स्त्रीकाल

स्त्री विमर्श के देशी आधारों की खोज

 

आज बैंगलोर विश्विद्यालय के इस गौरवशाली मंच पर जब हम स्त्री अस्मिता और विमर्श की वैचारिक पृष्ठभूमि पर आभासी संवाद के लिए एकत्र हुए हैं तब मुझे आपके इसी बैंगलोर की बेटी शकुंतला देवी की याद आ रही है। कल ही मैंने उनके जीवन पर मशहूर अभिनेत्री और केरल की बेटी विद्या बालन की फ़िल्म भी देखी है। एक अभावग्रस्त सर्कस कलाकार के घर आज से नब्बे साल पहले पैदा हुई शकुंतला देवी का जीवन फ़िल्म से कम आकर्षक नहीं था। स्कूल जाने के लिए न तो संसाधन थे और न ही समय। जिस ताश के खेल को आज भी जुए की श्रेणी में रखा जाता हो उन्हीं ताश के पत्तों ने शकुंतला देवी के लिए अंक गणना का एक ऐसा संसार खोला जो उनके लिए किसी भी विश्विद्यालय से ज्यादा उपयोगी सिद्ध हुआ। पिता ने बेटी की इस प्रतिभा को एक दूरदर्शी गुरु की तरह पहचाना और दुनिया ने आगे चलकर उनकी प्रतिभा का लोहा माना।

अपने समय के सबसे तेज कंप्यूटर से भी तेज चलने वाले दिमाग के जरिए भारत की इस बेटी ने सिद्ध कर दिया कि आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त और भास्कर से होते हुए रामानुजन तक विस्तृत गणित की गौरवशाली परम्परा की धारा तमाम विघ्न बाधाओं के बावजूद निरन्तर प्रवाहमान है। मुझे लगता है कि जिस रोबोट को सोफिया के रूप में आज दुनिया आश्चर्य के साथ देख रही है उसकी प्रेरणा शकुंतला देवी के जीवन से ही जुड़ी है। प्रेमचंद ने 1909 में जॉन ऑफ आर्क के जीवन पर जमाना में अपने एक छद्म नाम से लेख लिखा था। उन्हें स्त्री शिक्षा और जागरण के संदर्भ में भारतेन्दु सरीखे अपने पुरखों के प्रयासों का इतिहास मालूम था। उनके मन में इस बात का गहरा दंश था कि स्त्री समुदाय को निकम्मा और व्यर्थ समझ कर हमारे देश ने बहुत बड़ी गलती की है। उन्होंने लिखा कि,

“आज हमारे राष्ट्रीय पतन का मुख्य कारण यही है कि हमने उनको अपना गुलाम बनाकर उनको अपनी पाँवों की जूती समझकर और मानसिक क्षमताओं में अपने से कम मानकर उन्हें ज्ञान और कला के खजाने से वंचित कर दिया है। उनके लिए शिक्षा का द्वार बंद कर दिया है। परिणाम यह है कि जो हम आज आंखों से देख रहे हैं।”

कौन हैं शकुंतला देवी, जिनका ट्रेलर ...

इस आत्म स्वीकार के बीस साल बाद पैदा हुई शकुंतला देवी ने सिद्ध कर दिया कि स्त्रियों की मानसिक क्षमताएँ पुरुषों से किसी भी मायने में कम नहीं है। यही नहीं शकुंतला देवी के जीवन के तेरह साल पूरा होने पर महादेवी वर्मा की प्रकाशित किताब ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ ने भी सिद्ध कर दिया कि विचार और लेखन की दुनिया भी स्त्रियों की उपेक्षा करके सम्भव ही नहीं है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की मशहूर इतिहास पुस्तक में जिन गिनी चुनी लेखिकाओं का नाम लिया गया है उनकी संख्या और उन पर खर्च की गई स्याही से भी अनुमान किया जा सकता है कि प्रेमचंद के बाद भी हिन्दी का मन मिजाज अपने को बदलने को तैयार नहीं था। शकुंतला देवी की चर्चा के क्रम में मुझे एक और शकुंतला याद आ रही हैं । एक ऋषि के आश्रम में बैठी हुई कन्या जो सहज प्रकृति के विशाल आंगन में दुनिया के छल छद्म से दूर अपने जीवन की लय में मगन थी।

