‘लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ ‘ यह नए हिंदुस्तान की नींव रखने वाला एक नारा नहीं, एक सोच है । यह नए भारत का आह्वान है। आधी आबादी को बराबरी का वादा करता है। लोकतन्त्र को यह नया आयाम देता है, ऐसे समय में जब कि महिलाओं के लिए तैंतीस प्रतिशत आरक्षण का बिल बरसों से खटाई में पड़ा है । स्त्रियों का मन इससे खट्टा है। स्त्री-उन्नयन बट्टे में है।
देश की आजादी को होने आए पचहत्तर साल। इन पचहत्तर सालों में स्त्री सशक्तिकरण का मुद्दा बहुत गरमाया रहा है। साहित्य और समाज में विभिन्न मंचों पर खूब बातें हुईं हैं, बहसे हुईं हैं इस पर, लेकिन राजनीति में यह हमेशा ठंडे बस्ते में रहा। जबकि वोट देने के मामले में स्त्रियां पुरुष से आगे रही हैं। आंकड़ें ऐसा ही बताते हैं।
डॉ. विजय बहादुर सिंह की काव्य पंक्तियां हैं :
हवाओं से आगे आगे
भागी जा रही हैं लड़कियां
घटाओं सी उमड़-घुमड़ रही हैं
बादलों से भी ऊपर
समय के बासी पुराने हो चुके चेहरे
पर
अपनी ताजगी का रंग पोतते हुए…
लड़कियां अब समय हो गई हैं
यह सच है कि आजादी के बाद लड़कियों के लिए बहुत सारे बंद दरबाजे धायं धायं खुले हैं और लड़कियों ने भी ताबड़तोड़ झंडे गाड़े हैं। लेकिन राजनीति के अखाड़े में स्त्रियां अपने थैया थैया चल कर नहीं आई हैं। जब भी आईं, किसी न किसी के कंधे पर बैठ कर ही आईं। इंदिरा गांधी , जयललिता और मायावती भी। ममता बनर्जी अपना हाथ पांव तुड़वा कर ही राजनीति के अखाड़े में अपने पांव पर खड़ी हुईं। आजाद भारत में राजनीति का परिवेश कुछ ऐसा ही बना कि स्त्रियों में राजनीति के लिए हिचक बढ़ती ही गई। जो आईं, वे पिछले दरवाजे से आईं। पिछले विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी की ओर से अपेक्षाकृत कुछ अधिक महिलाओं को टिकट दिया। जितना टिकट दिया उनमें से चालीस प्रतिशत महिलाएं जीत गईं।
हालांकि इनमें से किसी ने भी अपनी राजनीतिक पहचान नहीं बनाई है। हाल की घटना यह है कि उत्तर प्रदेश के आसन्न विधान सभा चुनाव में काँग्रेस ने चालीस प्रतिशत टिकट स्त्रियों को देने की घोषणा की है। इस चालीस प्रतिशत का चालीस प्रतिशत भी अगर जीत गईं, तो काँग्रेस की ओर से विधानसभा में चौसठ महिलाएं होंगी। यह विधानसभा की कुल सीट का सोलह प्रतिशत होगा। अगर बाकी राजनीतिक पार्टियों ने मिल कर भी इतनी महिलाएं और भेज दी तो उत्तर प्रदेश विधानसभा में एक सौ बीस से एक सौ पच्चीस स्त्रियां बैठेंगी। यह संख्या कुल सीट का लगभग तैंतीस प्रतिशत होगी। स्त्रियों को एक साथ विधानसभा तक पहुंचाने का यह रास्ता बनाने का श्रेय नि:संदेह काँग्रेस को जाएगा। काँग्रेस के हिस्से इतिहास में ऐसे अनेक मामले हैं जिससे भारत एक नई दिशा में चलने लगता है। स्त्रियों को राजनीति की मुख्यधारा में ले जाने के लिए काँग्रेस ने बुलेट यान बनाया है।
मामला केवल राजनीति तक सिमट कर नहीं रह जाएगा। इससे स्त्रियों में पहचान बनाने की लगन लपट की हद तक पहुंच जाएगी। पहचान बनाने की आग पहले से ही है। जो आग है, काँग्रेस ने उसे पहचाना है। संभव है इसीलिए काँग्रेस को लोग नए सिरे से पहचानने लग जाएंगे। काँग्रेस की नई पहचान उत्तर प्रदेश से विस्तार पाकर राष्ट्रव्यापी हो जाएगी। स्त्रियां दिल्ली तक पहुंच जाएंगी।
