लेनिन के डेढ़ सौवीं वर्षगाँठ ‘22 अप्रैल’ के अवसर पर
व्लादिमीर लेनिन पर प्रख्यात रूसी कवि मायकोव्स्की की एक कविता है कि ‘‘हियर इज अ लीडर हू लीड द मासेस बाई हिज इंटेलेक्ट’‘ (यहाँ एक ऐसा नेता है जो अपनी बुद्धि, अपने विचार की बदौलत आम जनता का नेतृत्व करता है)। मायकोव्स्की की ये पंक्तियाँ लेनिन के ऐतिहासिक व्यक्तित्व को उसकी सम्पूर्णता में व्यक्त करने का प्रयास करती है। कहा जाता है सत्रहवी शताब्दी की अँग्रेज क्रान्ति क्रामवेल के बगैर, अठारहवीं सदी की महान फ्रांसीसी क्रान्ति रॉब्सपीयर के बिना भी सम्पन्न हो गयी होती क्योंकि सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियाँ वैसी उसी ओर इशारा कर रही थी लेकिन बीसवीं शताब्दी की विश्वव्यापी प्रभावों वाली रूसी क्रान्ति ब्लादीमिर इल्यीच उल्यानोव, दुनिया जिसे लेनिन के नाम से जानती है, के बिना संभव नहीं हो पाती।
सैक्रामेंटो में दफन है भारतीय क्रान्ति का एक नायक
जैसा कि स्टालिन ने लेनिन की पचासवीं वर्षगाँठ पर कहा था ‘‘क्रान्तिकरी उथल-पुथल के वक्त लेनिन एक पैगम्बर की तरह भविष्य में घटने वाली घटनाओं का सटीक पूर्वानुमान लगा लेते थे। क्रान्ति के दरम्यान संभावित गतिविधियों, मोड़ों तथा विभिन्न वर्गों द्वारा उठाए जाने वाले कदमों को पहले से ही जान लेते मानो वे सही में घट रहे हैं।’‘
लेनिन का जन्म आज ही के दिन यानी 22 अप्रैल को आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व हुआ था। आज से तीन वर्ष पूर्व, 2017 में, जब रूसी की अक्टूबर क्रान्ति के सौ वर्ष पूरे हुए थे, उस दौरान लेनिन के असाधारण योगदान के सम्बन्ध में काफी चर्चा हुई थी। लेकिन साथ ही लेनिन के खिलाफ दुष्प्रचार, उनको कलंकित करना, उनके विचारों को तोड़-मरोड़ करने का काम करने का काम बड़े जोर-षोर से चलता रहा है। 2018 में त्रिुपरा में जब भाजपा सत्तासीन हुई तो सबसे पहले वहाँ लेनिन की मूर्तियाँ गिरायी गयीं। दुनिया भर के शासक वर्ग लेनिन के विरूद्ध निरन्तर अभियान चलाते रहे हैं और ये काम लगभग पिछले सौ वर्षों से चलता रहा है। सोवियत संघ का विघटन यानी 1991 के बाद भी यह अभियान रूका नहीं है।
नवजागरण के मनिषियों पर दक्षिणपन्थी हमले
भारत का शासक वर्ग उसके भाड़े के लेखक भी इस काम में सदा अग्रिम पंक्ति में रहे हैं। जबकि जब लेनिन के बारे में भारत के लगभग अधिकांश राष्ट्रीय नेताओं ने उनका नाम बेहद आदर से लिया है, भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में उन पर लेख लिखे गये, तमाम भारतीय साहित्य में उनकी काफी चर्चा हुई। हिन्दी साहित्य में लेनिन को ‘महात्मा लेनिन’ के नाम ये पुकारा जाता है। बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस, स्वामी सहजानंद सरस्वती से लेकर सुमित्रानंदन पंत, प्रेमचंद, राहुल सांस्कृत्यान, कैफी आजमी सहित हिन्दी-उर्दू के दर्जनों साहित्यकारों ने लेनिन के सम्मान में लेख लिखे, कविताएँ रचीं। अल्लामा इकबाल की लेनिन के उपर रचित कविता, जो सौ वर्ष पूर्व लिखी गयी थी, है ‘‘लेनिन खुदा के हुजूर में’’। इस कविता में खुदा लेनिन को बुलाते हैं और उससे पूछते हैं तू किन लोगों का खुदा है?
