आधी आबादी का सच
कहानी शुरू होती है– आदम और हौआ से। फल दोनों ने चखे, दोनों साथ स्वर्ग से निकले गये और धरती पर आकार उन्होंने मनुष्य की नस्ल को जन्म दिया। मनुष्य का अर्थ सिर्फ मर्द नहीं, औरतें भी इसमें शामिल थीं। सब कुछ आपसी सहयोग और साथ से हुआ। फिर क्या हुआ कि परिस्थितियों ने दोनों को एक दूसरे के सामने, एक दूसरे के विरुद्ध, प्रतिस्पर्धी की तरह खड़ा कर दिया? सच कहें तो प्रतिस्पर्धी तक का दर्जा स्त्रियों को नहीं दिया गया। बंदिशें, वर्जनाएं, अधिकारों का हनन, अत्याचारों का सिलसिला शुरू हो गया। ऐसा हो तो रहा था सारी दुनिया में- कहीं कम, कहीं ज्यादा, पर भारत के संदर्भ में कहानी कुछ अलग है।
ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार सिंधु घाटी सभ्यता काल में समाज मातृसत्तात्मक था। घर की मुखिया स्त्री ही हुआ करती थी। परिवार ही नहीं, समाज, धर्म, संस्कृति और अर्थ में भी वे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। यह एक शहरी सभ्यता थी, जिसमें उन्हें बराबरी का हक था। फिर आया ऋग्वैदिक काल, जिसमें प्रथम वेद–ऋग्वेद की रचना हुई थी। इस काल में कोई भी सामाजिक या धार्मिक अनुस्थान स्त्रियों के बिना सपन्न नहीं हो सकता था। शिक्षा के क्षेत्र में तो लोपामुद्रा, गार्गी, मैत्रेयी, घोषा जैसी कई महान विदुषी नारियों ने इस काल को गौरवान्वित किया। न तो पुरुषों ने उन्हें दबाने की कोशिश की और न ही स्त्रियों ने उन्हें प्रतिस्पर्धी समझा। दोनों ने ही एक दूसरे को पर्याप्त सहयोग, सम्मान और हर तरह के अधिकारों से नवाजा। इस कारण हम इसे स्वर्ण काल भी कह सकते हैं।
समस्या शुरू हुई उत्तर वैदिक काल में, जब समाज पुरुष प्रधान बन गया और पहली बार शुरू हुआ स्त्रियों के अधिकारों का हनन। स्त्रियों को घर की सीमा में कैद कर दिया गया और उन्हें सिर्फ घर के संचालन और वंश-वृद्धि के योग्य समझ गया। वे परदे में रहने को बाध्य हुईं। दहेज प्रथा शुरू हुई जो पहले सिर्फ कुछ उपहारों तक सीमित थी। शिक्षा के अधिकार से उन्हें वंचित होना पड़ा और संपत्ति पर उनका कोई हक ना रहा। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति पर प्रकाश डालते हैं। भक्तिकाल में तुलसी दस ने तो यहाँ तक कह डाला– ढोल, गंवार, शूद्र पशु नारी/ ये सब ताड़न के अधिकारी। शायद पत्नी द्वारा उपेक्षित होने की यह प्रतिक्रिया रही हो।
तुर्क-अफ़गान और मुगल काल आते-आते तो स्त्रियों की स्थिति और भी दयनीय हो गयी। खुद मुस्लिम समाज में स्त्रियों की स्थिति बहुत खराब थी। अँग्रेजों ने तो पूरे भारत का दोहन किया तो वे भला स्त्रियों की स्थिति के बारे में क्यों सोचते? गिने- चुने राजसी घरानों की स्त्रियों को ही शिक्षित होने का मौका मिला। स्त्रियों की सुरक्षा के नाम पर पर्दा प्रथा और बढ़ गयी।
जब भारत स्वतन्त्र हुआ और उसका संविधान बना, तो स्त्रियों को हर तरह से समानता का दर्जा दिया गया, पर यह तो सिर्फ कानून की बात थी, वास्तविकता कुछ और ही थी। हाँ, यह जरूर हुआ कि अब स्त्रियों ने सवाल पूछने शुरू किये और अधिकारों के लिये संघर्ष करना शुरू किया जो आज तक चल रहा है।
