मुक्ति अकेले में नहीं मिलती
टी.वी. ऑन किया तो किसी विशेषज्ञ के मुँह से निम्नलिखित शब्द सुनाई पड़े।
“यहाँ कोई रो नहीं सकता। चल नहीं सकता। कुछ बोल नहीं सकता। सुन नहीं सकता। क्योंकि आवाज को लाने, ले जाने के लिए माध्यम नहीं है। लेकिन कद में 1-2 इंच की बढ़ोतरी हो जाती है।”
इसी आशय के शब्द कुछ दिन चैनलों में खनखनाते रहे। परिवार के साथ बैठ कर खबरें देखना-सुनना तो अब मुश्किल ही लगता है। भाषा और शिष्टाचार की कोई मर्यादा नहीं बची है। किसी भी शान्तिप्रिय व्यक्ति को ललकारती, सामने वाले को नीचा दिखाती भाषा रास नहीं आ सकती। हम स्त्रियों पर तो जो गुजरती है सो गुजरती ही है। एक आम स्त्री को राजनीति में आने से यह माहौल कितना हतोत्साहित करता होगा, समझा जा सकता है। इस प्रवृत्ति पर अंकुश न लगा तो 33% आरक्षण महिलाओं को मिलने से भी क्या होने वाला है? राजनीति का पूरा मुहावरा ही मर्दवादी है। अभी फिलहाल उन मुद्दों पर बात नहीं करते जिनमें साफ तौर पर किसी की गरिमा का उल्लंघन हुआ था।
उनका विभिन्न संस्थानों द्वारा संज्ञान भी लिया गया और व्यापक पैमाने पर विरोध भी हुआ है। हालांकि ऐसी खबरों की भी संख्या बहुत बड़ी है और बढ़ती ही जा रही है। पर परिदृश्य को वहाँ से पकड़ना चाहती हूँ जहाँ से वह बिना किसी विरोध के हवाओं में घुलता जा रहा है। ‘देख लूँगा’, ‘सबक सीखा दूँगा’ ‘पटक के मारना’, ‘घुस के मारना’, ‘बदला’, ‘हिसाब चुकता’ जैसे शब्द पूरे हाव-भाव के साथ एकदम सहज ढंग से गूँजते रहते हैं और बीच-बीच में महिला प्रत्याशियों के लिए बेहूदा टिप्पणियाँ की जाती रहती हैं। ये हमारे जीवन का स्वाभाविक हिस्सा बनता जा रहा है इसलिए हम भाषा के जरिए चेतना में जगह बनाते हुए द्वेष के बीजों को अलग से पहचान नहीं पाते पर वह हमारे कान-आँख-सीने में एक जलन सी पैदा कर देता है। हम बेचैन होते हैं पर जानते नहीं क्यों।
तो शायद उसी बैचैनी में चलते-फिरते देखने के लिए ही टी.वी. ऑन किया था इसलिए खबर पर पूरा ध्यान नहीं था। मुझे लगा विशेषज्ञ हमारे वर्तमान की बात कर रहे हैं कि देख-सुन-बोल-चल-फिर नहीं सकते क्योंकि शब्दों को ले जाने वाली हवाएँ ताकतवर के कब्जे में हैं। सीधे तौर पर भी और इस तरह भी कि लपकती-झपकती-झपटती भाषा से कान सुन्न हो गए हैं। एक-दूसरे से जोड़ने वाले रास्ते जिस धरती पर बनते हैं उसका गुरुत्वाकार्षण बल छीजता जा रहा है, उसे छिजाने की कोशिशें की जा रही हैं। इस तरह जब सब एक-दूसरे से कट गए तो रोना-हँसना भी व्यर्थ हो जाता है। अलग-थलग पड़ा हुआ व्यक्ति अपनी जमीन पर ही खुद को औरों से बड़ा महसूस करता जाता है।
