नेटफ्लिक्स पर आलिया भट्ट के प्रोडक्शन हाउस एटरनल सनशाइन के बैनर तले बनने वाली पहली फिल्म ‘डार्लिंग्स’ आज शुक्रवार को रिलीज कर दी गई। घरेलू हिंसा की कहानी दिखाती, बताती यह फिल्म कैसी बनी है और इसे देखना चाहिए या नहीं? जानिए इस रिव्यू में।
घरेलू हिंसा चाहे महिलाओं के खिलाफ हों या दबे-छुपे तरीके से मर्दवादी समाज पर उसका विरोध तो होना ही चाहिए। आखरी किसी ने आपको जन्म दिया ही नहीं या दिया भी तो उसे बेहरम तरीके से मारने-पीटने का सर्टिफिकेट थोड़े ही पकड़ा दिया। बतौर प्रोड्यूसर आलिया भट्ट भी यही कहती- सुनाती है।
शराबी पति की पत्नी पहले तो उसी से शादी करना चाहती है कारण उसकी सरकारी नौकरी है। लेकिन असल कहानी घटने लगती है शादी के बाद और फिल्म सीधा तीन साल के ब्रेक के बाद अपने पत्ते खोलने में जुटती है। जहाँ सुबह-शाम -दिन-रात शराब पीने वाला आदमी एक तरफ तो अपनी बीवी से प्यार करते भी नजर आता है तो दूसरी तरफ उसी प्यार के नाम पर दरिंदगी से उसे मारता भी है। उसकी इसी दरिंदगी से तंग आकर उसकी बीवी बदला लेने पर उतारू हो जाती है। एक- दूसरे से बदला लेने की कहानी में कई खतरनाक मोड़ भी आते हैं जहाँ आप स्त्री-पुरुष दोनों के नजरिये से इस फिल्म को देख पाते हैं।
अपनी कहानी के बीच मेंढक और बिच्छू की अपनी के द्वारा सुनाई गई माँ की कहानी दिखाती यह फिल्म पुरुष और स्त्री वादी दोनों समाज के नजरिये से देखी जानी चाहिए कायदे से। इस फिल्म को देखते हुए आप यदि एक ही चश्में से इसे देखते हैं तो यह नाइंसाफी होगी। एक तरफ नाइंसाफी होगी उस महिला समाज के लिए जिसे यह फिल्म प्रमुखता से दिखाती है लेकिन दूसरी तरफ नाइंसाफी होगी उस पुरुष समाज के लिए भी जो अपनी ही बीवियों से या घर-परिवार की दूसरी महिलाओं के द्वारा सताया जा रहा है और महिलाएं अपने अधिकारों का बेजा फ़ायदा उठा पा रही हैं।
आलिया भट्ट पूरी तरह फिल्म में अपने कैरेक्टर को जीती नजर आती हैं। उन्हें चाहे ट्रोल करने वाले लोग कितने ही हों इस दुनियाँ में लेकिन समय-समय पर आलिया ने अपने उम्दा अभिनय से उन सभी को करारा जवाब भी दिया है। वहीं ‘शेफाली शाह’ जैसे स्टार लोग भले ही माया नगरी में बड़ा नाम हों लेकिन दुनियां उन्हें जानती भी है तो केवल उनके ऐसे ही उम्दा कामों के बारे में जिसमें लीड रोल मिलकर भी कोई प्रसिद्धि के चरम पर नहीं पहुँच पाता। वहीं ‘विजय वर्मा’ ग्रे शेड के किरदार को कुछ इस तरह घोट कर पिये हुए लगते हैं कि आप उन्हें हमजा ही मानने लगते हैं। बाकी साथी कलाकारों की अव्वल दर्जे की एक्टिंग की भी तारीफ तो बनती है।
निर्देशक जसमीत के रीन के निर्देशन में बनी यह फिल्म महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को भले ही दिखा रही हो लेकिन उस स्तर तक यह फिर भी नहीं पहुँच पाती जहाँ से इसे एक उम्दा फिल्म कहा जा सके। कई जगहों पर बीच-बीच में ढीली पड़ती इसकी लगाम उस लेवल तक पहुँचने में फिसलती है इतनी बार की जब-जब भी फिल्म की कहानी स्लो होती है यह उसमें तब-तब आपको पूरी तरह डूबने नहीं देती।
नेटफ्लिक्स या इसके निर्माता, निर्देशक ने इस फिल्म का नाम डार्लिंग्स ही क्यों रखा? पर विचार नहीं करना चाहिए था? डार्लिंग क्यों नहीं? क्या सिर्फ इसलिए की इसके किरदार हर बात में एक बार ज्यादा (एक्स्ट्रा) एस बोलते हैं। सिर्फ इसलिए?
फिल्म का एक कमजोर पहलू इसे डार्क कॉमेडी कहना और कॉमेडी का अंश मात्र भी नजर न आना है, उस पर स्क्रीनप्ले में कमियां। विशाल भारद्वाज का म्युजिक जरूर बेहतर है। एडिटिंग के मामले में काफी गुंजाइश छोड़ती इस फिल्म में अरिजीत सिंह की आवाज में गाया गया ‘लाइलाज’ गाना ही सुनने में काफी अच्छा लगता है। बाकी गानों का स्तर उम्दा न होने के कारण भी फिल्म उम्दा कहानी कहते हुए भी आपके भीतर किसी तरह का फेमिनिज्म नहीं पैदा कर पाती।
महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा पर सवाल उठाते-उठाते ये कब पुरुषों के खिलाफ दिखने लगती है आप पकड़ भी नहीं पाते। यही वजह है कि यह फिल्म दबे-छुपे तरीके से पुरुषों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ भी बात करती है।
अपनी रेटिंग – 2.5 स्टार
तेजस पूनियां
लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com

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