कहीं पर नज़रें,कहीं पर निशाना : जेएनयू की कुलपति के विरोध की वास्तविक वजहें!
राजधानी दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की पहली महिला कुलपति प्रोफ़ेसर शांतिश्री धूलिपुडी पण्डित की नियुक्ति विवाद का विषय बना दी गयी है। तीन साल पहले ही अपनी स्वर्णजयंती मना चुके देश के इस प्रतिष्ठित उच्च शिक्षा संस्थान के कुलपति के रूप में नियुक्त होने वाली वे पहली महिला शिक्षाविद् हैं। वे पिछड़े वर्ग से आने वाली दक्षिण भारतीय हैं। वे इसी विश्वविद्यालय की पूर्व-छात्रा भी हैं। इसलिए यह उपलब्धि विशेष रूप से स्वागतयोग्य और सराहनीय है। परन्तु, उनकी नियुक्ति अधिसंख्य लेफ्ट-लिबरल बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और अभिजात्यवादी राजनेताओं को रास नहीं आयी है। इन ‘विरोध-वादियों’ में योगेन्द्र यादव, वरुण गाँधी और शशि थरूर आदि प्रमुख हैं।
प्रोफ़ेसर शांतिश्री ने कुलपति नामित किये जाने के बाद अपनी कार्यशैली, प्राथमिकताओं और भावी योजनाओं के बारे में मीडिया में एक बयान जारी किया था। वरुण गाँधी जैसे अँग्रेजी के अघड़धत्त विद्वान ने उनके इस बयान में अँग्रेजी भाषा और व्याकरण की अशुद्धियों को रेखांकित करते हुए उनके अँग्रेजी भाषा ज्ञान पर सवाल खड़े किये और उसे ‘निरक्षरता का प्रदर्शन’ करार दे दिया। वरुण गाँधी ने ट्वीट करते हुए लिखा कि ‘औसत दर्जे की नियुक्तियां हमारी मानव पूँजी और युवाओं के भविष्य को नुकसान पहुंचाती हैं।’
इसी तरह योगेन्द्र यादव ने उनके ऊपर कटाक्ष करते हुए ट्वीट किया कि -‘मिलिए जेएनयू की नई वीसी से। ये साफ़ तौर पर अपने छात्रों और फैकल्टी के लिए स्कॉलरशिप का एक आदर्श मॉडल हैं।’ कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने भी जेएनयू में किसी (नयी कुलपति) को अँग्रेजी ट्यूशन की जरूरत होने की बात कहते हुए शांतिश्री का मखौल उड़ाया। विरोध-वादियों की यह मंडली उनके बयान का पोस्टमार्टम करते समय अँग्रेजी भाषा और व्याकरण की जगह उनके भावों, विचारों और दृष्टिकोण पर ध्यान देती तो उनका विरोध ज्यादा तर्कसंगत और औचित्यपूर्ण होता। संभवतः विरोध की झोंक में वे यह भूल गए कि भाषा माध्यम मात्र है, मूल नहीं। माध्यम मंतव्य का स्थानापन्न नहीं हो सकता। भाव से ज्यादा भाषा पर बलाघात श्रेष्ठता ग्रंथि का फलागम है।
उल्लेखनीय है कि सेंट पीटर्सबर्ग में जन्मीं शांतिश्री ने जनेवि के अलावा प्रेसीडेंसी कॉलेज, चेन्नई और कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी से अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त की है। उन्हें हिन्दी, संस्कृत, तमिल, तेलगु, कन्नड़, मराठी और कोंकड़ी आदि आधा दर्जन से अधिक भारतीय भाषाओं का ज्ञान है। उनके माता-पिता भी उच्च शिक्षित और उच्च पदस्थ रहे हैं। इस नियुक्ति से पहले वे पुणे स्थित सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय की कुलपति भी रही हैं।
विचारणीय बात यह है कि इतनी पढ़ी-लिखी और प्रबुद्ध प्रोफ़ेसर शांतिश्री धूलिपुडी पण्डित का इतना विरोध क्यों किया जा रहा है? जो कहा और दिखाया जा रहा है; क्या विरोध का वास्तविक कारण वही है या कुछ और है? इस विरोध की वजहों की गहराई से पड़ताल करने पर पता चलता है कि इसकी दो वास्तविक वजहें हैं- पहली, वामपंथी-कांग्रेसी विचारधारा का कॉकटेली वर्चस्व और दूसरी, अभिजात्यवादी और अँग्रेजीदां श्रेष्ठता ग्रंथि।
दरअसल, विरोध प्रोफ़ेसर शांतिश्री का नहीं किया जा रहा है; बल्कि उस विचारधारा का किया जा रहा है; जिससे वे जुड़ी हुई हैं। वे सनातन संस्कृति और राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रति आस्थावान हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अपने स्थापना-काल से ही वामपंथी विचारधारा का गढ़ रहा है। यह सर्वज्ञात और सर्वस्वीकृत तथ्य है कि राष्ट्रवादी विचार, छात्रों और शिक्षकों के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के द्वार पर प्रवेश निषेध की अदृश्य तख्ती लगी हुई थी।
