नाटकपश्चिम बंगाल

कोलकाता की हिन्दी रंग-मंडलियाँ

            

  • अनिल शर्मा

 

उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में कोलकाता में पारसी रंगमंच की शुरुआत हुई. मूनलाइट, मिनर्वा, कोरेंथियन जैसी व्यावसायिक पारसी कंपनियों द्वारा परोसे नाटक देखने अपार जनता उमड़ती थी. सामाजिक-सरोकारों या सुरुचि-सम्पन्नता से इन नाटकों का वास्ता न के बराबर था. ऐसे में भृगुनाथ वर्मा, पं माधवप्रसाद शुक्ल, भोलानाथ बर्मन जैसे हिन्दी भाषा, राष्ट्र और समाज के चिंतकों द्वारा बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में हिन्दी रंगमंच की शुरुआत हुई जिसके फलस्वरूप 1906 में ‘हिन्दी नाट्य समिति’ और 1912 में ‘हिन्दी नाट्य परिषद्’ जैसी संस्थाएं अस्तित्व में आईं. ‘हिन्दी नाट्य परिषद्’ द्वारा खेले गए नाटकों को पुरुषोत्तमदास टंडन, विजयलक्ष्मी पंडित, पट्टाभिसीतारमैया, मौलाना अबुलकलाम आज़ाद, सुभाषचन्द्र बोस, सेठ गोविन्ददास जैसी विभूतियाँ देखने आती थीं. इन दोनों संस्थाओं ने तीस से भी अधिक वर्षों तक सोद्देश्य, सुरुचि-संपन्न नाट्य-प्रस्तुतियों द्वारा कोलकाता में हिन्दी रंगमंच की मजबूत नींव रखी जिसके बल पर वर्तमान समय में कोलकाता का हिन्दी रंगमंच भारत के तमाम शहरों के मुकाबले आगे है. टिकट खरीदकर नाटक देखने वाले दर्शकों की संख्या यहाँ भरपूर है.

समाज-सुधार को ध्यान में रखते हुए 1947 में ‘तरुण संघ’ अस्तित्व में आया. कोलकाता के दो सुप्रसिद्ध रंगकर्मी श्यामानंद जालान और प्रतिभा अग्रवाल पहले-पहल इसी संस्था से जुड़े और यहीं से ‘अनामिका’ की स्थापना का विचार-अंकुर फूटा. लगभग एक दशक तक ‘तरुण संघ’ ने महत्वपूर्ण नाट्य-प्रस्तुतियां की.

