शहर हर किसी के लिए भाग्यशाली होते हैं। क्योंकि उस शहर में बचपन गुजरा होता है। पर कई शहर बदनसीब भी होते हैं। बदनसीब इस मायने में कि जिस शहर में जितने अधिक वृद्धाश्रम होंगे, वह शहर उतना ही अधिक बदनसीब होगा। वृद्धाश्रमों की संख्या से बदनसीबी कैसे मापी जा सकती है भला? वास्तव में शहर में वृद्धाश्रम का होना ही किसी कलंक से कम नहीं। श्राद्ध पक्ष में वृद्धाश्रम की बात करना बेमानी तो नहीं होनी चाहिए। जिन दिनों हमें अपने पुरखों को याद करना चाहिए, उन दिनों वे किसी वृद्धाश्रम की शोभा बढ़ा रहे होते हैं। क्या इन्हीं दिनों के लिए इन्होंने अपने बच्चों को काबिल बनाया? यह सवाल आज हर वृद्धाश्रम से दागा जा रहा है, पर जवाब कहीं से नहीं आता। आज हमारे देश के युवाओं का पराक्रम इन्हीं वृद्धाश्रमों में कैद है, जहाँ की दीवारों पर कलयुगी संतानों की गाथाएं अंकित हैं।
एक मेट्रोपोलिटन शहर के वृद्धाश्रम पर लगे एक बोर्ड ने ध्यान खींचा। इस वृद्धाश्रम में अगले दस साल के लिए कोई जगह खाली नहीं है। कृपया हमसे सम्पर्क न करें। क्या युवा पीढ़ी इतनी अधिक सचेत हो गई है कि आगे के दस साल के हालात पर सोचने लगी? यदि ऐसा है, तो वह आगे के 25 सालों के बारे में सोच ले, क्योंकि इसी सोच में ही छिपी है सच्चाई। क्योंकि तब तक उनके बच्चे उन्हें वृद्धाश्रम भेजने की तैयारी में होंगे। अपने माता-पिता का श्राद्ध कर रहे एक युवा से एक वृद्ध ने कहा-अपने माता-पिता की तस्वीर के आगे रोज दीया जलाना और उनकी पूजा करना, क्योंकि वे जीवित देव हैं। उनके आशीर्वाद के बिना आप एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते।
श्राद्ध पक्ष को निगेटिव यानी कड़वे दिन कहा जाता है। सभी को श्राद्ध करना चाहिए। श्राद्ध हमारी भारतीय संस्कृति से जुड़ा है। वास्तव में श्राद्ध पक्ष हमें यह बताता है कि हमें अपने पुरखों को दिल से थैक्यू कहना चाहिए। श्राद्ध को केवल खीर-पूड़ी के लिए नहीं पहचाना जाना चाहिए। होना तो यह चाहिए कि परिवार के सभी सदस्य एक साथ बैठकर हंसी-खुशी के बीच पुरखों को याद करते हुए खीर-पूड़ी खाएं, ताकि आकाश में विचरते हमारे पूर्वज यह देखकर खुश हों, उन्हें लगे कि हमारी अनुपस्थिति में भी हमारे बच्चे धरती पर एक होकर रह रहे हैं। इस तरह के दृश्य देखकर वे तृप्त होते हैं।
मनुष्य की यह प्रवृत्ति है कि वह घर में उपेक्षित रहने वाले माता-पिता को छोड़कर अपने इष्ट देव पर अधिक ध्यान देता है। जबकि साक्षात ईश्वर के प्रतीक के रूप में घर में रहने वाले माता-पिता ही हैं, जिनके आशीर्वाद में बेटा प्रगति कर रहा होता है। होना तो यह चाहिए कि सुबह इष्ट देव की पूजा के पहले माता-पिता की पूजा होनी चाहिए। क्योंकि उन्होंने ही हमारे जीवन का सिंचन किया है। इन्हें कदापि नहीं भूलना चाहिए। विदेशों में श्राद्ध पक्ष को एक अलग ही तरीके से देखा जाता है। वे इसे “थैक्स गिवींग डे” के रूप में मनाते हैँ। आज की पीढ़ी के लिए यह मजाक का विषय हो सकता है कि भला कौवे हमारी पूर्वजों का प्रतीक कैसे हो सकते हैं? फिर कौवा ही क्यों, दूसरा पक्षी क्यों नहीं? अक्सर उनके इस प्रश्न का उत्तर देना बड़े लोग टाल देते हैं, पर सनातन धर्म में इन सभी प्रश्नों का उत्तर है। तो ये रहा, युवाओं के सवाल का जवाब…