निवर्तमान कुलपति प्रोफ़ेसर एम. जगदीश कुमार ने अभूतपूर्व वैचारिक संघर्ष वाले अपने 6 वर्ष के कार्यकाल में वामपंथी वर्चस्व को संतुलित करने की कोशिश की है। अब वहाँ राष्ट्रवादी छात्रों, शिक्षकों और विचारों के लिए भी कुछ गुंजाइश बनी है। शांतिश्री द्वारा भी विचारधारा विशेष के घटाटोप कुहासे को छाँटते हुए अन्य विचारों को फलने-फूलने की अकादमिक जगह बनाये जाने की सम्भावना है। इसलिए विरोध-वादियों की चिंता जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अकादमिक स्तर के गिरने की नहीं, बल्कि ‘लाल किले’ के क्रमशः ढहने की है।
विश्वविद्यालय विचारधारा विशेष की किलेबंदी के स्थान नहीं। इसीलिए प्रोफ़ेसर जगदीश कुमार ने प्रवेश-निषेध की तख्ती को उखाड़ फेंका था। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय भी भारत में ही है; और भारतवासियों की खून-पसीने की कमाई से अर्जित कर से संचालित होता है। फिर इसके परिसर में भारत और भारत की संस्कृति की बात करना कैसे प्रतिबंधित हो सकता है! भारत के टुकड़े करने और कश्मीर की आज़ादी के नारे लगाने वालों के बरक्स भारत माता की जय और वन्दे मातरम् के नारे लगाने वालों का प्रवेश निषेध क्यों और कब तक रहता! मार्क्स, माओ और चे ग्वेरा के साथ-साथ अब परिसर में स्वामी विवेकानन्द, वीर सावरकर और पण्डित दीनदयाल उपाध्याय का भी नाम सुनाई पड़ने लगा है।
दरअसल, यह विरोध शांतिश्री का नहीं, स्वामी विवेकानंद, वीर सावरकर और पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों का है। भारत माता की जय और वन्दे मातरम् के नारों का है। सनातन संस्कृति और भारतीय जीवन-मूल्यों और दर्शन का है।
प्रोफ़ेसर शांतिश्री के विरोध की दूसरी वजह दलितों-पिछड़ों और महिलाओं की भागीदारी को सीमित करने वाली सामन्तवादी-अभिजात्यवादी सोच है। यही सोच महिलाओं के समुचित प्रतिनिधित्व के प्रस्ताव महिला आरक्षण की राह का भी रोड़ा है। महिला सशक्तिकरण का ढोल बजाने वालों की महिला विरोधी मानसिकता ऐसे प्रकरणों से गाहे-बगाहे उजागर हो जाती है। योग्यता के स्वघोषित ऊँचे मानदंडों की आड़ में वंचित-वर्गों की वंचना के स्थायीकरण की यह साजिश प्रोफ़ेसर शांतिश्री की नियुक्ति के विरोध से जगजाहिर हो गयी है। यह औपनिवेशिक और अभिजात्यवादी मानसिकता ही है जोकि अँग्रेजी भाषा के ज्ञान को ही योग्यता का चरम मानदंड मानती है।
इसी तथाकथित योग्यता की आड़ में वंचित वर्गों का तिरस्कार, बहिष्कार और शिकार करती है। शांतिश्री जैसी शानदार अकादमिक पृष्ठभूमि वाली महिला का विरोध करने वाले ये कुलीन विद्वान हिन्दीपट्टी के गाँव-देहात की पहली पीढ़ी की दलित महिला की नियुक्ति होने पर तो उसको घुसपैठिया घोषित करके धरने पर ही बैठ जाते! यह पश्चिमप्रेरित कुलीनता ही बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर द्वारा प्रतिपादित सामाजिक न्याय, समता, समरसता और समान अवसरों की संकल्पना को सिरे नहीं चढ़ने देती। भारत की शिक्षा-व्यवस्था आज़ादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी अँग्रेजी चश्मा चढ़ाये ऐसे मैकॉले-पुत्रों की गिरफ़्त में है। शांतिश्री ने अपने बयान में राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 को लागू करते हुए भारत-केन्द्रित चिंतन और पाठ को स्थापित करने का संकल्प व्यक्त किया है। तकलीफ की असली वजह यही है। शांतिश्री के कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि यही होगी कि वे ऐसी आधारहीन आलोचना की परवाह न करते हुए शिक्षा को मैकॉले-पुत्रों के शिकंजे से मुक्त करते हुए उसका भारतीयकरण करें।