अवमूल्यन के दौर में रामकाव्य
इक्कीसवीं शताब्दी एक विशेष संदर्भ में अवमूल्यन की छायाओं के नीचे साँस ले रही है। समूची दुनिया शांति, सद्भाव और भाईचारे के स्थान पर आक्रामकता, गर्वोक्तियों और मूल्यहीनताओं के घेरे में है। हमारा सोच-विचार भी बाँझ बनाया जा रहा है। राम काव्य की चर्चा यूँ तो इस दौर मे बहुत है; लेकिन उसके मूल्य, व्यावहारिकता और आदर्श हमारे आचरण में नहीं है। हाँ, उनका निरंतर उद्घोष होता रहा है, बल्कि यह भी कह सकते हैं कि व्यावहारिक धरातल पर हमारी हूहों और गर्वोक्तियों में रामकाव्य बज रहा है। तथाकथित आस्था के झांझ-मंजीरें बजाने से मानवीय मूल्यों और नैतिकताओं को पालित-पोषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनमें एक खोखलापन होता है।
किसी भी तरह के प्रतिरोध को समाप्त करते हुए एक तरह की नकारात्मकता विकसित की जा रही है। हमारे साझेपन को, बहुलता को दरकिनार किया जा रहा है। हमारी सांस्कृतिक धाराओं को असहमतियों से छेंका जा रहा है। भक्ति-कविता ने अपने दौर में सामान्य जनता के बीच बड़े लोगों के वर्चस्व को हटाकर सामान्य जनता से जुड़ने का प्रयत्न किया था। भले ही भक्ति की दो धाराएँ थीं— सगुण एवं निर्गुण; लेकिन वे सामानांतर होते हुए भी छोटे वर्गों तक पहुँची थीं। उनकी पैठ छोटी जातियों और अस्पृश्य लोगों के बीच भी थी। श्रीराम ने केवट को गले लगाकर और शबरी के जूठे बेर खाकर यह मिसाल पेश की थी। राम में सत्ता की लोलुपता बिल्कुल नहीं थी; उन्होंने लंका-विजय के पश्चात् वहाँ का राज-पाठ बिना किसी हिचक के योग्य और सदाचारी विभीषण को सौंप दिया—
“जो संपति सिव रावनहि, दीन्हि दिए दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि,सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥”
भक्तिकालीन कविता ने असमंजसों के बीच भी मनुष्यता का बृहद लोक उजागर किया था। भक्ति कविता तमाम अंतर्विरोधों के बीच जनजीवन को केन्द्र में रखने वाली कविता रही है, जिसका व्यापक परिप्रेक्ष्य मनुष्य का सुधार ही था। क्या अब ऐसा संभव है? अब तो उनके नाम का उद्घोष करते हुए किसी की हत्या बड़े आराम से की जा सकती है। इसमें कोई लज्जा न संकोच, एकदम सहज भाव से।
रामकाव्य का परिप्रेक्ष्य तो बहुत बड़ा है और उत्तरदायित्व तो और भी बड़ा। मानवीय मूल्यों का क्षेत्र बहुत विशाल है। रामकाव्य का तो कहना ही क्या? इसका एरिया इतना विस्तृत है कि इसे ज्यादह संपूर्णता से खोजना कठिन है, फिर भी कुछ नया जोड़ना भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। मैं सोच रहा था, किसी भी तरह का पिष्टपेषण न हो। कुछ चीज़ें, कुछ बातें हमें चौंकाती हैं। हम अपने युग से और समय से आँख मूँदकर हवा में बातें नहीं कर सकते। करेंगे तो इन पर विमर्श झूठा ही होगा। इसका कोई असर ही नहीं होगा। जैसे— कभी तुलसीदास ने कहा था— “झूठइ लेना झूठइ देना/ झूठइ भोजन झूठ चबेना।“
