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स्वाधीनता आन्दोलन की लोक जनश्रुतियाँ

 

 लोक मानस जितना सरल होता है उतना ही अपनी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए चतुर भी। लोक अपने समाज में घटने वाली घटनाओं का प्रत्यक्ष द्रष्टा बनकर जब उसकी अभिव्यक्ति अपनी बोली बानी में करता है तो उसकी संप्रेषणीयता बड़ी व्यापक और प्रभावकारी होती है। लोकभाषा के प्रभावकारी शक्ति का सबसे सुंदर उदाहरण संत कवियों की काव्य परम्परा है जो मौखिक परम्परा में वर्षों तक प्रवाहमान रही। एक बार जब लोक किसी को अपना नायक मान लेता है तो कोई भी शासक या इतिहास इन्हें कितना ही मिटाने की कोशिश करे इन्हें मिटा नही पाता। स्वाधीनता आन्दोलन के बहुत से ऐसे जननायक है जिसे इतिहास की एकपक्षीय दृष्टि द्वारा मुख्यधारा की स्मृति से ओझल कर दिया गया लेकिन लोक ने इन्हें कभी विस्मृत नहीं होने दिया। भारत के अलग अलग हिस्सों में अनेक जननायकों के ऐतिहासिक किस्से जनश्रुतियों का रूप लेकर स्वाधीनता आन्दोलन की शक्ति बनकर लोगों को प्रेरित कर रहे थे।

जननायकों की कीर्ति व ख्याति लोकाभिव्यक्ति में गाँव के चौपाल, मेले, मंदिर, हाट बाजार से होते हुए दूर दूर तक प्रचारित हो रहे थे। इनके सम्बन्ध में प्रचलित कथाएं जनश्रुतियों में मिथकीय रूप धारण करने लगे और एक मुख से दूसरे मुख तक मीलों सफर तय करते हुए चमत्कारी चरित्र के रूप में लोक में पूजे जाने लगे। यदि गौर से देखा जाए तो इन जनश्रुतियों में स्थानीय इतिहास के महत्वपूर्ण तथ्य छिपे होते है जो समय के साथ धूमिल भले ही हो जाते हो लेकिन इन कथाओं के आलोक में उस युग को समझाने में आसानी हो सकती है। स्वाधीनता संग्राम के ऐसे अनेक क्षेत्रीय किस्से हैं जिसे इतिहास में दर्ज नही किया गया लेकिन लोक ने अपने गीतों व कथाओं में आज तक जीवित रखा। इन गीतों व कथाओं को सुनकर अंग्रेजों से टक्कर लेने का हौसला बच्चे बूढ़े और जवानों में दिनप्रति बढ़ता ही जा रहा था।

जनमत जब प्रलयकारी जनांदोलन में तब्दील होने लगा तब अंग्रेजों ने इसे दबाने के लिए कितने जतन किए। गोलियां चलाई, लाठियां बरसाई, लोगों तब खबरे न पहुंचे इसके लिए कितने ही पत्र पत्रिकाओं को जब्त किया उनके प्रकाशन पर पाबंदियां लगाई लेकिन फिर भी लोक ने अपने कथा गीतों के जरिए आजादी के राष्ट्रीय आन्दोलन की मशाल को कभी बुझने नही दिया। लोक कंठ से निकले गीतों पर अंकुश लगना अंग्रेजों के बस से बाहर की बात थी। लोक शक्ति के आगे उनके बनाए सारे कानून और दंड बेअसर होते जा रहे थे क्योंकि हर गली हर गाँव में ऐसे जननायक थे जिनको अंग्रेजी हुकूमत अपने जोर जुल्म से डरा नही पाती थी।

 

 प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857 के संदर्भ में हम जितना जानते है उनसे कई गुणा ज्यादा लोक स्मृतियों में वह घटनाएं कथा, गीतों के माध्यम से दर्ज हैं। अंग्रेजों के खिलाफ 1857 में महाविद्रोह हुआ यह तो सब जानते है लेकिन इस महाविद्रोह की तैयारियां क्षेत्रीय स्तरों पर बहुत पहले ही शुरू हो चुकी थी। जिसके किस्से जनश्रुतियों में मौजूद हैं। ऐसी ही एक जनश्रुति है -रायगढ़ नरेश जुझार सिंह के पुत्र देवनाथ सिंह की जिन्होंने 1833 में ही अंग्रेजों के विरूद्ध विदोह करने का दुस्साहस दिखाया था। जिनसे प्रेरित होकर बाद में 1857 में छत्तीसगढ़ के राजाओ और जमींदारों ने भी बढ़चढ़ कर भाग लिया। छत्तीसगढ़ के वीर नारायण सिंह के बलिदान को हरि ठाकुर ने अपने गीतों इस प्रकार अभिव्यक्त किया – छत्तीसगढ़ भी ठोकिस ताल, अठरा सौ संतावन साल / गरजिस वीर नारायण सिंह, मेटिस सबे फिरंगी चिन्ह।

(छत्तीसगढ़ी सेवक वीर नारायण सिंह बलिदान दिवस अंक : हरिहर ठाकुर, पृ -3)

एक और गीत दशरथलाल निषाद का देखिए – अपन जम्मो धन बांट के, वीर नारायण कहे ललकार। /सेवा भाव के ढोंग मढ़ा के अंग्रेज होगिन हे मक्कार।

