फिल्म देखिए, पसन्द आए तो पैसे दीजिए!
यह कड़वा सच है कि मायानगरी मुंबई ही नहीं देश के हर कोने में रहने वाले इंडिपेंडेंट फिल्म मेकर्स की फिल्म को रिलीज करने की दुश्वारियां कई सौ नहीं हजारों हैं। इधर ऐसा ही फिर से हुआ है एक फिल्म के साथ। फिल्म का नाम है ‘अनवांटेड’ लेकिन यह देखने के नजरिये से एक वांटेड यानी जरूरी फिल्म है। इस देश में ऐसे हजारों की संख्या में लोग हैं जो कानूनन कागजों में तो मृत घोषित हैं लेकिन फिर भी इस दुनियाँ में अपने आपको जिंदा साबित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
उन जिंदा मुर्दों को मुर्दा बनाया भी तो सब जगह एक ही बात ने और वह बात है जमीन, जायदाद का लालच। कुछ समय पहले एक फिल्म आई थी ‘तुम्बाड’ जिसके शुरू होने पर थियेटर की स्क्रीन पर महात्मा गॉंधी की कही पंक्तियां नजर आती हैं। ‘इस दुनियां में इंसान की हर जरूरत पूरी करने के संसाधन हैं लेकिन उसके लालच को पूरा करने का कोई साधन नहीं।’ ठीक ऐसे ही इस फिल्म में भी गांधी की एक बात दिखाई जाती है –
“पहले वे आपको अनसुना करते हैं, फिर वे आपका मजाक उड़ाते हैं।
फिर वे आपको मारना चाहते हैं, और तब आपकी जीत होती है।”
हालांकि इस फिल्म की कहानी कोई नई नहीं है। हिंदी सिनेमा में ऐसी कहानियाँ पहले भी कई दफा कही-सुनाई, दिखाई-बताई जा चुकी है। बावजूद इसके इस फिल्म को वांटेड मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इसका ट्रीटमेंट उन सबसे जुदा है। फिल्म के अंत में जब मुर्दा जिंदा मंगल आजाद अपनी बात कहता है और संघर्ष करता है खुद को जिंदा साबित करने का तब आपकी आँखों से आँसू खुद-ब-खुद टपक पड़ते हैं।
यहाँ तक की आप अतिसंवेदनशील हृदय अपने साथ रखते हैं तो आपको मेरी ही तरह फिल्म को बीच में कुछ पलों के लिए रोकना पड़ सकता है। और जब कोई फिल्म आपको ऐसा करने पर मजबूर कर जाती है तो समझ लीजिए उसे बनाने वालों का मकसद पूरा हो गया। ऐसा सिनेमा आपको अपने साथ बहाकर ले जाता ही नहीं बल्कि कुछ समय तक के लिए शून्य में छोड़ जाता है विचार करने के लिए।
तिस पर भी ऐसी कहानियों को थियेटर या ओटीटी पर जगह न मिल पाए रिलीज करने के लिए तो आप खुद इसके दोषी हैं कि आपको ही चटक-मटक और पटक मसालों से भरपूर केवल मनोरंजन ही पसन्द है जिसके चलते ऐसी फिल्मों को बनाने का हौसला आप ही देते हैं।
फिल्म की कास्टिंग, मेकअप, गीत-संगीत, बैकग्राउंड स्कोर, कहानी, स्क्रीनप्ले, एक्टिंग सब कुछ इतना स्वाभाविक और साफ सुथरा लगता है कि आप इसकी रही-सही कमियों को नजर अंदाज करते हुए बस इसके साथ बहना पसंद करते हैं। फिल्म में सबसे उम्दा काम मंगल आजाद बने ‘नरेंद्र बिंद्रा’ का है। अपनी मासूमियत भरी एक्टिंग से वे यह साबित करते हैं कि उन्हें अवश्य ही बड़ी फिल्मों में काम दिया जाए। ‘विभा रानी’ बाला बुआ के रूप में खूब लगीं। उन्हें थियेटर का भी खासा लम्बा अनुभव है सो उनके काम में खूबसूरती पैदा करता है। राणा अभिनव, शाजिया, जय शंकर पांडेय, रवि भूषण भारतीय आदि तमाम लोग अपने काम को बस अच्छे से इस तरह करते जाते हैं कि आपकी नजरें फिल्म से हटने नहीं देते।
फिल्म के लेखक,निर्देशक, स्क्रीनप्ले लिखने वाले ऐसी फिल्मों के लिए अपना रुपया लगाकर जोखिम उठाने वाले, ऐसी फिल्मों के लिए कास्टिंग करने वाले, गीत लिखने वाले उन्हें एडिट करने वाले सभी की पीठ थपथपाई जाने योग्य है। फिल्म पसंद आए तो फिल्म के यूट्यूब लिंक में नीचे दिये गए डिटेल्स पर आप एक टिकट के जीतने रुपये तो डाल ही सकते हैं। जीतना आप सिगरेट पीने में खर्च करते हैं कम से कम उतना भी न हो सके तो ऐसी फिल्में वांटेड यानी देखने लायक तो बना ही सकते हैं दूसरों के साथ साझा करके।
यूट्यूब पर यहाँ क्लिक कर फिल्म देख सकते हैं।