अब तो झूठ-झाँसों की ही किलेबंदी है। अपने हृदय पर हाथ रखकर सोचिए और विचार कीजिए, क्या किसी भी तरह मानवीय मूल्य, जीवन-मूल्य, सांस्कृतिक मूल्य और नैतिक मूल्य बचाए जा सकते हैं? जब हमारा सब कुछ दाँव पर लगा हो, झूठ सिंहासन पर विराजमान हो और सत्य की घिग्घी बँधी हुई हो, क्या ऐसे समय में हम आदर्शों की परिकल्पना कर सकते हैं? तुलसीदास जी ने संसूचित किया था— “रावनु रथी बिरथ रघुबीरा/ देखि बिभीषण भयउ अधीरा।।“ उसी तरह आज के कवि कुमार अंबुज ने बड़े दुःख के साथ लिखा है— “जो हमारे आदर्श–पुरुष थे/वे धीरे–धीरे तब्दील हो गए हैं/रेस के घोड़ों में/जिन पर हम जवानी के दिन लगाते थे/और हारे जुआरी की तरह अपनी बची–खुची ज़िंदगी में वापस लौट आते हैं।” (फिलहाल कविता)
रामराज्य का हमारे सामने विराजे चरित्रों का, उनकी करतूतों का एक लंबे अरसे से मंथन होता आ रहा है। पूर्व में वाल्मीकि ने और बाद के दौर में तुलसीदास जी ने इसे एक विराट कैनवास में हमें उपलब्ध कराया। काल की इस दीर्घावधि में भवभूति, कालिदास, मैथिलीशरण गुप्त, निराला (राम की शक्तिपूजा), भारतभूषण अग्रवाल (अग्निलीक), नरेश मेहता (संशय की एक रात) ने इसके अक्स और वास्तविकताएँ रखीं, हमारे जीवन के लिए मूल्यवत्ताओं का कोश रखा।
राम काव्य में निहित मूल्यों अवधारणाओं को इधर के दौर में बहुत तेजी के साथ बदला जा रहा है। राम का नाम लेकर हिंसा, दहशत और उन्मादी संदर्भों को भारतीय संस्कृति का स्वघोषित वारिस मानते हुए कुछ भी कर डालने के लिए कुछ लोग प्रयत्नशील है। हमें एक बार फिर से उन वास्तविकताओं का परीक्षण करना होगा,तभी राम के मानवीय मूल्यों को हम ठीक ढंग से लोक में रख पाएंगे। अशोक बाजपेयी ने एक मुद्दें की बात कही है- समय हमारी प्रतीक्षा नहीं करेगा और बाज़ार व राजनीति, मीडिया और लोकापवाद इस समय बहुत तेज़ी से चल रहे हैं। उनकी अधीर गति से हमक़दम हो पाना हमारे लिए बहुत कठिन है। पर हम न तो उनका ‘पिछलग्गुआ’ बन सकते हैं और न निरे हाशिए से विलाप करते रह सकते हैं। हम क्या करें यह समझ नहीं आ रहा है तो कम से कम अपनी भूल-चूकों पर, अपने पूर्वाग्रहों पर, अपनी अवसरवादिता और प्रतिरोध के रूपों पर फिर से सोंचे। संघर्ष तो करना होगा पर कब,कहाँ और कैसे? (समय के इर्द-गिर्द, पृष्ठ–50)
पहली बार तुलसीदास ने रामराज्य की परिकल्पना की थी— “रामराज बैठे त्रैलोका। हर्षित भए गए सब सोका।।“ लेकिन उस रामराज्य के यूटोपिया का क्या हुआ? उसे पाया नहीं जा सका। निराला ने तो राम को साक्षात् मनुष्य की गरिमा में चित्रित किया, तभी तो उन्हें लिखना पड़ा— “अन्याय जिधर, है उधर शक्ति/ कहते छल-छल/ हो गए नयन कुछ बूंद पुन: ढलके-द्रगजल।”
दुर्भाग्य यह है कि जिधर अन्याय, अत्याचार, हिंसा है उधर ही ताक़त है। यानी ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस।‘ अब तो जिन एजेंसियों के पास लोककल्याण और जनता को खुशहाली की कार्रवाई करने की जिम्मेदारी है, वहीं से अत्याचार-अनाचार के हवाई जहाज उड़ते हैं। जो कम ताक़त के लोग हैं, उन्हें भाँति-भाँति से सताया जाता है। जो शिक्षक अपने छात्रों को अन्याय से लड़ने के लिए प्रेरित करते थे। बच्चों को सच्चा बनने और अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने की सीख देते थे। वही ‘भौचक्कें’ और ‘किंकर्तव्यविमूढ़’ हैं।
