पुस्तक-समीक्षा

संवाद के सहारे भारतीयता का आग्रह

 

अमर्त्य सेन जिस ‘दी आर्ग्युमेन्टेटिव इण्डियन’ की अवधारणा इसी नाम की अपनी चर्चित पुस्तक में प्रस्तावित करते हैं; मणीन्द्र नाथ ठाकुर की पुस्तक ‘ज्ञान की राजनीति’ उसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए भारतीयों की तर्कशीलता की प्रवृत्ति को रेखांकित करती है। विस्मृति के इस दौर में यह पुस्तक संवाद की पुरानी भारतीय परम्परा की स्मृति कराती है। भारत कई प्रकार की ज्ञान परम्पराओं का समुच्चय रहा है। यह देश ज्ञान, भाषा, नस्ल, विश्वास, दृष्टिकोण सभी अर्थों में बहुवचनात्मक है। विविधता इन्हीं सन्दर्भों में एक अर्थ-निर्माण ग्रहण करती है। यह सिर्फ कहने की बातें नहीं हैं। किसी किस्म की हठधर्मिता और एकरेखीय दृष्टिकोण के प्रकटन से बचाव करते हुए ‘ज्ञान की राजनीति’ भारत सम्बन्धी उपर्युक्त दृष्टि को बलाघात के साथ प्रकट करती है। यह पुस्तक एक साथ दोहरे मोर्चे पर अपनी भूमिका निभाती है: पहली, औपनिवेशिक असर और भूलों को चिह्नित करना और दूसरी, सृजनात्मक विकल्प प्रस्तुत करना। भारत एक औपनिवेशिक देश रहा है। औपनिवेशिक देशों के कई संकट रहे हैं। सबसे बड़ा संकट यह रहा है कि उसकी स्मृति को विरूपित कर दिया जाए। ऐसी पुस्तकें औपनिवेशिकता के असर वाले गहरे ॲंधेरे रास्ते में रोशनी की तरह हैं।

पुस्तक आगत और विगत दोनों को संबोधित है। काल का परिप्रेक्ष्य अपनी समग्रता के साथ यहाँ उपस्थित है। विगत आलोचनात्मक विवेक के साथ देखा गया है और आगत के सम्बन्ध में कतिपय संशय भरी आशाऍं हैं। समकालीन और प्राचीन ज्ञान-सरणि के साथ मुखामुखम होते हुए यह पुस्तक वि-उपनिवेशीकरण की योजना और आवश्यकता पर बल देती है। समकालीन और प्राचीन ज्ञान-सरणि के भी दो स्तर हैं: एक, शास्त्रोक्त ज्ञान परम्परा और दूसरा, लोक ज्ञान की परम्परा। एक जटिलता यह भी है कि भारत के सन्दर्भ में यह विभाजन उतना साफ और अलग नहीं है जितना हमें यह पश्चिम में दिखाई देता है। यहाँ हमें आवाजाही की भी एक परम्परा दिखाई देती है।

ज्ञान को लेकर ‘विष्णुपुराण’ में यह आग्रह प्रकट किया गया है कि : “सा विद्या या विमुक्तये।” विद्या वही है जो मुक्त करे। अन्य विद्याऍं मात्र कौशल या शिल्प प्रदायक हैं। लेखक का प्रयास इस पुस्तक के माध्यम से उसी मुक्ति की ओर कदम बढ़ाना है। मुक्ति का आशय यहाँ किसी गैबी सन्दर्भ में नहीं है। मुक्ति का प्रस्ताव यहाँ अपने पूर्वग्रहों, निष्कर्षों और विचारधारात्मक घेरेबन्दी से बाहर आकर साँस लेने की कोशिश के अर्थ में है। यह खुले और सहज संवाद का प्रस्ताव है। एक खुली जगह हो जहाँ सभी रंगों और झण्डों को लगाया जा सके और एक नये दृश्य को सम्भव बनाया जा सके। जेल सिर्फ भौतिक अर्थों में सम्भव नहीं होता। विचारों की कैद भी एक न दिखने वाली विस्तृत और जटिल जेल है। यह पुस्तक मुक्ति की बात इन्हीं छोटे-बड़े खानों से बाहर निकल कर सोचने के इसरार के साथ करती है। सबके अपने सच हैं। सबके अपने निकष हैं। किसी की अवहेलना या किसी को छोटा समझे बगैर यह कहना कि सबका सच महत्त्वपूर्ण है लेकिन उससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि उनके बीच संवाद हो। संवाद का यह आग्रह भारतीयता का आग्रह है। वह तत्त्व संवाद ही रहा होगा जिससे यहाँ दर्शन की कई शाखाएँ विकसित हुईं। इन सबने मिलकर दृष्टिकोण के आयाम को विस्तार दिया। उसे बहुविकल्पीय बनाया। संसार की सुन्दरता का रहस्य ऐसे भी उद्घाटित होता है कि उसे कितनी-कितनी नजरों से देखा जाए। इस पुस्तक के माध्यम से लेखक भारत की उस सुदीर्घ परम्परा को पोषित करते हैं।