राजा दुष्यंत ने उसके जीवन में प्रवेश क्या किया उसकी तो दुनिया ही बदल गई। इस बदली हुई दुनिया ने उसे ऊँचे महलों में रहने वाले लोगों द्वारा अपना जो अभिज्ञान कराया उसकी कथा जग जाहिर है। आप शकुंतला के अपमान का आकलन भले न करें लेकिन कालिदास के साथ उसकी पीड़ा के भागीदारजरूर बन सकते हैं। बाबा नागार्जुन केसाथ उसकी मूर्खता पर छाती पीट सकते हैं। या फिर , विलियम जोंस के साथ ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’के उपनिवेशवादी पाठ के जरिए भारत वासियों की स्मृति पर माथा पीठ सकते हैं। जिस देश का नामकरण जिसके बेटे के नाम पर हुआ हो उसकी स्मृति जब इतनी कमजोर हो कि वह अपनी गर्भवती प्रेयसी को ही पहचानने की क्षमता न रखता हो उस देश के सामान्य लोगों की स्थिति क्या होगी, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। भारतीय मानस की इस कमजोरी के आधार पर अगर पश्चिमी साम्राज्यवाद दो शताब्दियों तक कायम रहा तो इसमें मुझे अचरज का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता।anand neelakantan ആനന്ദ് നീലകണ്ഠൻ a Twitter ...

वाल्मीकि की सीता को भी याद करें तो पता चलेगा कि हमारे आदि कवि ने भी एक कठिन समय में अपने राम जैसे पति द्वारा परित्याग के दौरान जिस मानसिक यन्त्रणा का सामना किया होगा उसकी ही परिणति रामायण के उत्तरकाण्ड के उसभव्य शपथ समारोह में उनके भूमि प्रवेश के मार्मिक और विचलित कर देने वाले प्रसंग में दिखाई पड़ती है। आप सीता के उस स्वयम्वर को याद करें जिसमें उन्होंने राम का वरण किया था और फिर इस शपथ सभा को देखें जिसमें उन्हें राम के प्रति अपनी निष्ठा और चरित्र के एवज में राम के साथ रहने से धरती की गोद में समाहित होने का विकल्प बेहतर लगा.रामायण के राम और सीता का जीवन लोक मर्यादा के नाम पर एक बहुत बड़ी शहादत है.लोक नायक बनना कितनी बड़ी जिम्मेदारी होती है इससे राम भले ही परिचित हों लेकिन एक पति के रूप में सीता के प्रति उनकी जिम्मेदारी पर जो सवाल उठा उसका जवाब आसान नहीं है।

एक स्त्री दुनिया भर का अपमान बर्दास्त कर लेगी। लेकिन अपने ही पतिका अपमान सहन करना कितना कठिन होता है इसे वाल्मीकि की सीता और कालिदास की शकुंतला के जरिये समझा जा सकता है। हमारे भक्ति आन्दोलन की मीरा बाई का जीवन भी इसी कड़ी में एक अत्यन्त उल्लेखनीय नाम है। कुल की मर्यादा और लोक लाज के नाम पर स्त्रियों के जीवन पर कदम कदम पर बैठाए गए पहरों से मीरा बाई परिचित ही नहीं पीड़ित और प्रताड़ित भी हैं। सीता और शकुंतला की तरह मीरा बाई भी सामंती पृष्ठभूमि से हैं। जब इतने कुलीन घरानों की स्त्रियों की आँखों में इतने आँसू हैं तब सामान्य घरों की स्त्रियों की हालत का अनुमान किया जा सकता है। मीराबाई उस बाउंड्री लाइन पर खड़ी हैं जिसके एक तरफ मृत पति के साथ चिता पर शहीद होने का विकल्प है तो दूसरी तरफ पति की अनुपस्थिति में एक विधवा के रूप में लांछित जीवन का विकल्प। मीराबाई का कसूर यही था कि वे इन दोनों विकल्पों से इतर अपने जीवन को एक स्वतन्त्र संत की तरह जीना चाहती थीं। समाज को मीरा की इसी स्वतन्त्रता से खतरा था।मीरा बाई जयंती: जानिए, श्री कृष्ण की ...