विमल लाठ

1955 में प्रतिभा अग्रवाल, श्यामानंद जालान आदि रंगकर्मियों के प्रयासों से ‘अनामिका’ का उदय हुआ. लगभग 50 वर्षों तक ‘अनामिका’ की कलात्मक, सुरुचिपूर्ण, सोद्देश्य रंग-गतिविधियाँ देश-भर में निरंतर चर्चा का विषय रही. ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘घर और बाहर’, ‘सुहाग के नुपुर’, ‘लहरों के राजहंस’, ‘एवं इन्द्रजीत’, ‘आधे-अधूरे’, ‘पगला घोड़ा’, ‘पंछी ऐसे आते हैं’, ‘हयवदन’, ‘बाकी इतिहास’ आदि ‘अनामिका’ की बेहतरीन प्रस्तितियाँ रहीं. ‘लहरों के राजहंस’ की प्रस्तुति-प्रक्रिया के दौरान स्वयं मोहन राकेश ने श्यामानंद जालान के साथ कलकत्ता में रहकर नाटक में कई बदलाव किये जो नाटककार-निर्देशक के संवाद की घटना के रूप में हिन्दी रंगमंच के इतिहास में दर्ज है. विमल लाठ ने अनामिका के लिए नए-नए रंग-प्रयोग किये. मैथिलीशरण गुप्त के काव्य पर आधरित ‘काव्य प्रवाह’, अज्ञेय की रचनाओं पर आधारित ‘द्वीप जीवन’, प्रभाकर श्रोत्रिय के ‘इला’ नाटक का वाचन इसी श्रृंखला की कड़ियाँ हैं. 2014 में विमल लाठ ने ‘उपनिषद – एक अनुभव’ नाम से एक अनूठा प्रयोग किया जिसमें साहित्य, संगीत, नृत्य और चित्रकला का अद्भुत संगम था. बद्री तिवारी, कृष्ण कुमार, शिव कुमार जोशी, बादल सरकार, शिव कुमार झुनझुनवाला,  राजेन्द्रनाथ, मणिमधुकर,  शेखर चटर्जी आदि ‘अनामिका’ से जुड़ने वाले निर्देशक रहे. 500 से अधिक कलाकारों ने अनामिका के मंच पर कार्य किया. प्रतिभा अग्रवाल अभिनेत्री के साथ अनुवादक-रूपान्तरकार के रूप में ‘अनामिका’ में रही. श्यामानंद जालान ने भी ‘अनामिका’ के नाटकों में अभिनय किया. ‘अनामिका’ ने विमल लाठ के संपादकत्व में कुछ वर्षों तक ‘नाट्य वार्ता’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी किया. समय-समय पर अभिनय और अभिनय-पाठ से सम्बंधित विचार गोष्ठियों का आयोजन करते हुए नाटकों की रंगमंचीय संभावनाओं, कलाकारों की क्षमता, रंगमंचीय आलोचना तथा प्रस्तुतिकरण के विभिन्न तत्वों पर विचार-विमर्श करने वाली यह संस्था पिछले कुछ वर्षों से शिथिल हो गई है.

‘संगीत कला मंदिर’ कोलकाता में संगीत, साहित्य की महत्वपूर्ण संस्था थी जिसके नाट्य-विभाग का आरम्भ 1963 में हुआ. मुख्यतः बद्री तिवारी और राजेन्द्र शर्मा के निर्देशन में संस्था ने अनेक महत्वपूर्ण नाटकों के साप्ताहिक प्रदर्शनों द्वारा हिन्दी रंगकर्म को ठोस दिशा प्रदान की. स्वयं का प्रेक्षागृह होने से संस्था अपने नाटकों के अलावा दूसरी संस्थाओं के नाटकों का प्रदर्शन भी करती है.

‘अदाकार’ की स्थापना 1966 में कृष्ण कुमार द्वारा की गई. ‘अदाकार’ कोलकाता की पहली संस्था थी जिसने साल में 3-4 नाटक करना शुरू किया. अदाकार का उद्देश्य ज्यादा-से-ज्यादा नाटक करते हुए बड़ा दर्शक वर्ग तैयार करना रहा है. ‘आवाज़’, ‘छायानट’,  ‘रजनीगंधा’, ‘निषाद’, ‘सुनो जनमेजय’, ‘कस्तूरी मृग’, ‘चिंदियों की एक झालर’, ‘संधिकाल’,’ खामोश अदालत जारी है!’,  ‘स्वांग’,  ‘अभिशप्त’, ‘शाबाश बाछाराम’, ‘आखिरी सवाल’ आदि इस संस्था की चर्चित प्रस्तुतियाँ रहीं जिनमें अनुवाद-रूपांतर की संख्या अधिक है. 1982 के बाद ‘अदाकार’ धीरे-धीरे निष्क्रिय हो गया.