वो कौन सा आदम है जिसका तू खुदा है
क्या वो इसी आसमान के नीचे की धरती पर बसता है
हम सभी शहीद-ए-आजम भगत सिंह के लेनिन प्रेम से भलीभाँति वाकिफ हैं फाँसी के वक्त भी लेनिन को पढ़ने में मशगूल थे। ये बात भारतीय लोकाख्यान का अविभाज्य हिस्सा बन चुकी है कि जब जल्लाद भगत सिंह को बुलाने गया ‘‘सरदार जी! चलिए आपका समय हो गया।’‘भगत सिंह, जो उस वक्त जर्मन नेत्री क्लारा जेटकिन की लेनिन पर लिखी संस्मरणों की किताब पढ़ रहे थे। भगत सिंह ने जल्लाद से कहा ‘‘ठहरो एक क्रान्तिकारी दूसरे क्रान्तिकारी से मिल रहा है’‘और किताब का पन्ना वहीं मोड़ दिया।
सामाजिक न्याय की राजनीति और दलित आन्दोलन
भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन की हर धारा के लोग लेनिन से प्रेरणा लेते रहे हैं। कांग्रेसी, समाजवादी, वामपंथी सहित हर किस्म के लोग लेनिन से प्रेरणा लेते रहे। इसके पीछे रूसी क्रान्ति के बाद लेनिन द्वारा ‘उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार’ सम्बन्धी घोषणा थी। इस घोषणा ने पूरी दुनिया के औपनिवेशिक देशों को एक उम्मीद की रौशनी मिली। कहा जाता है कि वियतनामी क्रान्ति के नेता ‘हो चिन्ह मिन’ ने इन घोषणाओं को पढ़ा तो ख़ुशी से उनकी आखों में आँसू आ गये। आजादी के पूर्व भारत में सिर्फ धारा लेनिन से प्रेरणा न ग्रहण कर सकी, वो थी राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आर.एस.एस)। आर.एस.एस आजादी के पूर्व ये लोग ब्रिटिश साम्राज्यवाद के एजेंट के रूप में काम करते थे जैसे आज अमेरिकी साम्राज्यवादी हितों को भारत में आगे बढ़ाने वाली सबसे बड़ी ताकत है।
लेनिन की साम्राज्यवादी सम्बन्धी अनूठी सैद्धांतिक पकड़ ने ही उनको, जैसा कि रोजा लक्जमबर्ग कहा करती थी ‘‘निरन्तर खदेड़े जाते वाले शख्स से परिस्थितियों का नियंता बना दिया।’‘ साम्राज्यवाद सम्बन्धी अपने अध्ययन को लेनिन ने 1916 में प्रकाशित विश्वविख्यात पुस्तक के रूप में ‘‘साम्राज्यवाद: पूँजीवाद की उच्चतम अवस्था’‘में रखा। लेनिन की प्रस्थापना थी पूँजीवाद की इस अवस्था में यानी साम्राज्यवादी अवस्था में बाजार के लिए बॅंटवारे के लिए युद्ध एक प्रमुख विशेषता बन जाती है। इन मुकाम पर किसी देश के मजदूर वर्ग के लिए एक ही रास्ता बचता है या तो वो सीमाओं के पार अपने ही जैसे मजदूरों को मारे या फिर पूँजी के इस शासन का ही अन्त कर दे।
स्वामी सहजानन्द सरस्वतीः सन्यास से समाजवादी तक का सफर
इतिहास के उस महत्वपूर्ण मोड़ की इस सैद्धांतिक समझदारी के कारण लेनिन बाकी विश्वनेताओं के मुकाबले आगे निकल गये। उन्होंने इतिहास द्वारा उपलब्ध किए गये अवसर का लाभ उठाया और रूस में क्रान्ति करने पर सफल हो गये।