पितृ मूलक समाज के लिए स्त्रियों की यह बुनियादी मानवोचित आकांक्षा भी असहनीय होती है। याद करें कि मध्यकालीन मीरा बाई जिस यन्त्रणा की शिकार थीं उसी यन्त्रणा से टकराते हुए आधुनिक काल में नवजागरण के अग्रदूत माने जाने वाले राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा के विरोध और विधवा विवाह की प्रस्तावना के साथ भारतीय नवजागरण की पीठिका तैयार की थी। विधवा स्त्रियों की दुर्दशा को जानने के लिए अपने देश में किसी किताब और इतिहास के पास जाने की जरूरत नहीं है। हर घर मुहल्ले में मौजूद हमारी विधवा माताएँ और बहने अपने को अपशकुन की तरह अपने अभिशप्त जीवन को विष की तरह पीते हुए सदियों से जिस दम घोंटू हवा में सांस ले रही हैं उसके लिए सैकड़ों साल के जागरण अभियान भी अपर्याप्त सिद्ध हुए हैं।

आज से आठ साल पहले वृन्दावन के विधवा आश्रम के बारे में स्थानीय अख़बारों में जब यह खबर छपी कि किसी विधवा आश्रम के पास इतने भी पैसे नहीं थे कि उनका अंतिम संस्कार सम्मान पूर्वक किया जा सके। अभी हाल ही में कोरोना से मृत्त व्यक्तियों के शवों के साथ जो हो रहा है उसका एक भयावह दृश्य सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था.प्लास्टिक में बंद कुछ लोग प्लास्टिक में मढ़ी हुई लाशों को एक गड्ढे में दनादन फेंक रहे थे.ऐसे दृश्य जीवन के प्रति ही नहीं मनुष्यता के प्रति हमारी आस्था को विचलित करते हैं। लगभग इसी तरह के दृश्य की सूचना उस खबर में थी.पैसे के अभाव में विधवाश्रम की मृत्त अभागिनों को बोरे में भरकर यमुना मैया की गोद में डाल दिया जाता था.सर्वोच्च न्यायालय ने इस खबर के आधार पर संज्ञान लेते हुए जो फैसला सुनाया उससे सबकी आँखें फटी रह गईं।यह महज संयोग नहीं हो सकता कि हिन्दी की पहली आत्मकथा एक विधवा स्त्री की ही व्यथा कथा है।

भारतेंदु काल में रचित इस आत्मकथा लेखिका को मीराबाई की तरह अपने जीवन को लेकर इतना खतरा था कि उस अभागी स्त्री ने अपनी उस अनमोल कृति पर अपना नाम लिखने का साहस भी नहीं जुटा पाई। उसे पता था कि जिस देश में दस-पांच लोग भी स्त्रियों को मनुष्य नहीं समझते उस देश में एक विधवा स्त्री के जीवन की कल्पना की जा सकती है। हिन्दी की दूसरी आत्मकथा भी पहली आत्म कथा के लगभग पैंतीस साल बाद लिखी गई। सरला नाम की विधवा द्वारा। एक ऐसी लड़की जिसका विवाह गुड्डे गुड्डी के खेल तरह शिशु अवस्था में ही हो गया था। उसे अपने पति की मृत्यु की सूचना इसी रूप में मिली कि वह अब रांड हो गई। यह संज्ञा उसके लिए नई थी। ऐसी पहचान जिसके लिए उसकी चूड़ियाँ तोड़ी गईं और वे सारे श्रृंगार नष्ट किए गए जिससे वह न जानते हुए भी प्यार करने लगी थी। भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग ने भारतीय स्त्री जीवन के जिस अंधेरे चेहरे की तरफ इन आत्म कथाओं के माध्यम से जो ‘सेल्फी’ लेने का प्रयास हुआ था उसी के परिणामस्वरूप छायावाद के कवियों ने विधवा स्त्री पर कविता लिखी।हिंदी साहित्य में छायावाद के चार ...