तरह-तरह के रावण और कंस उन्हें बार-बार अन्याय की तरफ ठेल रहे हैं। उनसे सब कुछ कराया जा रहा है। ऐसे में हम किन आदर्शों को समाज के सामने रख सकते हैं? व्यक्ति, समाज और राष्ट्र न तो जादू से चलते हैं, न ‘झूठ’ और ‘लंठई’ से। टोने-टोटके विकास के मानक नहीं हो सकते। जब देश अत्याचार झेल रहा हो, बलात्कार का नंगा नाच हो रहा हो, मॉबलिंचिंग के उत्सव उग रहे हों और सत्य, अहिंसा, न्याय और मानवीयता के आदर्श महात्मा गाँधी की हत्या को जायज़ ठहराने की योजनाएँ चालू हों, तब हम किन मानवीय मूल्यों को देश, समाज और राष्ट्र के सामने रख सकते हैं। रचनाओं में निहित कथ्य यूँ तो जिस समय लिखे जाते हैं।
उसको ध्यान में रखकर ही सामने आते हैं; लेकिन कभी-कभी वे उस समय के अंतराल से बहुत दूर जाकर आने वाले समयों एवं सामाजिक संदर्भों में इतने महत्वूपर्ण हो उठते हैं कि उनकी रोशनी में उस समय की विकरालता और लम्पटता को पूरा उजागर होता हुआ देख सकते हैं; जब जनतंत्र में समय और नागरिकों के सच को लगातार ओझल किया जा रहा है। झूठ और अन्याय का दर्प एक नया नरक रचता है। कई बार रहस्य के भ्रम तैयार किए जा रहे हों; तब उनका सच बहुत संजीदा तरीका से उजागर हो जाता है। जैसे इस दौर में सत्ता से परिवर्तन की बात करना देश की विभिन्न समस्याओं को सुलझाने की बात कही जाए और वह सत्ता उन्हीं पर पिल पड़े तब तुलसी दास की ये पंक्तियां अपने मारक रूप में प्रकाशित होने लगती हैं जैसे- ‘’षठ सन विनय, कुटिल समप्रीती/ सहज कृपन सन सुंदर नीती’’… क्रोधहिं सन कामहिं हरि कथा/ ऊसर बीज बोय फल जथा।‘’
इस देश में एक नई फ़िज़ा निर्मित हुई है। राम का नाम लेकर या जय श्रीराम का उद्घोष कर आप कुछ भी कर सकते हैं; जायज़ और नाजायज़ भी। मुझे लगता है कि इक्कीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में रामकाव्य के मूल्यों— “वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे पीर पराई जाणे रे” के स्थान पर उसका नाम टेरते हुए या जाप लगाते हुए कुछ भी किया जा सकता है? उसमें किसी की हत्या भी शामिल है। क्या अद्भुत समय है— ‘राम को कहाऊं नाम बेंच–बेंच खाएँ।‘ तथ्य है कि अपने आप को नाम के प्रताप से, समूचे राष्ट्र को अपने अधीन बनाने पर तुला एक समूह किन स्वच्छ मूल्यों के लिए मरा जा रहा है। एक समय मनुष्य मात्र की रक्षा के लिए रामकाव्य के आदर्श सामने आए थे; जो अब इस रूप में परिणित हो गए हैं।
तुलसीदास के शब्दों में— “जागिए न सोइए, बिगोइए जनम जाय/ दु:ख रोग रोइए कलेस कोह काम को/ राजा, रंक, रागी औ बिरागी, भूरि भागी ये/ अभागी व जरत, प्रभाव कलि बाम को।” क्या-क्या कहा जाए और क्या-क्या न कहा जाए। जितना भी कहेंगे, कहते हुए भी कुछ न कुछ रह जाएगा इसलिए ‘थोरिहुँ मा सब कहउँ बुझाई, सुनहु तात मति मन चित लाई॥‘ इस संकट के समय हमें प्यारे, दुलारे, जीवंत और ऊर्जावान लोगों की बेहद आत्मीय ज़रूरत है।
हमारे समाज में हमारे जीवन में एक ऐसा समूह आया या एक ऐसी राजनीतिक फिजा निर्मित हुई है जो राम की लोकप्रियता की आड़ में अक्सर अपने आपको छिपाना चाहती है। उसमें न राम के आदर्श हैं न व्यवहार शास्त्र। जय श्री राम का नारा लगा देने से कोई राम का अनुयायी नहीं हो जाता। राम के मूल्यों को उसे अपने जीवन में उतारना होता है। सोचिए क्या बिना राम के वनादर्शों के बगैर कोई राम का अनुयायी होने का दम्भ भर सकता है। राम के नाम पर विडम्बनाओं, धूर्तताओं के अनेक रूप इधर निर्मित हुए हैं।