उसके सोचने-करने में बाहर के परिवेश की कोई दखल होती नहीं तो अपने राजा तो आप ही महसूस किया ही जा सकता है। राजा होने में प्रजा की जो अवधारणा निहित है। बाकियों को अपने मन के भीतर ही प्रजा मान लेने से अपने सारे कर्म उसी तानाशाह विचार से संचालित होते हैं। ऐसे में जो देश-काल बनता है, जैसी हवाएँ बहती हैं, सबल और निर्बल के, जीत-हार के, विकास-पतन के जो अर्थ बनते हैं, मुझे लगा वही इन वक्तव्यों में बताए जा रहे हैं कि हम जाने-अनजाने भस्मासुरी विकास की राह पर चल रहे हैं। बौद्धिक वर्ग जिस पेड़ पर बैठा है उसी की जड़ खोद कर रहा है। औरों से कटी हुई प्रगति का मुँह अंधेरी बन्द गली में ही खुलता है। मध्य वर्ग निम्न वर्ग और उच्च वर्ग के बीच की कड़ी होता है और उसका हित निम्न वर्ग के कल्याण में निहित है।
मगर वह अपनी भूमिका को भूल कर अपने से निचले पायदान पर स्थित लोगों से खुद को काट कर निरंतर उच्च वर्ग की आकांक्षाओं की खाद बनता गया है और इसी में उसे अपना विकास नजर आता रहा है। एक ओर वह धनाढ्य वर्ग की लालसाओं का साधन बनता है दूसरी ओर बाजारवाद ने उसे व्यक्ति से उपभोक्ता में बदल दिया है इसलिए मध्य वर्ग अब उस तरह से एक वर्ग नहीं रहा। बल्कि अलग-अलग द्वीपों में विभक्त हो गया है। मध्यवर्गीय नैतिकता की सामर्थ्य और सीमाओं को खंगाल कर जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं, वह अब समाज के एक छोटा से हिस्से पर ही लागू हो सकते हैं।
या फिर धर्म, वर्ण, लिंग, क्षेत्र, वर्ग के आधार पर परस्पर अलगाव की चर्चा हो रही है कि कैसे पहचान के एक सामान्य सूचक को व्यक्ति का स्थानापन्न बना कर एक-दूसरे से अलगा कर एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया जाता है। और अगर एक दूसरे से संख्या या बल (?) में बहुत कम पड़ता हो तो बड़े में ही छोटे का विलय कर दिया जाता है। ‘अन्य’ को पैदा करके, फिर उसे जीत कर या दुश्मन घोषित करके या अपने में घुला कर अंततः सह अस्तित्व से अहं अस्तित्व तक ही पहुँचा जा सकता है। ऐसी निरकुंश सत्ता पर गुरुत्वाकार्षण कैसे भला काम करेगा और वह उससे मुक्त हो कर हवाओं में तिरेगा, कद में बढ़ेगा। क्या इसका विश्लेषण किया जा रहा था टी.वी में?
यही सब बातें टी.वी के शब्दों के साथ दिमाग में घूम रही थीं तो पता चला कि अंतरिक्ष के लक्षण बताए जा रहे हैं कि वहाँ गुरुत्वाकर्षण न होने के कारण सामान्य मानवीय कार्यकलाप भी सम्पन्न नहीं किए जा सकते। ये तो हम अपने स्कूली दिनों से ही जानते हैं पर तब ये मुगालता नहीं होता था कि ये हमारी दुनिया की बात हो रही है। अब स्पेस की सामान्य विशेषताएँ भी घटना की तरह लगीं थीं। तब एक ओर चित्त खिन्न हुआ कि देश की यह दशा है कि लोग अपनी-अपनी हताशाओं में अकेले पड़ते जा रहे हैं। सबके लिए अन्न उपजाने वाला किसान हो या समाज को अपनी सेवाएँ देने वाला कोई मध्यवर्गीय व्यक्ति, उसकी जिन्दगी नितान्त उसकी अपनी जिन्दगी किस तरह हो जाती है कि वह हताशाओं के द्वीप में जी ले या जान देदे।
