काला पानी जाने वाले क्रांतिकारियों में उल्लासकर दत्त अनोखे जीवट के व्यक्ति थे। ‘अलीपुर शड्यंत्र’ मामले में पहले उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई थी लेकिन अपील में उसे घटाकर आजीवन काले पानी में तब्दील कर दिया गया। आज कौन जाने कि अंडमान जेल के अत्याचारों से तंग आकर उल्लासकर पागल हो गए थे। छूटकर उन्होंने अंडमान पर पुस्तक लिखी जो अब अप्राप्य है। शचिन्द्रनाथ सान्याल के अनुसार उल्लासकर ने ही अंडमान की यातनाओं को जान-समझकर कहा था-हाड़ खाबे मांस खाबे चामड़ा दिए डुगडुगी बाजाबे। यानी वे हमारी हड्डियां चबा जाएंगे, मांस खा जाएंगे और चमड़े की ढोलक बनाकर बजाएंगे। उल्लासकर दत्त के पिता कलकत्ता के निकट शिवपुर में इंजीनियरिंग कालेज के प्रोफेसर थे। क्रांतिकारी वारीन्द्र कुमार घोष आदि के दल में शमिल होने से पूर्व उल्लासकर ने अपने घर में ही एक रसायनागार बना लिया था और वहां पर विस्फोटक पदार्थों के प्रयोग करने लगे थे। वे बहुत अध्यात्मिक प्रकृति के और अत्यंत चिंतनशील व्यक्ति थे। उनका जन्म अविभाजित बंगाल के त्रिपुरा जेल में उनकी ननिहाल में 16 अप्रैल 1885 को हुआ था। उनकी मां मुक्ताकेशी कलिकाच्छा गांव की रहने वाली थीं और पिता द्विजलाल दत्त भी वहीं के रहने वाले थे। प्रारम्भिक शिक्षा उल्लासकर की कलिकाच्छा गांव में ही हुई। 1903 में कोमिल्ला जिला स्कूल से प्रवेशिका (मैट्रीकुलेशन) परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कालेज में दाखिल हो गए। लेकिन 1905 में एफए की अंतिम परीक्षा में बैठने के कुछ समय पहले ही किसी अंग्रेज अध्यापक के अपशब्दों के विरोध में उन्होंने कालेज छोड़ दिया। इसके बाद तो उनके जीवन की दिशा ही परिवर्तित हो गई। उन्होंने यूरोपीय वेशभूशा का त्याग कर बंगाली ढंग के कपड़े पहनना षुरू कर दिया। स्वदेशी आंदोलन में उनकी हिस्सेदारी उन्हें और भी उग्र बनाती चली गई। वे प्रेसीडेंसी कालेज में ही थे तभी उनका संपर्क वारीन्द्र कुमार घोष से हो गया था। कहा जाता है कि वारीन्द्र-दल उनके सम्मिलित हो जाने से बहुत सशक्त हो गया था। इस दल ने सबसे पहले बंगाल के तत्कालीन लेफ्टीनेंट गवर्नर पर प्रहार करने का प्रयत्न किया। 1907 के अक्टूबर से दिसम्बर तक सुरंग बिछाकर उसे मारने के अनेक प्रयत्न किए पर उनमें किसी तरह कामयाबी नहीं मिली। विस्फोटक उल्लासकर ने ही तैयार किए थे। वे बम बनाने की कला सीख चुके थे। जो मुजफ्फरपुर कांड हुआ था उसके 32 घंटे के भीतर ही 2 मई 1908 को कलकत्ता के कई स्थानों पर छापे मार कर युगांतर दल के कई सदस्यों को पकड़ लिया गया। मानिकतल्ला के मुरारीपुकर मकान में वारीन्द्र कुमार घोष, उपेन्द्र बनर्जी, उल्लासकर दत्त और 12 अन्य क्रांतिकारी पुलिस की गिरफ्त में आ गए। उल्लासकर को अलीपुर कांड में फांसी की सजा सुनाई गई। अदालत में जब यह निर्णय उद्घोषित किया गया तब वे वहीं रवीन्द्रनाथ ठाकुर का गीत ‘सार्थक जन्म आमार जन्म छि ए देशे’ (मेरा जीवन सार्थक हुआ कि मेरा जन्म इस देश में हुआ है) गाने लगे। यह सुनकर न्यायाधीश सहित सभी की आंखें नम हो गईं। मुकदमे के दौरान बयान देते समय उल्लासकर ने यह कह कर गौरव अनुभव किया था कि ‘अमुक बम ने अमुक स्थान पर जो भैरव-लीला दिखाई थी, वह मेरे ही हाथ का बना हुआ था।’ फांसी की सजा के विरूद्ध वे अपील करने के लिए तैयार नहीं हुए लेकिन बहुत दबाव पड़ने पर उन्होंने ऐसा किया जिससे उनकी सजा आजीवन कारावास में बदल दी गई। 