आप सभी ने देखा होगा कि पीपल और बड़ के पेड़ कहीं भी लग जाते हैं। किसी दीवार पर या फिर कुएं पर। आखिर ऐसा क्यों होता है? यह कभी जानने की कोशिश की किसी ने? विज्ञान विषय के विद्यार्थी जिन्होंने वनस्पति शास्त्र पढ़ा है, उन्हें पता होगा कि इन पेड़ों को सीधे बीज के माध्यम से नहीं लगाया जाता। इनके बीजों को कौवे या चिड़िया खाते हैं, जब ये बीज उनके मल से विष्ठा के माध्यम से बाहर आता है, तभी ये कहीं भी लग पाते हैं। अर्थात् कौवे के मल से निकलने वाले पीपल या बड़ के बीज ही पेड़ बनने में सक्षम होते हैँ। पीपल के वृक्ष की एक विशेषता यह होती है कि वह 24 घंटे आक्सीजन छोड़ता है।
दूसरी ओर बड़ का वृक्ष अनेक औषधीय गुणों से भरपूर होता है। अब आते हैं कौवे की दूसरी बात पर। मादा कौवा श्रावण में अंडे देती है। एक महीने बाद ही उससे बच्चे निकलते हैं। जब तक ये बच्चे स्वयं उड़कर पूरी तरह से सक्षम नहीं हो जाते, तब तक इनकी मां इन्हें घोसले से बाहर नहीं जाने देती। तब तक वह इनके लिए भोजन की प्रबंध करती रहती है। इसलिए कभी किसी ने कौवे के बच्चे को शायद ही कभी देखा होगा। कौवे के बच्चे जब तक घोसले में रहते हैं, तब तक मानव जाति मादा कौवे को खीर-पूड़ी आदि देती है। इस तरह से कौवे के बच्चों का पोषण होता है। श्राद्ध पक्ष के दौरान बच्चे स्वतंत्र रूप से शिकार करने में सक्षम हो जाते हैं। इसलिए इन दिनों कौवों के बच्चों के पालन-पोषण का काम मानव जाति पर छोड़ा गया है। जिसे अभी तक परंपरागत रूप से निभाया जा रहा है।
जिनके माता-पिता वृद्धाश्रमों में हैं, उन्हें तो श्राद्ध मनाना ही नहीं चाहिए। वृद्धाश्रम समाज के लिए किसी कलंक से कम नहीं हैं। एक बात को सभी ने समझा होगा, श्रमजीवी परिवारों में जहाँ वृद्धों को दो वक्त का भोजन मिल जाता है, वहाँ वृद्धाश्रम की संस्कृति नहीं पनप पाई है। समझ में नहीं आता है कि यह बात आखिर क्यों गले नहीं उतरती कि जो आज आप अपने माता-पिता के लिए कर रहे हैं, वही कल यदि आपके बच्चे करेंगे, तो आपकी क्या हालत होगी। यह एक सच्चाई है, जो पहले नहीं बाद में समझ में आती है। इतनी सारी सामाजिक संस्थाएं आज तक कोई ऐसा काम नहीं कर पाई है, जिससे वृद्धाश्रमों की संख्या में कमी आए।
श्राद्ध के साथ कौवों का संबंध गरुड़ पुराण में भी मिलता है। कौवे को यमराज का मैसेंजर कहा गया है। श्राद्ध के समय एक बार तो वृद्धाश्रम जाकर वहाँ बुजुर्गों की हालत अवश्य देखनी चाहिए। इन दिनों दान का विशेष महत्व होता है, यदि वृद्धाश्रमों में दान किया जाए, तो शायद वह फलित हो।
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महेश परिमलJun 09, 2019डोनेट करें
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