दूसरी ओर मीडिया समाज की दशा की सच्ची खबर दे रही है, इस बात का मन में उल्लास भी था कि अगर यह माध्यम कारगर ढंग से अपने काम करता है तो रोशनी को कौन रोक सकता है। मगर पता चला कि अंतरिक्ष में सैटेलाइट को निशाना बनाने वाली मिसाइल के सफल परीक्षण की वैज्ञानिक उपलब्धि को बताने के क्रम में स्पेस के लक्षण गिनाए जा रहे हैं कि लोग अंतरिक्ष से परिचित हो जाएँ न कि उन्हें उनके ठोस परिवेश से अवगत कराया जा रहा है। और ये काम इस सज-धज से सम्भवतः इसलिए भी हो रहा है क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा की यह उपलब्धि इस बार डीआरडीओ द्वारा न बताई जा कर देश के प्रधानमन्त्री द्वारा बताई गई है और ऐसे में एक नया ही पाठ रचा जा रहा है। पिछले कुछ दिनों से डर, असुरक्षा, जद्दोजहद का जो माहौल बना हुआ था। उस गढ़े हुए ताले की कुंजी के रूप में यूरेका यूरेका की मुद्रा में ये सफलताएँ गिनाई जा रही हैं जैसे आसन्न खतरे की तोड़ खोजने के क्रम में अनायास कोई भारी सफलता मिल गई हो।
बहरहाल अगर यह कार्यक्रम आकाश की बातें कर रहा है तो इसे यहीं छोड़ कर यहाँ की जमीनी सच्चाइयों पर नजर डाली जाए जहाँ सबके साथ हँसना-रोना, पाना-खोना है ही चाहे रास्ते में कितनी ही बाधाएँ डाली जाएँ। समय के पन्ने में कई घटनाएँ इस बीच जुड़ती गई हैं जो अपने आप में बहुत दुखद हैं किंतु फिर भी उनसे पीड़ाओं के बीच पुल बनने की उम्मीद भी जगी है। अपने-अपने द्वीपों से निकलकर सब एक हो जाएँ तो वर्तमान समय की त्रासदी का अस्थाई स्वर भर बन कर रह जाएगा जिसकी परिणति स्वस्थ समरस समाज की राह खोलने में होगी।
उन में से एक घटना है जैट एयरवेज के 20-22 हजार कर्मचारियों का अचानक बेरोजगार होना। किसी का रोजगार छिन जाना केवल लाइफ लाइन का बन्द हो जाना नहीं होता, न ये कोई व्यक्तिगत बात होती है। बल्कि यह इंसान से इंसान की तरह जीने का अधिकार हड़प लेना है। रोजगार का महत्व सरकारें क्यों नहीं समझ पातीं, ये सोच कर बहुत अचरज होता है। रोजगार व्यक्ति को तो जीवन की सार्थकता मिलती ही है उसके बदले में वह जो उत्पादन करता है, समाज उसी से फलता-फूलता है। महिलाओं की सुरक्षा के निमित्त बने निर्भया फंड से लेकर अधिकतर फंड ठीक से काम में नहीं लाए जाते या यूँ ही पड़े रहते हैं फिर भी बेरोजगारी बढ़ती जा रही है।
न जाने कितने बैंकों और कम्पनियों की हालत पस्त है, जिनके साथ किंगफिशर और जैट एअरवेज जैसा कुछ होना लगभय तय है। खाते-पीते उपभोक्ता वर्ग के भी सड़कों में आने का जो सिलसिला सा बन गया है उससे मीडिया की सकारात्मक भूमिका के बिना भी लोग देर-सवेर समझ लेंगे कि कम्पनियों के बरबाद होने के बाद भी मालिकों की चाक-चौबन्द समृद्धि में कोई असर नहीं आता। अर्थ के शिखर पर खड़ा वर्ग हर हाल में रौशन बना रहता है। एकदम तल से अंधेरा पसरना जो शुरू होता है वह धीरे-धीरे ऊपर को बढ़ता जाता है और सारी रोशनी चोटी पर घनीभूत होती जाती है। तभी तो मौजूदा समय में देश के सर्वोच्च एक प्रतिशत लोगों के पास देश की 58.4 प्रतिशत दौलत है। इन अनुभवों से मध्य वर्ग अपनी पक्षधरता के लिए सही दिशा शायद चुन पाए और ऐसा हुआ तभी सामूहिक ताकत से अपने हिस्से के उजाले पाए जा सकेंगे। साथ ही अंधराष्ट्रवाद जैसी मिथ्या धारणाओं को भी तार-तार किया जा सकेगा।
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