लड़की हूँ लड़ सकती हूँ की सोच सामाजिक स्तर पर भी आलोड़न का कारण बन सकती है । हालात संक्रामक हो सकते हैं। साहस संक्रामक होता है। साहस को आमंत्रण करने का यह दूसरा अवसर है हाल फिलहाल के समय में। साहस का पहला अलख सिलसिले वार ढंग से किसानों ने जगा रखा है एक साल से। लगता है जैसे वे लंबी दांडी यात्रा पर हों। ऐसे समय में जब डर को सर्वव्यापी बना दिया गया हो, साहस का एक कदम भी आंखों में उजास पैदा करता है। लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ, सामाजिक अलख का एक संगीत बन सकता है। भारतीय राजनीति में जाति और धर्म की जो जहर भरी नहर बनाई गई है, उसका विषैलापन कुछ कम होगा।
उत्तर प्रदेश में नवरात्र का विशेष महत्व है। नवरात्र में घर घर दुर्गा पाठ होता है, कलश की स्थापना होती है और नौवें दिन नौ कन्याओं की पूजा होती है और उन्हें भोग लगाया जाता है। बनारस शिव का नगर है। बनारस में शिव दर्शन के बाद नवरात्र के आखिरी दिन दुर्गा पाठ के साथ काँग्रेस ने अपना चुनाव अभियान आरम्भ किया है। यह एक संकेत था। यह महज दिखनौटा नहीं था, यह तब साफ हो जाता है जब काँग्रेस चालीस प्रतिशत टिकट महिलाओं को देने की घोषणा करती है। यह दुर्गा पाठ के बाद की दूसरी कड़ी थी। सत्ता के केंद्र में स्त्री शक्ति की प्रतिष्ठा का यह संकल्प है। काँग्रेस ने नौकरियों में भी लड़कियों को चालीस प्रतिशत हिस्सा देने का वादा किया है। काँग्रेस एक नया इतिहास लिख रही है। संभवतः स्त्रियों के लिए चालीस प्रतिशत के आरक्षण की पूर्व भूमिका है यह।
काँग्रेस का इतिहास इतिहास लिखने का इतिहास है। आजाद भारत में भी काँग्रेस ने इतिहास खूब लिखा है। जब इसने इतिहास खराब किया तो लोक निर्वासन भी खूब भोगा है। लगता है लोक निर्वासन का दौर खत्म हुआ अब। वह भी ऐसे दौर में जब इतिहास बदल कर इतिहास बनाने का काम ऐतिहासिक वेग से किया जा रहा हो। काँग्रेस का नया उदय इस ऐतिहासिक वेग को इतिहास बना सकेगा, यह विश्वास जागता है। काँग्रेस नए सिरे से लोक जगाने का काम कर रही है। जगा लोक लोकतन्त्र की आँख है।
आजादी के अमृत महोत्सव का दौर है। आजादी का अमृत महोत्सव यानी लोकतन्त्र का अमृत महोत्सव। उम्र के हिसाब से भले ही अमृत महोत्सव आ गया हो, मगर वह अभी कच्चा है। भारतीय लोकतन्त्र में कच्चापन इसलिए भी है कि इसमें स्त्रियों की भागीदारी न्यूनतम है। आबादी के हिसाब से इतना कम कि प्रतिशत निकालने की मशक्कत भारी है। अमृत महोत्सव का योगासन तभी सार्थक होता जब वहां से लोकतन्त्र के स्वास्थ्य के लिए नई दृष्टि भी मिलती। फिलवक्त नया भारत बनाने का बड़ा हो हल्ला है, मगर उसमें स्त्रियों के लिए कितनी नई उम्मीदें हैं? लोकतन्त्र के पचहत्तरवें साल में काँग्रेस ने स्त्री शक्ति के विस्तार का नया दौर आरम्भ किया है। आठ मार्च महिला दिवस होता है। दो हजार बाईस के महिला दिवस पर उत्तर प्रदेश के विधान सभा में एक नई रौनक दिखेगी, जिससे पूरा हिंदुस्तान जगमगा उठेगा। अब राजनीति में स्त्रियां किसी के कंधे पर सवार होकर नहीं, अपने पांव चल कर आएंगी, ऐसा भरोसा बनता है।
मृत्युंजय
लेखक प्रबुद्ध साहित्यकार, अनुवादक एवं रंगकर्मी हैं। सम्पर्क- +919433076174, [email protected]
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यह स्त्री विमर्श है या कांग्रेस का महिमा मंडन। हर दिल इस तरह के तमाम पैंतरों का इस्तेमाल महज अपने फायदे के लिए करता है, आम आदमी से उसे विशेष कुछ लेना देना नहीं होता है। स्त्रियों का भावनात्मक दोहन साहित्य में बखूबी हुआ है और राजनीति भी इसमें पीछे नहीं हैं।
निश्चित रूप से स्त्री शक्ति की आई एक नई लहर से पूरा हिंदुस्तान जगमगा उठेगा…. बहुत ही सुंदर लेख …….लेखक को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
Very pertinent article.