जहाँ तक वोट देने के अधिकार का प्रश्न है, 1893 में न्यूजीलैंड पहला देश था जहाँ महिलाओं को संसदीय चुनाव में मतदान का अधिकार मिला। विश्व में यह प्रथम घटना थी। 1905 की रूसी क्रांति के बाद, रूस द्वारा शासित एक स्वायत्त राज्य ग्रैन्ड डची ऑफ फिनलैंड में स्त्रियों को वोट देने और संसद के लिये खड़े होने का अधिकार मिला। ऐसा करने वाला यह यूरोप का पहला देश हुआ। 1928 में इंगलैंड में पहली बार महिलाओं को पुरुषों के समान मताधिकार मिले। फ्रांस में 1944 में महिलाओं को मताधिकार मिला।अमेरिका में 4 जून 1919 में महिलाओं को मताधिकार संबंधी विधेयक अमरीकी काँग्रेस द्वारा पारित हुआ। खास बात यह थी कि ये अधिकार उन्हें यूं ही नहीं मिले, बल्कि सदियों के संघर्ष का यह परिणाम था।
यही संघर्ष भारत में भी चल रहा था, भारतीय स्त्रियों ने भी आन्दोलन किया। 1919 और 1929 के बीच सभी ब्रिटिश प्रांतों के साथ-साथ अधिकांश रियासतों ने महिलाओं को मताधिकार दिये और कुछ मामलों में स्थानीय चुनावों में खड़े होने की इजाजत भी दी। यह महिलाओं की जीत थी।1919 में मद्रास शहर में, 1920 में त्रावणकोर राज्य, झालावाड़ राज्य और ब्रिटिश प्रांतों में, 1921 में मद्रास और बंबई प्रेसिडेंसी में, 1923 में राजकोट राज्य में पूर्ण सार्वभौमिक मताधिकार भारतीय महिलाओं को मिला।
गाँधी जी हर आन्दोलन में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने, स्त्रियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्हें चरखा चलाना सीखाने, शिक्षा हासिल करने और नौकरी करके आत्मनिर्भर होने के भी पक्षधर थे। गाँधी इरविन समझौते में भी महिलाओं ने शामिल होने की इच्छा व्यक्त की और उसी वर्ष आयोजित दूसरे गोलमेज सम्मेलन में महिला भारतीय संघ, भारतीय राष्ट्रीय महिला परिषद और अखिल भारतीय महिला सम्मेलन के मताधिकारवादियों ने पूर्ण वयस्क मताधिकार की माँग की।
मुथुलक्ष्मी रेड्डी 1927 में मद्रास विधान परिषद में ब्रिटिश प्रांतों की पहली महिला विधायक बनीं। इसी वर्ष अखिल भारतीय महिला सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें इस बात पर बल दिया गया कि शिक्षा में सुधार सामाजिक रीति रिवाज में संशोधन पर निर्भर करता है। महिलाओं को 1927 में मध्य प्रांतों में और 1929 में बिहार और उड़ीसा में मताधिकार प्राप्त हुआ। हालाँकि संपत्ति की योग्यता के कारण देश में एक प्रतिशत से भी कम महिलाएं मतदान करने में सक्षम थीं।
1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में हजारों महिलाओं ने नमक कानून के उल्लंघन में भाग लिया। पुरुषों की गिरफ्तारी के बावजूद महिलाओं ने नमक तैयार करना और बिक्री जारी रखी। इनमें अनुसूया बेन, पेरिन नौरोजी, कमला देवी चट्टोपाध्याय, हंसा मेहता, शारदा मेहता सरला देवी साराभाई आदि मुख्य थीं। महिलाओं ने दैनिक परिषदों का आयोजन शुरू कर दिया। राष्ट्रवादी आन्दोलन ने महिलाओं को सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश की अनुमति दी लेकिन आमतौर पर उनके जीवन की असमानता को बदला नहीं जा सका। अलबत्ता 1946 में भारत की संविधान सभा में 15 महिलाओं को सीटें मिलीं। संघर्ष अब भी जारी था और पूर्णिमा बनर्जी, कमला चौधरी, मालती चौधरी, दुर्गाबाई देशमुख, सुचेता कृपलानी, हंसा मेहता, बेगम एजाज रसूल, रेणुका रे, लीला रॉय, अम्मू स्वामीनाथन, दक्षायनी वेलायुधन, राजकुमारी अमृत कौर,सरोजिनी नायडू, मीरा बेन, उषा मेहता, अरुणा आसफ अली, कल्पना दत्ता आदि ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के साथ-साथ नारी आन्दोलन में सक्रिय और महत्वपूर्ण योगदान दिया। कहने का का अर्थ यह है कि स्वतन्त्रता आन्दोलन के हर मोड़ पर महिलाओं ने सक्रिय भूमिका निभाई।
