रंगमंच पर मंडराती ख़ौफ़ की परछाइयाँ
- राजेश कुमार
मंडी हाउस के आस-पास के इलाकों में चेहरे पर लगाये मास्क को देखकर अगर आपको रंगमंच की दुनिया में ख़ौफ़ की परछाइयाँ पसरती हुई दिख रही हैं तो माफ कीजियेगा मेरा मकसद कोरोना वायरस की तरफ इशारा करना हरगिज नहीं है। कोरोना वायरस तो एक रोग का नाम है जिसके कुछ खास सिम्टम्स होते हैं। अगर थोड़ी एहतियात बरती जाय या जो वाजिब दवाएं हैं, ले ली जाय तो मुमकिन है रोग काबू में आ जाय। और संभवतः हो भी रहा है। लेकिन संस्कृति की दुनिया में जो वायरस आया है, रंगमंच के बीच इनदिनों फैला हुआ है, काफी खतरनाक साबित होने वाला है। राजनीति में तो ये कुछ साल पहले आ गया था लेकिन रंगमंच में इसके सिम्टम्स कुछ दिनों से दिखने शुरू हो गये हैं। हो सकता हो, ये सिम्टम्स और पहले से हो लेकिन अब तो खुलकर सामने आ गये हैं। एक उदाहरण की तरफ आपका ध्यान आकृष्ट कराना चाहूंगा। शायद इससे बात कुछ स्पष्ट हो जाय।
कर्नाटक राज्य के बीदर जिले में 2020 के जनवरी महीने में नागरिकता कानून के विरोध में शाहीन प्राथमिक स्कूल में एक नाटक का मंचन किया गया। स्थानीय पत्रकार मोहम्मद यूसुफ रहमान द्वारा नाटक की वीडियो सोशल मीडिया पर डालने पर एबीवीपी से जुड़े नीलेश रक्षयाल नाम के एक युवक ने 26 जनवरी 20 को पुलिस में स्कूल प्रशासन के खिलाफ मामला दर्ज करवाया। उसका कहना था कि नाटक मंचन के दौरान दो समुदायों के बीच नफरत और सरकार के खिलाफ भड़काऊ बोल बोले गये। पुलिस ने शिकायत पर कार्रवाई करते हुए राजद्रोह का केस दर्ज कर स्कूल से जुड़े कई लोगों को गिरफ्तार कर लिया। इस सिलसिले में नाटक में शामिल छोटे बच्चों को बार-बार थाने में बुलाकर पुलिसिया पूछताछ की गई, जिसके बाद राज्य की भाजपा सरकार के खिलाफ देश भर के लोगों ने अपना आक्रोश व्यक्त किया था। जगह-जगह धरना, प्रदर्शन भी हुए थे।
नक्सलबाड़ी आन्दोलन और नुक्कड़ नाटक – राजेश कुमार
अन्ततः जिला अदालत ने सुनवाई करते हुए कहा कि नाटक में जो संवाद बोले गये थे, वे राजद्रोह के दायरे में नहीं आते। नागरिकता कानून के समर्थन और विरोध में देश भर में रैलियाँ हो रही हैं और इस दौरान सरकार विरोधी नारे भी लगाए जा रहे हैं। कोर्ट ने दलील देते हुए कहा कि शांतिपूर्ण विरोध का अधिकार भारत के हर नागरिक को है। अगर नाटक को फेसबुक पर अपलोड नहीं किया जाता तो लोगों को संवाद के बारे में पता ही नहीं चलता।
दलित रंगमंच का आदर्श वर्णवादी-व्यवस्था नहीं – राजेश कुमार
नाटक को अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर शेयर करनेवाले स्थानीय पत्रकार मोहम्मद यूसुफ रहीम को भी अदालत ने जमानत दे दी। कोर्ट ने यह भी माना कि नाटक के मंचन के दौरान बच्चों का देश छोड़ने की बात करना राजद्रोह नहीं हो सकता।