आज के जीवन के दु:ख, संतापों और वन में मूल्यों को केवल नारा लगाने से जय श्रीराम का उद्घोष करने से पूरा किया जा सकेगा क्या? हत्याओं, हिंसाओं और मार-काट के द्वारा हम राम राज्य के आदर्शों को रत्ती भर नहीं छिपाएंगे। रामकाव्य अतीत और वर्तमान ही एक ऐसी रस्सी पर झूलने और चलने का मूल्य और नाम है; जो संघर्ष का ही रास्ता है। कहाँ राम राज्य की भाषा जिसमें विनयशीलता, दृढ़ता, आत्मसंयम और साहस होता था और कहाँ जय श्री राम का नारा लगाने वालों की हिंसक और दिखावे की भाषा, लूटमार के इरादे। ये द्वैत हमारे समय में और समाज में किन मूल्यों का विकास करेगा यह किसी की भी समझ से परे हैं। भक्ति कविता मध्य युग में कई–कई रूपों में फूटी और विस्तार पाती रही; उसी में से रामकथा की एक वृहत्तर धारा भी रही है। रामकाव्य के क्षेत्र बहुत सघन और कर्मठ रहे हैं।
रामकाव्य की अंदरूनी वास्तविकता से हम तमाम फैले हुए जालों को नष्ट कर सकते हैं। रामकाव्य की लोकप्रियता अकूत है। आजकल किसी चीज़ को इतनी ज़ल्दी अप्रासंगिक बनाए जाने की प्रक्रिया चालू है कि क्या कहिए? मैं तो प्रासंगिक संदर्भों में ही बातें रख रहा हूँ। आज राम की चर्चा हो रही है तो सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में ही। हम न तो आकाशी, आभासीय सिलसिले में और न ही पाताली नुस्खों में उन्हें आजमा रहे हैं और न हमारी ऐसी चाहत है। भक्ति और सामाजिक, राजनीतिक और अन्य भी सामाजिक वन के अटूट हिस्से हैं। प्रश्न हैं कि राम के जीवनादर्शों और मूल्यों में कभी कोई घाल-मेल नहीं रहा है। राम ने समाज के सामने मर्यादाएँ और आदर्श रखें।
हाँ, सत्ता मिलने पर राम के व्यक्तित्व की कौन-सी प्रकृति तलाशी जा रही है। यह स्पष्ट तथ्य है कि राम ने राक्षसी वास्तविकताओं को धूल चटाई थी। यह गहमा-गहमी का दौर है। राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ति के तथाकथित मानकों को अब साँचों में तैयार कर उनकी विशेष रूप से मार्केटिंग की जा रही है; जहाँ हम मानवीयता-अमानवीयता को देख-समझ रहे हैं। बहरहाल, राम के मानवीय मूल्य और उनकी पारदर्शिता की रेंज बहुत व्यापक, विशाल, और ऊर्धव्मुखी है और उसके फैलाव की दुनिया भी अनंत है; लेकिन सच तो यह है कि पहाड़ा घोखने से उसे अर्जित नहीं किया जा सकता। वह हमारी वन-साधना और आध्यात्मिक ताने-बाने में और अव्याप्त मानवीय मूल्यों में देखे जा सकते हैं।
दरअसल रामकाव्य की बहुत उदात्त भूमिका रही है। जाहिर है कि राम की सेना कोई बड़ा काम करने के लिए जय श्रीराम का उद्घोष करती थी। अब तो ग़लत मूल्यहीन, अपराधी मनोविज्ञान के प्रदर्शन इसके जरिए संभव किए जाने लगे हैं। गर्व की आकाशीय सीढ़ियाँ स्वनिर्मित कर ली गईं और यही नहीं, उसमें बहुसंख्यक समुदाय की गनगनाहट नाच रही है। कोई भी मनुष्यता विरोधी, अनैतिक काम कीजिए और ऐसी ही हाँक लगाइए। अंतर देखिए, जब कोई जयराम जी की कहता है तो वह हमारी भारतीय सांस्कृतिक छवि की उदात्तता और अपनत्व का ही उद्घोष नहीं करता, बल्कि मर्यादाएँ भी पेश करता है। क्या जय श्रीराम को हम गुंडागर्दी और अमानवीयता के रूप में ढ़लते हुए देखकर किसी तरह खुश हो सकते हैं!