साहित्यकारों ने भी अपनी रचनाओं द्वारा स्त्री-विमर्श को आगे बढ़ाने में अनमोल योगदान दिया। उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा नारी जीवन की अनेक समस्याओं का चित्रण किया। हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श का जन्म छायावाद काल से माना जाता है। महादेवी वर्मा की ‘श्रृंखला की कड़ियां’ नारी सशक्तिकरण का अनुपम उदाहरण है। इसमें नारी जागरण एवं मुक्ति का सवाल उठाया गया है। उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती, अमृता प्रीतम, मन्नू भंडारी एवं शिवानी ने नारी मन की छिपी शक्तियों को उजागर किया। महाश्वेता देवी की लेखनी ने भी नारी की अस्मिता और आंतरिक शक्तियों को सामने लाया। प्रेमचंद से लेकर राजेंद्र यादव तक अनेक पुरुष लेखकों ने भी नारी की समस्याओं का जिक्र किया लेकिन स्वयं लेखिकाओं ने जैसा चित्रण किया वह नारी की व्यक्तिगत संवेदनाओं से ज्यादा निकट था, ज्यादा जीवंत था। सुशीला टाकभौंरे के काव्य संग्रह- ‘स्वाति बूंद’, ‘खारे मोती’, ‘यह तुम भी जानो’, ‘विद्रोहिणी’ आदि में आक्रोश सहज ही दिखाई पड़ता है।
आठवें दशक तक साहित्य की इस आवाज ने आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। इस समय की महिला लेखिकाओं में कुछ महत्वपूर्ण नाम हैं- ममता कालिया, कृष्णा अग्निहोत्री, चित्रा मुद्गल, मणिक मोहिनी, मृदुला गर्ग, मृदुला सिन्हा, मंजुला भगत, मैत्रेयी पुष्पा, मृणाल पांडे, नासिरा शर्मा, दीप्ति खंडेलवाल, कुसुम अंचल, इंदु जैन, सुनीता जैन, प्रभा खेतान, सुधा अरोड़ा, क्षमा शर्मा, अर्चना वर्मा, नमिता सिंह, अलका सरावगी, जया जादवानी, रमणिका गुप्ता आदि। इन लेखिकाओं ने बड़ी गंभीरता से नारी मन की गहराइयों, अंतरद्वन्द्वों तथा उनकी समस्याओं का चित्रण किया है जो मन को, जीवन को निकट से छू जाता है।
महिला वैज्ञानिकों ने भी विज्ञान के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया। इसरो द्वारा भेजे गए चंद्रयानों तक में महिला वैज्ञानिकों की भूमिका उल्लेखनीय रही। सुनीता विलियम्स और कल्पना चावला ने अंतरिक्ष जगत में इतिहास रचा। सरला ठकराल विमान उड़ाने वाली भारत की पहली महिला थीं। उन्होंने साड़ी पहनकर विमान उड़ाया था। फ्लाइंग स्कूल में उनका दाखिला उनके श्वसुर ने स्वयं कराया था। धन्य हैं सरला ठकराल एवं धन्य है उनके श्वसुर, जिन्होंने उस जमाने में अपनी बहू को यह अवसर दिया जब कोई ऐसा सोच भी नहीं सकता था।