अदालत ने भले इस मंचन को राजद्रोह के घेरे से अलग किया लेकिन प्रशासन का जो रवैया रहा, वो विचारणीय है। स्कूल के जिन दो महिलाओं को जेल में रखा गया और जिस तरह उन पर और नाटक में अभिनय करनेवाले छोटे-छोटे बच्चों के साथ मानसिक उत्पीड़न किया गया वो स्पष्ट संकेत दे रहा था कि सत्ता किस हद तक अमानवीय, निरंकुश हो सकती है। बल्कि चेतावनी देती है कि विरोध में खड़े होने वाले किसी भी सांस्कृतिक आन्दोलन के साथ भविष्य में किस तरह का व्यवहार किया जाएगा। दमन के लिए उन्होंने वहीं हथियार थामा है जो कभी अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़े लोगों के विरुद्ध आजमाया था। जब से वर्तमान सरकार सत्ता पर आसीन हुई है, किसी भी आन्दोलन-राजनीतिक लड़ाई-संघर्ष को कुचलने के लिए सेडिशन यानी राजद्रोह का आरोप लगाने में चुकी नहीं है। आज देश भर में सैकड़ों लोग इस आरोप के कारण जेल के पीछे हैं। अब इसका इस्तेमाल केवल राजनीतिक क्षेत्रों में ही नहीं, संस्कृति के क्षेत्र में भी खूब होने लगा है।
नागरिकता कानून के विरोध में पिछले कुछ महीनों से दिल्ली के शाहीन बाग, लखनऊ के घंटाघर, उजरियाव जैसे सैकड़ों की संख्या में महिलाओं द्वारा जो निरन्तर धरना-प्रदर्शन हो रहे हैं, उनमें राजनीतिक सवाल तो उठाये ही जा रहे है, संस्कृति के मुद्दे भी प्रमुख रहे हैं। जाड़े की कपकपा देनेवाली ठंडक हो या घनघोर बारिश, आंधी-तूफान, आन्दोलनरत महिलाओं के जोश, हिम्मत में रत्ती भर भी कमी नहीं आई। डटी रही और आज भी डटी हुई हैं। कहीं न कहीं इस लड़ाई में संस्कृति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। अगर इन धरना स्थलों पर राजनीतिक लोग जाकर नागरिकता कानून के बारे में सूक्ष्म, विश्लेषणात्मक उदगार रख रहे हैं तो सांस्कृतिक टोलियाँ के आने-जाने का भी तांता लगा हुआ है। फ़ैज़, हबीब जालिब, बिस्मिल, गोरख पांडेय के इंकलाबी तराना गाये जा रहे हैं, पेंटिंग प्रदशनी लगाए जा रहे हैं। कवि, शायर अपनी कविता-नज्म सुना रहे हैं।
हाशिये के समाज का रंगमंच
दिल्ली में अस्मिता थिएटर ग्रुप के कलाकार लगातार नुक्कड़ नाटक कर रहे हैं। और संस्कृति के क्षेत्र में ऐसी पहल केवल दिल्ली में ही नहीं, पूरे देशभर में हो रही है। लखनऊ, पटना, इलाहाबाद, दरभंगा जैसे शहरों से लगातार ऐसी खबर आ रही है कि नाटक से जुड़े रंगकर्मी मंच से उतरकर नुक्कड़-चौराहों पर आ गये हैं। वे अपने नाटकों में केवल नागरिकता कानून के सवाल को ही नहीं रख रहे हैं, बल्कि सत्ता का साम्प्रदायिक-सामंती-पूंजीवादी चेहरा भी बेबाक ढंग से ला रहे हैं। रोजगार दिलाने के बजाय वर्तमान सरकार जनता को कैसे अंधराष्ट्रवाद, धार्मिक कट्टरता और कूप मंडूकता में ढकेलती है, दर्शकों को इस सच्चाई से अवगत कराना ही टारगेट रहता है। कुछ इसी तरह का नज़ारा आपातकाल के दिनों में भी देखने को मिला था। इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिए, कानून और संविधान को धता बताकर देश में जो जबरन इमरजेंसी थोपी थी, उसके विरोध में लेखकों, रंगकर्मियों की एक बड़ी संख्या नुक्कड़ों पर उतर गयी थी। संस्कृति के हर मोर्चे से निरंकुश सत्ता को चुनौती दी गयी थी।