अक्टूबर क्रान्ति ने दुनिया भर के शासक वर्ग में कम्युनिज्म का डर पैदा कर दिया। विश्वप्रसिद्ध इतिहासकार एरिक हॉब्सबॉम बताते हैं जब रूस में क्रान्ति हुई तो पूरा इंग्लैंड स्तब्ध रह गया। कई सप्ताह तक यहाँ का शासक वर्ग सदमे में रहा कि ये क्या हो गया? कैसे हो गया? इन्हीं वजहों से 1917 की क्रान्ति के बाद 12 देशों – जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका, ग्रीस, रोमानिया, जापान, सर्बिया, इस्तोनिया, पोलैंड बेल्जियम, ने संयुक्त सेना नवजात समाजवादी देश पर हमला किया। देश के भीतर कोलचक देनेकिन जैसे प्रतिक्रान्तिकारी श्वेतगार्डों की सेना थी। प्रतिक्रान्तिकारियों की सेना की ओर से बोलते हुए विंस्टन चर्चिल ने क्रान्ति का ‘जन्म के साथ ही’ ‘गला घोंट देने’ की बात की। क्रान्ति की समाजवादी सत्ता सिमट कर कुछ केन्द्रों तक सिमट कर रह गयी थी।
साम्प्रदायिक सद्भाव : आशंका और आकांक्षा
तब रूस ने लड़ाई लड़ी हथियार से नहीं, विचार से। 12 देशों को अपनी सेना हटानी पड़ी। इन देशों का मजदूर वर्ग सोवियत सत्ता की घेरेबंदी को लेकर अपने देश के शासक वर्ग के विरूद्ध आन्दोलनरत था। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज से हाउस ऑफ कॉमन्स में पूछा गया ‘ बोल्शेविकों के खिलाफ सेना क्यों हटायी गयी?’ लॉयड जार्ज का दिलचस्प जवाब था ‘‘यदि नहीं हटाता तो अपने अँग्रेज सैनिकों को बोल्शेविक इंफ्ल्यूंजा ने ग्रसित होने से कैसे बचाता?’‘
अपने प्रारम्भिक दिनों में लेनिन पर अपने बड़े भाई अलेक्जेंडर उल्यानोव का बहुत प्रभाव था। अलेक्जेंडर उल्यानोव ‘‘नरोदनाया वोल्या’‘ (जन आकांक्षा) के सदस्य थे। ये दल आतन्क के रास्ते बुनियादी बदलावों का आकांक्षी था। जार को मारने का प्रयास में अलेक्जेंडर उल्यानोव को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। उनके भाई को रूसी साहित्यकार निकोलाई चेर्नीशव्सकी की युगांतकारी कृति ‘क्यों करें’ बेहद पसन्द था। लेनिन ने अपने भाई की मौत के बाद चेर्नीशव्सकी की ये उपन्यास ठीक से पढ़ा। उन्हें चेर्नीशव्सकी की बात बहुत पसन्द थी। ‘‘हर ईमानदार और शालीन व्यक्ति क्रान्तिकारी होता है।’‘
पिछड़ी जाति की जमींदारी व सोशलिस्ट धारा
लेकिन लेनिन अपने भाई के रास्ते पर नहीं गये। और 7 नवम्बर, 1917 को क्रान्ति करने में सफल हुए। इसी दिन पहली बार हमेशा पराजित होते आने वाले मेहनतकश वर्ग को ये अहसास हुआ कि वो जीत भी सकता है। इस दिन को लेकर तुर्की कवि नाजिम हिकमत की ये कविता बेहद मशहूर है।
उन्नीस सौ सत्रह
सात नवम्बर
अपने धीरे-धीरे मंद स्वर में
लेनिन ने कहा:
‘‘कल बहुत जल्दी होता और
कल बहुत देर हो चुकी रहेगी
समय है आज’’
मोर्चे से आते सैनिक ने
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कहा ‘‘आज’’
खन्दक जिसने मार डाला था मौत को
उसने कहा ‘आज’!
अपनी भारी इस्पाती काली
आक्रोश की तोपों ने
कहा ‘आज’
और यूं दर्ज की बोल्शेविकों ने इतिहास के
सर्वाधिक गम्भीर मोड़-बिन्दु की तारीख
उन्नीस सौ सतरह
सात नवम्बर
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