हर क्षेत्र में अनुपम योगदान, महत्वपूर्ण भूमिका और सक्रिय भागीदारी के बावजूद स्त्रियों का संघर्ष अब भी जारी है। हालाँकि भारत सरकार ने महिलाओं को कई अधिकार दिये हैं। संविधान में साफ-साफ लिखा है कि लिंग के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव गलत है। लैंगिक समानता के साथ नौकरियों में पुरुषों के बराबर हिस्सेदारी, गरिमा और शालीनता के साथ जीने का अधिकार,, दफ्तर में उत्पीड़न से सुरक्षा, संपत्ति में बराबरी का अधिकार आदि भी मिले। अब स्कूलों में केवल माता का हस्ताक्षर भी मान्य होगा। घरेलू हिंसा के खिलाफ अधिकार, समान पारिश्रमिक का अधिकार, पहचान जाहिर नहीं करने का अधिकार (खासकर यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों में), मुफ्त कानूनी मदद का अधिकार (खासकर बलात्कार की शिकार महिला के संदर्भ में), यौन उत्पीड़न के खिलाफ सुरक्षा, बलात्कार या और कोई अनहोनी हो जाए तो जीरो एफ आई आर किसी भी थाने में दर्ज करने का प्रावधान, सार्वजनिक पद धारण करने की आजादी, पारिवारिक कानून में बराबर हक, काम करने की आजादी, प्रजनन अधिकारों की स्वतन्त्रता, शिक्षा प्राप्ति का अधिकार, रात में गिरफ्तारी से आजादी, वर्चुअल शिकायत दर्ज करने का अधिकार, महिलाओं से अशोभनीय भाषा के प्रयोग का निषेध, उनका पीछा करने का निषेध आदि अधिकार महिलाओं को मिले।
कागज पर दिये गये अधिकार लोगों की मानसिकता को नहीं बदल पाये हैं। शिक्षा के क्षेत्र में तो महिलाएं पुरुषों से बेहतर साबित हो रही हैं फिर भी उन्हें विरोध, अत्याचार और क्या नहीं सहना पड़ता। इतने सारे कानूनों के बावजूद घरेलू हिंसा आज सबसे अधिक होती है। दहेज प्रथा पर व्याख्यान देने वाले लोग स्वयं सबसे अधिक दहेज लेते दिखाई पड़ते हैं। हां, बात को गुप्त रखने के लिए दहेज व्यक्तिगत तौर पर पहले ही ले लिया जाता है। यौन उत्पीड़न, बलात्कार आज भी होते हैं। वाणी मूक हो जाती है यह बताते हुए कि कुछ महीनों, दो या चार साल की बच्चियों के साथ भी बलात्कार होते हैं। ऐसा व्यक्ति शिक्षित हो या अशिक्षित कोई फर्क नहीं पड़ता। यह कैसी शिक्षा है जो डिग्री तो देती है लेकिन दिमाग, चरित्र और सोच को नहीं बदल सकती। कई बार तो शिक्षा देने वाले ही ऐसा करते पाए जाते हैं। दहेज हत्याएं आज भी होती हैं। प्रतिशत में थोड़ी कमी जरूर आई है पर भारत जैसे विशाल देश को देखते हुए यह बहुत कम है। स्कूलों से नैतिक शिक्षा हटा दी गई है, व्यस्त माता-पिता को समय नहीं कि वह अपने बच्चों को इसकी शिक्षा दे सकें। परिवार के बुजुर्ग स्वयं अपेक्षित हैं इसलिए उनका भी सहयोग नहीं मिलता। अधिकांश बलात्कारों में तो परिवार का ही कोई संबंधी शामिल पाया जाता है। कोर्ट कचहरी की तो बात ही छोड़िए बदनामी के डर से अधिकांश मामलों में थाने में एफ आई आर तक नहीं होता। तेजाब फेंकने की घटनाएं भी हो ही जाती हैं। भारतीय कुश्ती संघ की महिला खिलाड़ी अब भी न्याय का इंतजार कर रही हैं।
यहां तक कि उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाने वाली छात्राओं के अपहरण और हत्या तक की घटनाएं आए दिन होती हैं। अभी जून 2024 में ही संयुक्त राज्य अमेरिका में यह हो चुका है। युवती अभी भी लापता है।
शादियों में भी लड़की सर्वगुण संपन्न चाहिए चाहे वर को कुछ भी आता हो या नहीं। वधू पक्ष दहेज भी दे, लड़की बहुत सुंदर भी हो, घर के कामकाज में निपुण भी हो और नौकरीशुदा भी हो जो हर माह पैसे कमा कर परिवार को दे यानी दसभुजी हो। अब आप ही बताइए कि क्या रावण को सीता मिलनी चाहिए? कोई यह तो पूछे कि आधी आबादी होने के बावजूद भारतीय संसद में महिलाओं को 33% आरक्षण अब तक मिला क्यों नहीं? अगली जनगणना तक इसे टाल क्यों दिया गया?