आज देश जिस दौर से गुजर रहा है, वो उस आपातकाल से कम नहीं है। कहने को कागज पर इमरजेंसी जैसी कोई चीज नहीं है लेकिन व्यवहार में उससे रत्ती भर कम नहीं है। जैसे एक अघोषित इमरजेंसी लागू है। लोग इतने दहशत में हैं कि फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर कुछ लिखने की बात तो दूर की है, किसी पोस्ट को लाइक करने में भी डरते हैं। इतने डरे हुए हैं कि कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं करते हैं। वही हाल रंगमंच का है। जैसे प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया कॉर्पोरेट के हाथ में है और वो वही करती है जैसा सत्ता का इशारा होता है, उसी तरह वर्तमान में रंगमंच की जो मुख्यधारा है, वो सत्ता के साथ ही चलता है। पहले रंगमंच का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता था, सत्ता का सीधा दखल नहीं होता था। अभी जितने भी नाट्य अकादमी या नाट्य संस्थान हैं, सब पर सत्ता का सीधा नियंत्रण है।
दलित रंगमंच उर्फ बर्रे के छत्ते पर ढेला
यही नहीं इसके अलावे देश भर में जितनी भी रंग मंडलियाँ हैं, जिस-जिस को सरकार द्वारा ग्रांट्स मिल रहे हैं, वो सत्ता द्वारा सीधे संचालित हो रहे हैं। सरकार के दिये गये एजेंडे को रंगमंच के बहाने पूरा करने की उनकी मजबूरी होती है। जितने भी सरकारी संस्थान हैं, सब के ऊपर सरकार ने पार्टी के लोगों को बिठा रखा हैं। कहने को भले वे कहते हो कि संस्कार भारती किसी राजनीतिक दल से सम्बद्ध नहीं है, लेकिन हकीकत ये है कि इन सांस्कृतिक संघटनों के द्वारा पार्टी लाइन को ही अमलीजामा पहनाया जाता है। भले दूसरे राजनीतिक दलों की कोई सांस्कृतिक नीति न हो, लेकिन जो सरकार अभी सत्ता में है, उसकी अपनी स्पष्ट सांस्कृतिक नीति है। वे संस्कार भारती के माध्यम से हिदुत्व के एजेंडे को सामने लाकर लोगों का ध्रुवीकरण करने के प्रयास में हैं ताकि चुनाव के मौसम में वोट की अच्छी फसल उगायी जा सके। सरकार ने जहाँ एक तरफ नागरिकता कानून के विरोध में किये गये मंचन पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगाकर दमन करने का प्रयास किया, वहीं दूसरी तरफ इसके पक्ष में लोगों को खड़ा करने के लिए संस्कार भारती और अपने मातहत कार्य करनेवाले सरकारी, अर्द्ध सरकारी व पोषित रंगमण्डलियों को निर्देश दिया है कि इस विषय पर नाटक बनाए।
हिंदी रंगमंच में फुले-अम्बेडकरवादी विचारधारा का प्रभाव
इसके ज्यादा से ज्यादा मंचन किये जाए ताकि शाहीनबाग जैसे धरना स्थल से उठते सवालों का सरकारी जवाब दिया जा सके। इस दिशा में एक प्रयास और हो रहा है, संघ की मानसिकता वाले जो नाटककार हैं, जगह-जगह उनके नाटकों के महोत्सव आयोजित किये जा रहे हैं। ढूंढ-ढूंढकर ऐसे नाट्य निर्देशकों को लाया जा रहा है जो उनकी विचारधारा के हो या जिनके अंदर पार्टी की विचारधारा को संस्कृति के क्षेत्र में ले जाने का जज्बा हो। ऐसे लोगों को भरपूर सरकारी सहयोग दिया जा रहा है, समुचित जगहों पर स्थापित किया जा रहा है। इसके विपरीत जो भी कोई ऐसा नाटक करने का प्रयास करता है जो सत्ता की नीतियों के विरोध में होता है, हर तरीके से उसका मनोबल तोड़ने की कोशिश की जाती है। पिछले साल नवंबर महीने के 17 और 18 को स्पिक मैके और एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इण्डिया द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित कर्नाटक संगीत के सुप्रसिद्ध गायक टी एम कृष्णा का कॉन्सर्ट निरस्त करवा दिया गया था। मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित टी एम कृष्णा के कार्यक्रम को निरस्त करने के लिए आयोजनकर्ताओं पर दक्षिणपंथियों का काफी दवाब पड़ा था। बीजेपी के प्रवक्ता विवेक रेड्डी का कहना था कि ‘कृष्णा ने कर्नाटक संगीत में जीसस और अल्लाह का समावेश कर बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को चोट पहुँचाया है।’