इस पर विचार और पुनर्विचार होना चाहिए। रामकाव्य की गहराई, उदात्तता और उसकी मनुष्यता को हम देखें-परखें और अनुभव करें। रामकाव्य के मानवीय मूल्यों, संवेदनाओं की यात्रा वाल्मीकीय रामायण के पूर्व से रही होगी। शनै:-शनै: उसमें वन के विविध रूप और आयाम आए होंगे। वाल्मीकि ने उसे अपनी रामायण में व्यापकता के साथ सहेजा। कालांतर में हमारी भारतीय मनीषा में, विभिन्न रामायणों में इसे परखा जा सकता है।
इसे कंब रामायण, कृतिवास रामायण, अध्यात्म रामायण जैसे- सूत्रों में खोजा जा सकता है। रामायण की कथा का विस्तार फादर कामिल बुल्के ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘रामकथा’ में रेखांकित किया है। रामकाव्य जितना किताबों में है, उससे ज़्यादा हमारी जीवन की विविधताओं,लोकवार्ताओं और लोकजीवन में विद्यमान है। रामलीला,रामकथाओं और लोक के फैले तमाम तरह के विस्तार में और हमारे लोकव्यवहार में है।
दु:खद स्थिति यह है कि इधर पिछले कुछ वर्षों से उनका नाम लेकर उसके महत्व को अंग-भंग करने की सतत् कार्रवाई की जा रही है और अपनी जनविरोधी इच्छाओं को नए-नए पैंतरों से साकार किया जा रहा है। इससे उनके काव्य की उदात्तता धूमिल हो रही है। आजकल बिना पढ़े, बिना आचरण किए इस तरह के तमाम रूप सामने आ रहे हैं; जो हम सबके लिए बेहद चिंतनीय है। वे रामकाव्य की मूलवत्ताओं को लगातार अपाहिज बनाते जा रहे हैं। कहाँ राम के उदात्त जीवन मूल्य और आदर्श और कहाँ राम के नाम पर फैला गर्वोन्नत लोगों का उन्माद।
रामकथा हमारे जीवन में उदाहरणों, उद्धरणों के रूप में आती है, आचरण के रूप में और व्यवहार के रूप में प्राय: नहीं। यह एक फाँक है; जो हमें साफ-साफ दिखाई पड़ रही है। रामकाव्य में, राम के जीवन में और उनके आस-पास एवं अन्य सामाजिक संदर्भों में तरह-तरह के चरित्र आपको मिलेंगे। रावण का भी चरित्र है। उसने सीता का बलपूर्वक अपहरण किया था; लेकिन मनुष्यता की मर्यादाएँ भी निभाईं थीं। रावण आचरणहीनता के दायरे में नहीं आता। क्या आज यह सब कुछ सहज संभव है? अब तो ग़लत कार्यों के समर्थन में भी जुलूस निकाले जाते हैं।
बलात्कार करने वाले बड़े-बड़े सूरमा अपने समर्थन और धाक के लिए नारे लगाते और लगवाते हुए देखे जा रहे हैं। रावण ने अपनी बहन शूर्पणखा के साथ हुए अपमान का बदला लिया; लेकिन कोई घृणित और गर्हित काम नहीं किया। उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। उसी रावण ने जब अच्छे आदमियों को नुकसान पहुँचाने का प्रयास किया या उनका मूल्य नष्ट करने की कोशिश की, ऋषि-मुनियों एवं सामान्य लोगों के साथ जब उसने दुर्व्यवहार किया, उन्हें डराया-धमकाया और दंडित किया तो उसका प्रतिकार भी श्रीराम आदि ने किया। राम के साथ बंदर, भालू एवं दीगर लोग भी आए और रावण के ख़िलाफ़ लड़ाइयाँ लड़ीं। इसे नए संदर्भों और प्रसंगों में भी देखने-समझने की ज़रूरत है।
