार (अविभाजित), मध्य प्रदेश (अविभाजित), राजस्थान और उत्तर प्रदेश (अविभाजित) से मिलकर बनाया गया था। वर्ष 2000 में बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तराखण्ड को विभाजित कर तीन नए राज्य, क्रमशः झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखण्ड बनाए गए। हालाँकि इन राज्यों के अलावा ओडिशा का कालाहांडी इलाका भी अकाल और पलायन के लिए बदनाम रहा है।
ग्रामीण भारत से करोड़ों लोगों के शहरों और महानगरों की ओर जाने का सिलसिला निरन्तर जारी है। यह क्रम करीब ढाई वर्ष पहले तब बाधित हो गया था, जब कोविड-19 की महामारी के कारण प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने कुछ घण्टों की नोटिस पर 21 दिनों के देशव्यापी लॉकडाउन का एलान किया था। अचानक उठाया गया यह कदम उन करोड़ों लोगों पर पहाड़ बनकर टूटा था, जिन्होंने रोजगार की तलाश में शहरों और महानगरों को अपना अस्थायी ठिकाना बनाया था। हमारी सामूहिक स्मृतियों में वे दृश्य दर्ज हैं, जब करोड़ों लोग, उन्हें चाहे जो साधन मिला उससे या फिर हजार-दो हजार किलोमीटर दूर तक पैदल चलते हुए अपने गाँवों की ओर लौटने लगे थे।
करोड़ों लोगों के इस तरह घर लौटने को विभाजन के बाद की दूसरी बड़ी मानवीय त्रासदी तक कहा गया। इसे रिवर्स माइग्रेशन भी कहा गया, जो कि शहरीकरण की उस अवधारणा के उलट था, जिसे नीति नियन्ता विकास के लिए जरूरी बताते हैं। दिल्ली-एनसीआर, बंगलुरू,मुम्बई , हैदराबाद, सूरत, अहमदाबाद यहाँ तक कि केरल से लौटने वालों की रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानियाँ सामने आईं। इसने ग्रामीण भारत और शहरी भारत के बीच की खाई को भी उजागर किया।
निस्सन्देह शहरीकरण ने रोजगार के नए अवसर पैदा किए हैं, लेकिन शहरी और ग्रामीण भारत के बीच की खाई को भी चौड़ा किया है।यह भी सच है कि आजाद भारत के समय ग्रामीण भारत जैसा था, उसमें और आज के ग्रामीण भारत में अन्तर है। दरअसल विकास एक सतत् प्रक्रिया है, और स्वतन्त्र भारत की सभी सरकारों ने इसमें योगदान किया है। इसमें सैकड़ों कल्याणकारी योजनाओं का योगदान है, जिन्हें अर्थशास्त्रियों और नीति-नियन्ताओं का एक वर्ग आर्थिक बोझ मानता है। उनकी कुछ आपत्त्तियाँ वाजिब हो सकती हैं, लेकिन कोविड के लॉकडाउन के समय देखा गया कि कैसे रोजगार को सांविधानिक अधिकार का जामा पहनाने वाले मनरेगा ( महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अधिनियम) ने महानगरों से अपने घरों को लौटे करोड़ों लोगों को रोजगार मुहैया कराया।
मैं यहाँ विकास को प्रचलित सन्दर्भ में ही ले रहा हूं, जिसका आशय जीवन और आजीवन की सुगमता से है।
ग्रामीण भारत के विकास में पंचायती राज व्यवस्था ने अहम भूमिका निभाई है, बेशक इसकी कुछ अन्तर्निहित खामियों के बावजूद। स्वतन्त्रता मिलने के बाद नेहरू की सरकार के समय ही इसकी शुरुआत हो गई थी, जिसकी झलक पंचवर्षीय योजनाओं में देखी जा सकती है।
यह विडम्बना ही है कि लोकतान्त्रिक ढांचे में पंचायतों को जिस तरह की सशक्त इकाई बनना चाहिए था, वैसा अब तक नहीं हो सका है। इसके उलट पंचायतें राजनीतिक वर्चस्व हासिल करने का जरिया बनती चली गईं। हैरत नहीं होनी चाहिए कि 54 साल पहले श्रीलाल शुक्ल ने अपने कालजयी उपन्यास राग दरबारी में ग्रामीण भारत की जो तस्वीर पेश की थी, उसमें कुछ खास बदलाव नहीं आया है। यही वजह है कि इन दिनों चर्चित वेब सीरीज पंचायत के फुलेरा गांव को देखते हुए राग दरबारी के शिवपालगंज की याद आ जाती है!
यह सवाल एक बार फिर से पूछा जा सकता है कि, क्या गांव के लोग आज मालिक हैं?