अभी जिस तरह का माहौल बन गया है, उसमें प्रतिबन्ध का हथियार केवल प्रशासन नहीं भांज रही है, बल्कि पार्टी की जितनी शाखाएं हैं, खुद निर्णय सुनाने की स्थिति में आ गयी हैं। किसी को अगर जरा भी भनक लग जाती है कि यह नाटक सत्ता के पक्ष में नहीं है या इसमें सत्ता की आलोचना की गई है तो उनके एक इशारे पर नाटक रुकजाता है। प्रशासन और पुलिस हर कदम पर इनके साथ खड़ी दिखाई देती है। पिछले दिनों शाहजहाँपुर में इस तरह के कई उदाहरण देखने को मिले। कोरोनेशन थिएटर द्वारा मंचित होनेवाला नाटक ‘गाय’ का मंचन घंटे भर पूर्व एक संघी कार्यकर्ता के दवाब पर प्रशासन ने धार्मिक भावनाओं को आहत पहुँचाने के नाम पर रुकवा दिया। गांधी हॉल को पुलिस ने चारों तरफ से घेर लिया था। पार्टी की मनमानी का ये हाल था कि उसके कुछ ही दिनों बाद नाटककार इंदिरा परसार्थी का चर्चित नाटक ‘औरंगजेब’ के मंचन को भी इसलिए रोक दिया गया कि मुस्लिम नाम वाले नाटक के मंचन से शहर के लॉ एंड आर्डर के बिगड़ने का खतरा है।
हिन्दी रंगमंच व सिनेमा में समलैंगिकता के मुद्दे – अनिल शर्मा
सत्ता और उनके पोषित राजनीतिक संगठनों का संस्कृति के क्षेत्र में दखल का स्थानीय रंगकर्मियों पर ये प्रभाव देखने को मिला कि जो संस्थाएं नाटकों के माध्यम से दर्शकों के बीच चेतना जगाने का काम करती थी, अब बचने लगी। राजनीतिक विषयों पर नाटक करने के अपेक्षा हास्य, हल्के-फुल्के नाटक करने लगी। कुछ संस्थाओं ने तो अपने अस्तित्व के लिए पार्टी के लोगों को ही अपना संरक्षक बना लिया। मुख्य व विशिष्ट अतिथि रूप में आमंत्रित कर लिया। ऐसा इसलिए नही कि इनके आने से मंचन को गौरव प्राप्त हो जाएगा। बल्कि इनकी विवशता भी थी। इन पर ख़ौफ़ की परछाइयाँ साफ दिख रही थी। फासीवाद किस हद तक संस्कृति के क्षेत्र में दाखिल हो चुका है, इसे देखना हो तो महानगर से लेकर छोटे शहरों-कस्बों में इनदिनों होनेवाले नाटकों को देखें तो अंदाजा लग जायेगा।
पहले जहाँ नाटकों में मजदूर-किसान-बेरोजगार नौजवान की लड़ाई, उनका आन्दोलन व संघर्ष दिखता था, अब अचानक मंच से गायब हो गया है। उनके स्थान पर या तो मिथकीय चरित्र आ गया है या इतिहास का वो पन्ना जिसमें राष्ट्रवाद उबाल मार रहा हो। सत्ता के फासीवादी रवैये का प्रभाव केवल सामान्य रंगकर्मियों पर ही नहीं पड़ा है, प्रगतिशील व प्रतिबद्ध रंगकर्मियों पर भी पड़ा है। जिनके नाटकों में कभी सत्ता के साम्प्रदायिक कदमों के पर्दाफाश होता था, अंधविश्वास-धार्मिक कट्टरता पर प्रहार किया जाता था, अब वो शिथिल से दिखता है। या ऐसे लोगों का टोन थोड़ा बदला हुआ महसूस होने लगा है। कुछ रंगकर्मी जो अपनी प्रगतिशील छवि बरकरार रखना चाहते हैं और अपनी महत्वकांक्षा के लिए सत्ता को भी नाराज नहीं करना चाहते हैं, उन्होंने बहुत चालाकी से बीच का रास्ता निकाल लिया है। वे देश के सामाजिक यथार्थ से टकराने के बजाय देशी-विदेशी क्लासिक नाटकों के मंचन से दर्शकों को समसामयिकता का बोध कराने का प्रयास कर रहे हैं।