1973 में श्यामानंद जालान ने ‘अनामिका’ से अलग होकर ‘पदातिक’ की स्थापना की. ‘पदातिक’ ने ‘एवं इन्द्रजीत’, ‘राजरक्त’, ‘शंकुलता’, ‘बिच्छू’, ‘सखाराम बांइडर’, ‘पंछी ऐसे आते हैं’, ‘खेला पोलमपुर’, ‘उध्वस्त धर्मशाला’, ‘बीवियों का मदरसा’, ‘आधे अधूरे’, ‘जनता का शत्रु’, ‘मुखिया मनोहर लाल’, ‘प्रतिबिम्ब’, ‘कन्यादान’ जैसी नाट्य-प्रस्तुतियों में रंग-कला का श्रेष्ठ मानदंड उपस्थित किया. ‘पदातिक’ ने विदेशी नाटकों का प्रदर्शन भी बड़ी संख्या में किया. मोहन राकेश द्वारा अनूदित नाटक ‘शकुंतला’ को शास्त्रीय संगीत की गायिका गिरिजा देवी के स्वरों और गुरु केलुचरण महापात्रा की नृत्यमय गतियों एवं अंग संचालन को श्यामानंद जालान ने बखूबी साधा. ‘पदातिक’ का 70 सीटों का अपना एक छोटा प्रेक्षागृह भी है. ‘पदातिक’ एक नृत्य केंद्र के संचालन के साथ ही प्रतिभावान कलाकारों के कार्यक्रम आयोजित करता है जिसके तहत एक नाट्य-नृत्य समारोह में देश-विदेश के 200-200 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था. 2010 में श्यामानंद जालान के निधन के बाद पदातिक की रंग-गतिविधियाँ मंद पड़ गई है.

1975 में प्रताप जायसवाल और अमर गुप्ता द्वारा ‘अभिनय’ रंग-संस्था की स्थापना हुई. चालीस वर्ष से अधिक की अवधि में यह संस्था लगभग तीस नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन कर चुकी है.

वर्तमान समय में ‘रंगकर्मी’ कोलकाता की मुख्य रंग-मंडली है जिसका गठन 1977 में उषा गांगुली ने किया. उषा गाँगुली के अनुसार कोलकाता की तत्कालीन सस्थाएं केवल आभिजात्य वर्ग के कुछ सौ लोगों का ही प्रतिनिधित्व करती थीं. मध्यवर्गीय हिंदीभाषी जनता उनकी पहुँच से परे थी. उनके मनोरंजन का साधन केवल व्यावसायिक हिंदी सिनेमा था. इस अछूते वर्ग तक पहुँचने के लिए ही ‘रंगकर्मी’ की स्थापना हुई. ‘रंगकर्मी’ ने मुख्यधारा के साथ ही स्कूल, कॉलेज, झुग्गी-झोंपड़ी, कारखानों के गेट पर नाटक करते हुए एक नया दर्शक वर्ग जोड़ा. ‘अंधेर नगरी’, ‘बेचारा भगवान’,’ परिचय’, ‘जात ही पूछो साधू की’, ‘गुडियाघर’, ‘माँ’, ‘महाभोज’, ‘पुरुष’, ‘लोककथा’, ‘होली’, ‘काशीनामा’, ‘मंटो और मंटो’, ‘हम मुख्तारा’, ‘चंडालिका’, ‘महाभोज’ आदि इस मंडली की चर्चित प्रस्तुतियाँ रहीं. ‘होली’ वर्तमान शैक्षणिक व्यवस्था की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठाता है.  महाश्वेता देवी के उपन्यास पर आधारित ‘रुदाली’ को ऑल इंडिया क्रिटिक्स एसोसिएशन पुरस्कार, ‘काशीनामा’, ‘महाभोज’, ‘लोककथा’ को पश्चिम बंगाल के सर्वश्रेष्ठ नाटक का पुरस्कार मिला. उषा गांगुली ने ‘सप्तपर्णी’ में 7 अभिनेत्रियों द्वारा रवीन्द्रनाथ ठाकुर की दो कहानियों, एक काव्य नाटक, एक नाटक, दो उपन्यास और एक कविता से एक-एक मुख्य नारी पात्रों को एकल अभिनय के माध्यम से प्रस्तुत किया जिससे रवीन्द्र-साहित्य के स्त्री-पात्रों को एक नई व्याख्या मिली. ‘रंगकर्मी’ का अपना एक स्टूडियो थियेटर भी है.