पुस्तक विच्छिन्नता और एकांगिता की जगह, पूर्णता की खोज की आवश्यकता और उसकी प्रतिष्ठा का आग्रह करती है। यह आग्रह ज्ञान-विज्ञान के अब तक के हुए प्रयासों से एक जवाबतलबी है और आगे की योजना को लेकर प्रस्ताव भी। आधुनिकता प्रश्नों से परे नहीं है। उत्तर आधुनिक चिन्तन की बुनियाद ऐसे ही प्रश्नों से साकार होती है। आधुनिक चिन्तन और पश्चिमी चिन्तन की आपसी पर्यायता के रूढ़ आशय से टकराने और उसे बदलने का उद्यम हमें ‘ज्ञान की राजनीति’ में दिखाई देता है। समाज विज्ञान के शास्त्रों की रचना में कई ऐसे स्रोतों की लगभग अवहेलना है जो अनिवार्य थे। लेखक अपनी इस पुस्तक में उन स्रोतों की ओर लौटने की अपील करते हैं। इसमें भावुकता नहीं है। ज्ञान का संसार सुविधामूलक स्रोतों के चयन से नहीं बन सकता। लेकिन इसके बहुतेरे प्रयास हुए हैं। और वे युगों तक स्थापित भी रहे हैं। भारत जैसे अन्य औपनिवेशिक देशों को इसका ऐतिहासिक अनुभव रहा है। ‘ज्ञान की राजनीति’ उसकी याददिहानी करती है और ऐसे सभी प्रयासों को नकार कर एक नयी शुरूआत की तरतीब करती है।

पाठ की आन्तरिक संगति के लिए इस पुस्तक को छह अध्यायों में नियोजित किया गया है। इन अध्यायों में भारतीय दर्शन, समाज अध्ययन एवं उसके स्वरूप, भारतीय जनतन्त्र और धर्म की मुक्तिकामी परम्परा पर विचार करते हुए समाज अध्ययन के परिप्रेक्ष्य में भारतीयता को रेखांकित किया गया है। यह पुस्तक अनुशासनिक दृष्टि से समाज विज्ञान की है लेकिन इसकी साथर्कता विषयों की संकरी गली से परे है।

भारतीय अकादमिक संसार में समाज विज्ञान वर्षों से अंग्रेजी का मुखापेक्षी रहा है। भारतीय भाषाओं में भी लिखे जाने के उदाहरण मिलते ही हैं लेकिन समाज विज्ञान के लेखन की मुख्यधारा अंग्रेजी से ही बनी हुई है। एक दूसरी सूरत यह भी रही है कि अंग्रेजी में लिखित समाज विज्ञान की पुस्तकों का हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद कर दिया जाए। हिन्दी में ऐसे अनुवाद भी हुए हैं लेकिन वे सम्प्रेषण की दृष्टि से बहुत तंग रहे हैं; यहाँ तक कि उनकी उपयोगिता भी संदिग्ध रही है। यह ऐसे तथ्य हैं जिनसे अमूमन सभी परिचित हैं। ऐसे में मणीन्द्र नाथ ठाकुर का उद्यम आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का स्मरण कराता है जिन्होंने हिन्दी में ‘ज्ञानराशि के संचित कोष’ का आह्वान किया था और उसके लिए अथक प्रयास किया।

हिन्दी साहित्य के साथ-साथ अन्यान्य अनुशासनों की भाषा बने, इसके लिए हिन्दी में साहित्येतर लेखन की कितनी और कैसी आवश्यकता है; यह बताने की जरूरत नहीं है। ‘ज्ञान की राजनीति’ जैसी पुस्तक ‘ज्ञानराशि’ के उन्हीं ऊबड़-खाबड़ रास्तों को हमवार कर रही है। ऐसे प्रयासों का दायरा भाषा और ज्ञान तक सीमित नहीं है। इसका आशय विशाल हिन्दीभाषी जनता के शिक्षण से जुड़कर लोकजागरण की सीमा तक पहुंच जाता है। ज्ञान अगर सर्वसाधारण तक पहुँच पा रहा हो तो वह जनसेवा का रूप ले लेता है। इस पुस्तक के लेखक ने अपूर्वानन्द के प्रति आभार प्रकट किया है जिन्होंने लेखक को ‘हिन्दी में लिखने के लिए न केवल प्रेरित किया, बल्कि बतौर ‘आलोचना’ के सम्पादक इनके दो लेखों को प्रमुखता से छापा भी।’ कई और पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ इस पुस्तक के कई अंश संवेद और ‘सबलोग’ पत्रिका में भी छपे हैं। समाज अध्ययन और भारतीय चिन्तन के सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए पुस्तक में कई जगहों पर विचारों की आवृत्ति हुई है। यह आवृत्ति विचारों के वलय को कमजोर करती है। सामग्री की अतिशय विविधता के उपयोग के लोभ के कारण पुस्तक का केन्द्रीय विषय प्रकाशित होने की जगह ओझल होने लगता है। ऐसा लगता है जैसे बहुत सारी सामग्री इकट्ठी तो हो गयी लेकिन लेखक उनके समुचित उपयोग का प्रबन्धन नहीं कर पा रहा। अगले संस्करण में इन पक्षों को सम्पादित किया जा सकता है।

इस पुस्तक को ‘प्रिय छात्रों और शिक्षकों को समर्पित’ किया गया है। आसान भाषा में कहा जाए तो यह समर्पण ज्ञान-परम्परा को है। व्यक्तिगत को सामाजिक करने का यह विनम्र कौशल अनुकरणीय है। यह प्रथम ‘रामचन्द्र खान सामाजिक-विज्ञान पुरस्कार’ प्राप्त कृति भी है।

पुस्तक का नाम: ज्ञान की राजनीति

प्रकाशक: सेतु प्रकाशन

मूल्य: ₹ 350

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दिव्यानंद

लेखक तिलका माँझी भागलपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। सम्पर्क +918332997175, angiradevmp@gmail.com
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