कोलकाता की हिन्दी रंग-मंडलियाँ
पिछले दिनों भारतेन्दु नाट्य अकादमी में संगीत नाटक अकादमी से सम्मानित एक प्रगतिशील नाट्य निर्देशक की ब्रेष्ट के नाटक ‘खड़िया का घेरा’ का छात्र प्रस्तुति का कई दिनों तक लगातार मंचन हुआ। ब्रेष्ट के नाटकों में कोरस की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कोरस के गायक अपने गायन से केवल नाटक की कहानी को ही विस्तार नहीं देते हैं, बल्कि प्रदर्शन के दौरान बार-बार दर्शकों को चेतना के स्तर पर सचेत भी करते रहते हैं। वे दर्शकों को भावनाओं में बहाने के बजाय, तटस्थ रखते हुए उनके अंदर समाज के प्रति विश्लेषणात्मक क्षमता को जगाने पर ज्यादा जोर देते हैं। लेकिन सत्ता के ख़ौफ़ की जो परछाइयाँ है वो कहीं न कहीं मंच पर दिख ही जाता है जब निर्देशक सत्ता के सम्मुख हथियार डाल देता है। इस प्रस्तुति में निर्देशक महोदय ने कोरस के सारे गायकों को भगवा कपड़े पहना कर, माथे पर लाल टीका लगवा कर ऐसे बैठा दिया था कि जैसे कोई धार्मिक कथा सुनाने जा रहे हो। चाहे सत्ता के खौफ के कारण किया हो या खुशामदी में, नाटक का जो असर देखने वालों के बीच होना चाहिए, उसका कहीं न कहीं क्षरण स्पष्ट दिख रहा था। जिन सवालों को ब्रेष्ट ने उस नाटक में उठाया है, सत्ता के खिलाफ क्रांति करने का आह्वान किया है, यह प्रस्तुति कहीं से भी दर्शकों को उद्वेलित कर पाने में सफल नहीं हो पा रही थी।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सभी रंगकर्मियों ने सत्ता के सम्मुख घुटने टेक दिए हो। आज हमारे बीच रंगकर्मियों की एक लंबी कतार है जो सत्ता के फासीवाद से नहीं डरते। उनके मंचनों पर सत्ता के खौफ की कोई परछाइयाँ नहीं है। महाराष्ट्र में चाहे कबीर कला मंच के लोग हो या संभाजी भगत, जब वे हॉल में गाते हो या खुले मैदान में, सत्ता के साम्प्रदायिक चेहरे, मजदूर-किसान-आदिवासी विरोधी नीतियों के परखचे उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। उन पर अर्बन नक्सल जैसे आरोप जड़ कर भले जेल में डाल दे, वे अपने रास्ते से पीछे नहीं हट रहे हैं। दिल्ली में यही काम ‘अस्मिता’, ‘संगवारी’, ‘निशांत’ और बिहार में ‘ हिरावल’, ‘दस्तक’, ‘युवानीति’ जैसी छोटे-बड़े सैकड़ों संस्थाएं आज नुक्कड़ों, चौराहों, खेत-खलिहानों, जंगलों में लगातार कर रही है। ब्रेष्ट और दारिया फो ने जिस तरह फासीवाद के खिलाफ थिएटर को हथियार बनाया, उसी तरह आज जो प्रतिरोध का रंगमंच कर रहे हैं, उन्हें अपने नाटकों को जनता के बीच ले जाकर सीधा संवाद करने की जरूरत है। संभवतः प्रतिरोध की धार से ही रंगमंच पर मंडराती ख़ौफ़ की परछाइयाँ खत्म की जा सकती है।
लेखक धारा के विरुद्ध चलकर भारतीय रंगमंच को संघर्ष के मोर्चे पर लाने वाले अभिनेता,निर्देशक और नाटककार जो हाशिये के लोगों के पुरजोर समर्थक हैं|
सम्पर्क- +919453737307 rajeshkr1101@gmail.com