शिव कुमार झुनझुनवाला, रामगोपाल वागला, अशोक चुड़ीवाल, रवि भटनागर के रंगमंच के प्रति जुनून के चलते 1983 में ‘प्रोसेनियम आर्ट सेंटर’ अस्तित्व में आया. सिनेमा और टेलीविजन से प्रभावित होने के बावजूद रंगमंच के प्रति अपने जूनून के कारण जो लोग वहाँ नहीं गए, ऐसे लोगों की इच्छापूर्ति के लिए ‘प्रोसेनियम’ की स्थापना की गई. ‘प्रोसेनियम’ ने हिंदी, अंग्रेजी भाषाओँ में कई अर्थपूर्ण तथा गंभीर प्रस्तुतियाँ की. ‘ठहरा हुआ पानी’, ‘बाकी इतिहास’, ‘पगला घोड़ा’, ‘सारी रात’, ‘अधूरा सच’ आदि प्रोसेनियम द्वारा मंचित अधिकाँश नाटक बांग्ला और अंग्रेजी से अनूदित हैं. इसके अतिरिक्त इस संस्था ने 50 से अधिक अन्तरंग नाटक और इंटिमेट थिएटर की प्रस्तुतियाँ भी दी हैं.

1992 में अपर्णा सेन, अरुण पोद्दार एवं रेणु राय ने ‘स्पंदन’ की स्थापना की. ‘दुर्गेशनंदिनी’, ‘मंत्रिमंडल’ ‘खूबसूरत बहू’, ‘सकुबाई’, ‘कठपुतली’, ‘रुका हुआ फैसला’, कफ़न आदि ‘स्पंदन’ द्वारा मंचित चर्चित नाटक रहे.

1994 में हिंदी-उर्दू भाषाई रंगमंच के पुल के रूप में पति-पत्नी एस. एम. अजहर आलम और उमा झुनझुनवाला ने ‘लिटिल थेस्पियन’ की स्थापना की. वर्तमान में यह पश्चिम बंगाल का प्रमुख नाट्य-दल है जिसका जोर सामाजिक रूप से प्रासंगिक नाटकों पर अधिक रहता है. निर्देशक, अभिनेता और दर्शक की त्रयी पर काम करने वाले इस समूह की मान्यता है कि रंगकर्म वैचारिक प्रगतिशीलता का वाहक होने के साथ ही जागरूकता का माध्यम भी है. मुख्यधारा के नाटकों के अलावा ‘लिटिल थेस्पियन’ के 3 विभाग है. ‘कथा मंच’ में कहानी को बिना परिवर्तन के मंच पर प्रस्तुत करता है. ‘गलियारा मंच’ नाटकों को मुक्त-आकाश में प्रस्तुत करता है. ‘नटखट मंच’ बच्चों के नाटक प्रस्तुत करता है. नियमित रूप से कविता और कहानी का नाट्य पाठ के साथ ही शैक्षिक संस्थाओं में नाट्य कार्यशाला का आयोजन भी किया जाता है.

प्रतिभा अग्रवाल के प्रयासों से 1981 में कोलकाता में स्थापित ‘नाट्य शोध संस्थान’ भी हिन्दी के साथ बांग्ला व अंग्रेजी में संग्रह-संकलन-शोध के क्षेत्र में भारत की एक महत्वपूर्ण संस्थान के रूप में कार्य कर रहा है.

उपरोक्त संस्थाओं के साथ अनेक छोटी-बड़ी, अल्पकालिक संस्थाएँ भी कोलकाता के हिन्दी रंगमंच की यात्रा की भागीदार बनी हैं. ‘नान्दिकार’ द्वारा थियेटर फेस्टिवल का आयोजन इसी सिलसिले की कड़ी है. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के भारत रंग महोत्सव के साथ ही देश-भर में आयोजित होने वाले नाट्य-समारोहों में कोलकाता की किसी-न-किसी रंग-संस्था के नाटक की शिरकत अनिवार्य रूप से रहती है जो इस शहर के हिन्दी-रंगकर्म की सक्रियता का सूचक है. अहिन्दी भाषी क्षेत्र में हिन्दी रंगमंच का यह परचम गहरी संतुष्टि का सूचक है.

लेखक जाकिर हुसैन कॉलेज, दिल्ली में हिन्दी के प्राध्यापक हैं|

सम्पर्क- +919899096251, anilsharma.zhc@gmail.com

 

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लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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