1910 में अंडमान भेजे गए तब जहाज में उन्होंने देशभक्ति के गाने गाते हुए काला पानी तक की यात्रा पूर्ण की। लेकिन अंडमान की यातनाओं से पागल होकर वे 1912 में स्वदेश लौटे। उनका जेल जीवन अत्यंत कष्टमयी और संघर्षपूर्ण रहा। वे कैद में रहकर भी साम्राज्यवाद के विरूद्ध अपनी लड़ाई को उसी तरह जारी रखे रहे। उनका मानना था कि बागी बागी ही है, चाहे वह जेल के बाहर हो या भीतर। वह किसी सरकारी आदेश का पालन नहीं करेगा। हुक्मरानों का कहना मानना शोशक और अन्यायी व्यवस्था को बनाए रखना होगा। अपनी इसी लड़ाई के दौरान एक बार उन्होंने जेल के भीतर कड़ी धूप में ईंट की भट्ठी पर काम करने से मना कर दिया। इस पर उन्हें कोठरी में बंद कर खड़ी हथकड़ी की सजा दे दी गई। उन्हें दीवार में लगे लोहे के छल्ले से बांध कर खड़ा कर दिया गया। आम तौर पर कैदियों को इस तरह की सजा एक दिन में 8 घंटे तक ही देने का नियम था जो लगातार सात दिन से अधिक नहीं हो। पर उनके लिए इस नियम की अनदेखी की गई। इस लंबी सजा के दौरान उन्हें बुखार रहने लगा जो 103 डिग्री तक पहुंच गया। इस उत्पीड़न से तंग आकर जब वे बेहोश हो गए तभी उन्हें अस्पताल ले जाया गया। वह 10 जून 1912 की तारीख थी जब उन्हें होश आया लेकिन वे पागल हो चुके थे।। अंडमान की दवाइयों से जब कोई लाभ नहीं हुआ तब उन्हें मद्रास के पागलखाने में भेज दिया गया। इसके बाद उन्हें दूसरे पागलखानों में भी रखा गया, पर वे ठीक नहीं हुए। 1920 में वे रिहा कर दिए गए। कहा जाता है कि वे जीवनपर्यंत पागल ही रहे और 17 मई 1965 को उनका देहान्त हो गया।
लेकिन उल्लासकर के जीवन की एक कथा और भी है। सान्याल जी ने अपनी पुस्तक ‘बंदी जीवन’ में लिखा है कि प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता विपिनचन्द्र पाल की एक कन्या के साथ उनका प्रणय हो गया था और विवाह की बात स्थिर हो चुकी थी, परन्तु इस बीच अलीपुर षड़यंत्र मामले में उल्लासकर की गिरफ्तारी हो जाने के चलते इसमें व्यवधान पड़ गया। सान्याल जी कहते हैं कि उस लड़की ने फिर शादी नहीं की। लेकिन एक अन्य सूचना के अनुसार विपिनचन्द्र पाल की पुत्री लीला 1922 में ब्रिटेन चली गईं और उन्होंने विवाह करके नया जीवन प्रारंभ कर दिया। लगभग 25 वर्षों बाद 1946 में उल्लासकर और लीला का पुनर्मिलन हुआ लेकिन वह स्थिति बड़ी विचित्र थी। लीला विधवा और अपंग हो चुकी थीं। इन परिस्थितियों के मध्य 1948 में 63 वर्ष की उम्र में वे दोनों विवाह बंधन में बंध गए। कुछ समय बाद उल्लासकर सिलचर में जा बसे। उनका कहना था कि विभाजित बंगाल में उनका दम घुटता है। वहीं सिलचर में 1958 में लीला की मृत्यु हुई और उसके बाद 17 मई 1965 को 81 वर्श की उम्र में उल्लासकर भी चल बसे। और इस तरह एक अद्भुत क्रांतिकारी के संघर्षपूर्ण जीवन का अंत हो गया।
तो क्या सचमुच उल्लासकर पागल हो गए थे? जिस स्थिति में उन दिनों लोगों ने उन्हें देखा था तब क्या उनकी बुद्धि ने काम करना बंद कर दिया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 1929 का लाहौर अधिवेशन के बाद वे 26 जनवरी को कुमिल्ला में तिरंगा फहराने के लिए जरूर उपस्थित होते। ऐसे ही एक अवसर पर वहां गोमती नदी में हुई नाव दुर्घटना ने उन्हें अत्यंत विचलित कर दिया। उन्होंने तय किया कि वे अगली बार तिरंगा फहराने जाने पर एक ऐसी नाव बनाएंगे तो कभी नहीं डूबेगी। अगले वर्ष एक बक्सानुमा नाव जल में उतारकर उन्होंने अपने वचन को पूरा कर दिखाया। कहा जाता है कि वह नाव किसी भी स्थिति में डूब नहीं सकती थी। यद्यपि वह इस्तेमाल के योग्य नहीं थी, पर इससे जहां क्रांतिकारी उल्लासकर की वैज्ञानिक बुद्धि का हमें साक्ष्य मिलता है, वहीं यह सोचने के लिए भी हम विवश होते हैं कि क्या सचमुच उल्लासकर विक्षिप्त हो गए थे। सान्याल जी कहा करते थे कि अंडमान के डिप्टी कमिश्नर लुइस साहब उल्लासकर के विषय में बहुत ऊंचे विचार रखते थे। ऐसा उन्हें क्रांतिकारी वारीन्द्र ने बताया था। वारीन्द्र और उपेन्द्र के बयानों में भी हमें उल्लासकर के योगदान का उल्लेख मिलता है। उल्लासकर दत्त सचमुच बहुत साहसी और बुद्धिमान व्यक्ति थे। क्रांतिकारी इतिहास उनके नामोल्लेख के बिना पूरा नहीं होता।
सुधीर विद्यार्थी
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