छायावाद की ही महादेवी ने मीरा बाई की पीड़ा को प्रणाम करते हुए उनकी पंच शती पर अपने आपको साहित्य को समर्पित किया था और जिस किताब की हमने चर्चा की थी उस श्रृंखला की कड़ियाँ के जरिए भारत ही नहीं समस्त दुनिया की स्त्रियों की गुलामी की बेड़ियों को एक दूसरे की कड़ी मानते हुए इनको श्रृंखला बद्ध रूप में देखा था। ऐसी गुलामी की बेड़ियों की कड़ी जिसे तोड़ने में सदियों का समय लगता है। राजा राम मोहन राय जब सती प्रथा के विरोध में ब्रिटिश हुकूमत से जब इसके खिलाफ कानून बनाने की लड़ाई लड़ रहे थे तब उन्हें यह देखकर ताज्जुब होता था कि अपने को आधुनिक कहने वाले अंग्रेज उनके साथ खड़े थे जो इस कुत्सित प्रथा के समर्थन में थे। महादेवी जी ने इंग्लैंड के बारे में लिखा कि वहां जितने भी श्रमसाध्य काम होते हैं जैसे नहर की खुदाई जैसे कठिन काम वे सब वहां की स्त्रियाँ करती हैं।

संकेत यह था कि जो पूरी दुनिया को गुलाम बनाए हुए हैं वे अपने ही देश की स्त्रियों को आजादी क्यों देंगें? ठीक उसी तरह उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया किअपने देश वासी अंग्रेजों से अपनी मुक्ति की आकांक्षा तो रखते हैं लेकिन अपने ही घर की स्त्रियों को गुलाम बनाए हुए हैं। मतलब यह कि जो साम्राज्यवादी हैं वे भी और जो इस साम्राज्यवाद के शिकार हैं वे भी , दोनों स्त्रियों की आजादी के खिलाफ हैं। रूस में सामंतवाद के खिलाफ जो लड़ाई चल रही थी उस रूसी समाज में स्त्रियों की दारुण दशा से भी वे परिचित थीं। रूस में एक प्रथा थी जो लम्बे समय से चली आ रही थी। इस प्रथा के अनुसार बेटी का बाप दहेज में अपने दामाद को एक चाबुक देता था। इसका संदेश था कि इसी चाबुक से उसने अपनी बेटी को नियंत्रित किया था, अब वही चाबुक एक पति द्वारा पत्नी को नियंत्रित करने में मदद करेगी। ध्यान रहे कि महादेवी जी की यह किताब सीमोन द बौवार की किताब से सात साल पहले की किताब है। स्त्री की उपेक्षा का जो सूत्र सीमोन ने दिया उससे बड़ा फलक महादेवी जी की किताब में मौजूद है।पंडिता रमाबाई: वह स्वतंत्र ब्राह्मण ...

मुझे इसी कड़ी में पंडिता रमा बाई की याद आ रही है जिनकी किताब में सीमंतनी उपदेश के उद्धरण के आधार पर डॉक्टर धर्मवीर ने हिन्दी साहित्य से लगभग बहिष्कृत किताब को चर्चा के केंद्र में लेकर एक ऐतिहासिक भूल को दूर करने का काम किया। मुझे आज सावित्रीबाई फुले भी याद आ रही हैं । प्रेम चंद के सूरदास की तरह वह अपार धैर्य जो उन्हें भारी विरोध और तिरस्कार के बावजूद अपने कर्तव्य पथ से विचलित नहीं कर सका। छिपा कर झोले में रखी हुई उनकी दूसरी साड़ी याद आ रही है जिसे वह स्कूल पहुंच कर अपनी उन बेटियों को पढ़ाने के लिए पहनती थीं जिनसे यह बात भी छिपानी थी कि इस समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उनकेगुरु पर मिट्टी, गोबर और गंदा फेंक कर उनके हौसले की परीक्षा ले रहे थे।

मुझे इन सबके बीच भगवान बुद्ध के शरण में शामिल थेरी गाथा की उन स्त्रियों की भी याद आ रही है जो दुनिया के इतिहास में पहली बार अपने दुखों को शब्द देने का साहस कर पाईं थीं। उसी साहस का परिणाम एक लम्बी यात्रा के बाद हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में स्त्री समाज को कुछ कहने का साहस दे रहा है। स्त्री लेखन के वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि कमी न तो प्रतिभा में थी और न ही साहस में। कमी उस पुरुष दृष्टि में थी जो लाभ लेना तो जानता है, श्रेय देने का हुनर और हौसला अब तक नहीं सीख पाया है।

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गजेन्द्र पाठक

लेखक हिन्दी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद में प्रोफेसर हैं| सम्पर्क- +918374701410, gpathak.jnu@gmail.com
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