स्त्रियाँ अभी भी संघर्षरत हैं और संघर्ष के पश्चात सफलता के सोपान पर भी चढ़ रही हैं, लेकिन उन्हें भी स्वतन्त्रता और स्वछन्दता में संतुलन रखना होगा। ‘वूमंस लिब’ हो या ‘लिव इन’, पश्चिम से अब यह भारत में भी प्रचलित होता जा रहा है। शादीशुदा जोड़े बच्चे नहीं चाहते अब। सच तो यह है कि यह हमारी सभ्यता संस्कृति के खिलाफ है। यह न तो महिलाओं के हित में है न समाज के ही हित में। सिर्फ नकल करके हम आगे नहीं पहुँच सकते। बच्चे ही नहीं होंगे तो परिवार कहां से बनेगा जो किसी भी व्यवस्था की इकाई है। समलैंगिकता को तो सरकारों ने कई देशों में मान्य कर दिया है। भला कल्पना कीजिए कि यदि यह आम हुआ तो परिवार व्यवस्था का क्या होगा? यह सिर्फ बिखराव ला देगा।
दरअसल स्त्रियों का संघर्ष स्वयं की स्वतन्त्रता और स्वयं को आगे बढ़ाने के लिए है किसी के भी खिलाफ नहीं। पुरुष भी आगे ही बढ़ना चाहते हैं। फिर प्रतिद्वंद्विता कैसी? आगे का रास्ता आपसी सहयोग से ही संभव है जहां दोनों का विकास हो। जो भी परिवर्तन अब तक हुए हैं या जो भी उपलब्धियां स्त्रियों ने हासिल की हैं, किसी ने उपहार में नहीं दिये। उन्होंने अपने बल पर इन्हें हासिल किया है और आगे भी करेंगीं।उत्तर पूर्व राज्यों में आजतक समाज मातृसत्तात्मक ही है। स्त्रियाँ सारी पारिवारिक और आर्थिक जिम्मेवारियाँ संभालती हैं।
यह उल्लेखनीय है कि अधिकारों के लिए संघर्ष में नारियों ने कभी भी अपने पारिवारिक दायित्वों, बच्चों के लालन पालन या सामाजिक दायित्वों से मुँह नहीं मोड़ा है। यह उचित भी है कि नारी जिन नैसर्गिक और विशिष्ट गुणों को लेकर इस दुनिया में आई, उन गुणों को बनाए रखते हुए उसे आगे बढ़ाना है और सारे आसमान पर छा जाना है।
जब तक सकारात्मक भाव से सबको साथ लेकर स्त्रियाँ अपनी प्रतिभा को बढ़ाती रहेंगीं तब तक उनका रास्ता रोकने का साहस किसी में नहीं होगा। पुरुष समाज का भी उद्देश्य यही होना चाहिए। जिस दिन ऐसा हो जाएगा उस दिन विरोध, नकारात्मकता, एक दूसरे को दबाना जैसी चीजों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और सभी कम से कदम मिलाकर सिर उठाकर उन्नति के रास्ते पर चल पड़ेंगे। अच्छी चीज सबके लिए अच्छी और बुरी चीज सबके लिए बुरी होती है। तो फिर हम इस झमेले में न पड़कर शाश्वत ऊंचाइयों की ओर क्यों ना बढ़ें! इसके लिए कानून से ज्यादा सही मानसिकता की जरूरत है। मिलजुल कर आपसी सहयोग और सामंजस्य से आगे बढ़ना ही श्रेयस्कर है। काश ऐसा हो पाता!