यदि कहीं अत्याचार, अन्याय और नाइंसाफी होगी तो उसका सक्षम प्रतिकार भी अवश्य होगा। प्रश्न है कि क्या अत्याचारियों, अन्यायियों का प्रतिरोध नहीं किया जाना चाहिए? इस तरह के प्रश्नांकन रामकाव्य हमारे सामने करता है। तुलसीदास जी ने सच ही लिखा है— “बहु दाम सँवारहि धाम जती/ विषया हरि लीन्हि न रहि बिरती/ तपसी धनवंत दरिद्र गृही/ कलि कौतुक तात न जात कही।“अर्थात् संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती। प्रसंग बहुत हैं; जैसे—”जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी/ सो नृप अवस नरक अधिकारी।”
यह राजनैतिक प्रश्न भर नहीं है; बल्कि यह राजाओं के अधिकारों-कर्तव्यो’ की एक तरह से छान-बीन भी है। राम के मूल्यों और दायित्वों का उद्घोष भी है। रामकाव्य की उदात्तता के अनेक रूप हैं; जो हर तरह के आवरणों को चीर देते हैं। नारेबा से हमारे समय के जटिल और विपुल प्रश्नों को किसी भी तरह अवहेलित नहीं किया जा सकता।
आज के दौर में रामकाव्य के बारे में, राम के व्यक्तित्व और कर्तृत्व के बारे में जो मनमानी बातें की जा रही हैं। उसमें राम के चरित्र, उनके लोकव्यवहार और आचरण की सुगंध का रंचमात्र अंश नहीं है। केवल एक हूहा फैला दिया गया है। बातें कम, उनका एक राजनैतिक उपयोग और बेजा इस्तेमाल ज़रूर होता है। भारतीय सांस्कृतिक छवि और आभा रामकथा में है। रामकाव्य का विस्तार हमारे लोकगीतों में और रामकथाओं में है। धीरे-धीरे राम के चरित्र की उदात्तता को ठीक से न पहचानते हुए एक आरोपित व्यवहार से समूचे सामाजिक मूल्यों, सामाजिक समरसताओं को छेंका जा रहा है। इसलिए हम भी चाहते हैं कि रामकथा पर निरंतर पुनर्विचार होना चाहिए; ताकि समाज के व्यापक संदर्भों और सामाजिक स्वरूपों में उसे निरंतर अन्वेषित किया जा सके।
रामकाव्य में तुलसीदास ने राम के राज्याभिषेक के पश्चात एक प्रसंग रखा है। राजा राम नागरिकों को संबोधित करते हुए कहते हैं— “जो अनीति कछु भाखौं भाई/ तौ मोहि बरजहु भय बिसराई” अर्थात् हे भाई, यदि मैं कुछ अनीति की बातें कहूँ तो भय भुलाकर (बेखटके) मुझे रोक देना। क्या यह आज के दौर में किसी भी तरह संभव दिखता है? आज तो जो सत्ता का विरोध करें, वह विद्रोही, देशद्रोही और मानवद्रोही तक कह दिया जाता है। यह एक बहुत बड़ा अंतर आया है मर्यादाओं के अनुशासन में।