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व्यंग्य : थैंक गॉड! दिमाग ठीक हो गया
वे अस्पताल से अपना दिमाग चेक करवा घर सकुशल लौटे तो उनके घर उनके हालचाल पूछने आने वालों का तांता लग गया. उस वक्त जो भी उनके हालचाल पूछता रोते हुए उनके गले लगता तो ऐसे गले लगता मानों दुनिया के आठवें अजूबे के गले लग रहा हो. जो भी उनसे उनके हालचाल पूछने के बहाने उनसे मिलने आता, जलता भुनता उनके पांव छूता, उनके गले लगता और दबी जुबान में मन ही मन यही कहता,‘ हद है यार! बड़ा तकदीर वाला है ये, अस्पताल से जिंदा लौट आया?’
उनके बगल वाले वर्मा जी ये सब देख हैरान थे कि आखिर ये सब जो हो रहा है वह आखिर हो हो क्या रहा है? साल भर पहले जब उनकी माता जी स्वर्ग सिधारी थीं तो इतने लोग तो तब भी उनके यहां नहीं आए थे जितने इनके अस्पताल से जिंदा लौट आने पर आ रहे हैं. भीतर ही भीतर तब उन्हें उनके अस्पताल से जिंदा लौट आने से ईर्ष्या होने लगी थी.
बंदे के सकुशल अस्पताल से लौट आने पर न चाहते हुए भी बची इंसानियत के नाते थोड़ा सा तो मेरा भी फर्ज बनता था कि उन्हें अस्पताल से जीवित लौट आने पर हार्दिक नहीं तो कम से कम बधाई देने उनके घर जा आऊं, भले ही मेरा और उनका छत्तीस का आंकड़ा रहा हो. इस कमबख्त छत्तीस के आंकड़े के चलते हमारा मन एक-दूसरे के साथ खड़ा होने को तो छोड़िए, एक-दूसरे का चेहरा देखने तक को मन न भी करे तो भी अवसर की गैर जरूरी मांग को ध्यान में रखते हुए सगर्व साथ-साथ खड़े होने का अभिनय तो करना ही पड़ता है. अभिनय जितना कुशल हो जाए सोने पर उतना ही सुहागा.
जब वे मिलने वालों से कुछ फ्री हुए तो मैं लटके मुंह को जैसे कैसे सजाए उनके घर उन्हें बधाई देने जा पहुंचा, ‘ बधाई वर्मा जी! पिछले जनम में आपने जरूर कोई अच्छे कर्म किए होंगे जो अस्पताल से सकुशल लौट आए। वरना आज की तारीख में बंदा यमराज के पास से सकुशल लौट कर आ सकता है पर अस्पताल से नहीं। आखिर ऐसा क्या हो गया था आपको जो…?’
‘होना क्या था शर्मा जी! कई दिनों से बस यों ही कुछ ऐसा फील कर रहा था कि ज्यों मेरा दिमाग खराब सा हो रहा है।’
‘तो आपको कैसे पता लगा कि आपका दिमाग खराब हो रहा है? मैंने तो मुहल्ले में कई ऐसे भी देखे कि जिनका सबको पता है कि उनका दिमाग खराब है,पर बावजूद उसके वे सीना तान कर अपने दिमाग को बिल्कुल स्वस्थ घोषित करते नहीं अघाते।’
‘लगना क्या था यार! मुझे लगा कि जैसे मेरे दिमाग के पेच ढीले हो रहे हैं?’ उन्होंने चिंतक होते कहा।
‘दिमाग के पेच भी होते हैं क्या?’
‘ होते हैं। पहले तो उन्हें खुद ही कसने की सोची पर जब नहीं कसे गए तो ….’
‘ तो आपको कैसे पता चला कि आपके दिमाग के पेच ढीले हो रहे हैं?’
‘ असल में मुझे लगने लगा कि मैं ज्यों घोर स्वार्थी से परमार्थी सा होता जा रहा हूं। चौबीसों घंटे निगेटिव विचारों से ओतप्रोत रहने वाला मेरा दिमाग पॉजिटिव होता जा रहा हो जैसे। ज्यों मैं अपने बारे में सोचना छोड़ समाज के बारे में सोचने लगा हूं। मुझमें चिड़चिड़ेपन के बदले संतोष आ रहा हो जैसे। शुरू-शुरू में तो मैंने सोचा कि ये ऐसे ही गलती से कुछ शुद्ध खाने से हो रहा होगा। पर दिन प्रतिदिन जब मेरा दिमाग और खराब होने लगा तो मुझे लगा कि बेटा संभल! जरूर तेरे दिमाग के पेच ढीलिया रहे हैं। इन्हें वक्त रहते चेक करवा लेना चाहिए, इससे पहले की दिमाग और खराब हो जाए। खराब दिमाग लेकर जीने से बेहतर तो मरना भला। यों ही लापरवाही में कल को जो दिमाग के पेच कसने लायक ही न रहे तो… दिमाग और ज्यादा खराब हो गया तो… आखिर आड़े वक्त में एकबार फिर भगवान को अस्पताल से सकुशल आने की मन्नत की. हे भगवान! जो अस्पताल से दिमाग का इलाज करवा सकुशल घर लौट आऊं तो तेरे नाम का सवा किलो हलवा जनता में बंटवाऊं। ’
‘फिर??’
‘फिर क्या! भगवान का नाम ले सिक्का उछाला। हेड मांगा था सो वही आने पर अस्पताल सभय जीव कूच कर गया,’ कहते उन्होंने ठंडी सांस ली।
‘फिर??’
‘फिर क्या? डॉक्टर को डरते-डरते समस्या बताई।’
‘फिर??’
‘फिर क्या? पहले तो उसने कहा कि हो सकता है दिमाग के सारे ड्राइव स्कैन न करने पड़ें। अगर इसमें ज्यादा वायरस न हुआ तो तो ठीक, नहीं तो हो सकता है इसे फॉरमेट ही करना पड़े। उसके बाद दोबारा इसमें बेसिक समाज विरोधी प्रोग्राम डाल देंगे। बाद में उनके अपडेट्स सोसाइटी से लेते रहना।’
‘फिर?’
‘उन्होंने मेरे दिमाग को ठोका बजाया तो मैं घबराया, हहराया। पर शुक्र खुदा का, उसमें जो वायरस अचानक कहीं से आ गया था वह अभी इतना खतरनाक नहीं हुआ था कि दिमाग को फॉरमेट करना पड़ता। उन्होंने उसे डिलीट कर मेरा दिमाग ठीक कर दिया।’
‘फिर??’
‘फिर क्या? देखो तो, अब पहले वाले तंदुरूस्त दिमाग से भी अधिक फिट दिमाग के साथ तुम्हारे सामने हूं दोस्त! शायद मेरे हाथों से अभी और समाज में ऊट पटांग करना शेष बचा होगा तभी तो अस्पताल से सकुशल लौट आया, वरना यहां तो भले चंगे भी जो अस्पताल जाते हैं वे बोरे में पैक होकर ही घर वापस आते हैं, ‘मुस्कुराते हुए रूंधे गले से कहते वे उठे और ऐसे मेरे गले लगे, ऐसे गले लगे कि बरसों से मेरी रीढ़ की हड्डी तोड़ने की मुराद पाले ज्यों आज मेरी बची रीढ़ की हड्डी तोड़ कर ही दम लेंगे।
अशोक गौतम
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