छत्तीसगढ़ की भांति स्वाधीनता आन्दोलन ने देश के दूसरे हिस्से को भी प्रभावित किया था। लोक कवियों ने इन स्थानीय और क्षेत्रीय वीरों का वर्णन फाग,आल्हा,रसिया आदि गीतों के माध्यम से किया – शंकरपुर जिला रायबरेली के राणा बेनी माधव, गोंडा के राजादेवी बख्श सिंह,  चहलारी के ठाकुर बलभद्र, संडीले के गुलाब सिंह जैसे वीरों की कथाएं लोक में बडे सम्मान के साथ आज भी सुनी सुनाई जाती हैं।

राजा गुलाब सिंह रहिया तोरी हेरूं,एक बार दरस दिखावा रे / अपनी गद्दी से बोले गुलाबसिंह, सुन रे साहब मोरी बात रे। / पैदल भी मारे सवार भी मारे, भारी फौज बेहिसाब रे। /बांके गुलाब सिंह रहिया तोरी हेरूं, एक बार दरस दिखावा रे / पहली लड़ाई लगनगढ़ जीते, दूसरी लड़ाई रहीमाबाद रे। /तीसरी लड़ाई संडीलवा मां जीते, जामू में कीना मुकाम रे। (अवधी का लोकसाहित्य, पृष्ठ संख्या 331)

18 वर्ष के चहलारी नरेश राजा बलभद्र सिंह ने अवध के विद्रोह में अद्भुत पराक्रम का परिचय दिया था। लोक में उनके वीरता के किस्से आज तक जिंदा है -ग्यारह साहेब ठौरे मारेसि, औ गोरेन की गिनती नाय। /एैसन वीर कबंहु नहि देखा जाको रूण्ड करै कृपान‘‘/‘‘बड़ा बहादुर बलभद्र था जग मा होई गा नाम तोहार‘‘

फतेहपुर जिले के जमींदार जस्सासिंह की वीरता का वर्णन लोककवि ने करते हुए कहता है – “फतेहपुर जिला बहुत सन्नामी/फतेहपुर के जमींदार नामी गेरामी /जस्सासिंह गोली फिरंगियन पै तानी / नाव में भागत रहे भिरंगी / नाही छोड़िन वनके नाव निशानी।”

हरियाणा रेवाड़ी के राव किशन गोपाल ने पच्चीस वीरों के अपमान का बदला लेने के लिए 1857 में 72 अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार दिया था। जिसके बहादुरी के किस्से आज भी हरियाण के लोक समाज में सुनाए जाते हैं –

करनैल साहब झरनैल (कर्नल) नै धर बिगुल बजाई। / बिगल दई थी कतल ल्हस्कर के मांही। / मेरी रामपरा की बणी सांग छड़ वणी कलाई। /साढ़े सात सेर की मिसरी(तलवार) राव नै संगवाई। / हौदा पै करनैल पै धर सुन्मुख पाई। /सीस टूट नीचे पड़या धड् हौदा मांही। / हात्थी घोड़ा साहब लोग नै कजली बणवाला। / हात्थी छूट्या था चिंघाड़ कै दल पाट्टे न्यारा। / उनबी किसन गोपाल नै दिये बाग इसारा। / हात्थी कै सौंई घोड़ा दे दिया दे कै किलकारा। / इब कित जागा लानत का मारा। / साढ़े सात सेर की मिसरी झोक्या दुधारा। ( हरियाणा प्रदेश का लोकसाहित्य, पृ 315)

1857 के विद्रोही

ऐसे ही बिहार के जननायक वीर कुंवर सिंह का नाम सुनते ही अंग्रेज अफसरों को दहशत हो जाती थी। कहा जाता है कि भय के मारे सामने नही आते थे – सुनत नाम ओह वीर कुंअर के /,साहब मेम लुकात रहन। / लरिका फरिका आ जनमतुआ / धइला पर नाम भयात रहन।

वीर कुंवर सिंह की वीरता भोजपुरी लोक समाज आजतक सबकी जवान पर चढ़ा हुआ हैं। बिहार के दानापुर रेजिमेंट, बंगाल के बैरकपुर और रामगढ़ के सिपाहियों ने जब बगावत कर दी। तब बाबू कुंवर सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ अपने सेनापति मैकू सिंह एवं भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया और 27 अप्रैल, 1857 को दानापुर के सिपाहियों और अन्य साथियों के साथ आरा नगर पर कब्जा कर लिया।

लिखि लिखी पतिया के भेजलन कुंवरसिंह /ऐ सुन अमरसिंह भाय हो राम।

चमड़ा के तोड़ता दात से हो काटे कि/छतरी के धरम नसाय हो राम।

बिहार के महेंदर मिसिर अंग्रेजी हुकुमत को आर्थिक रूप से खोखला करने वाले ऐसे वीर सपूत थे जिन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए ब्रिटिश शासन में नकली नोट छापने का दुस्साहस किया और अंग्रेजों के साथ राजद्रोह कर अपनी राष्ट्रभक्ति का परिचय दिया।

हमरा नीको ना लागे राम, गोरन के करनी/रुपया ले गइले, पइसा ले गइले, ले गइले सब गिन्नी

ओकरा बदला में त दे गइले ढल्ली के दुअन्नी / हमरा नीको ना लागे राम, गोरन के करनी। (महेन्दर मिसिर)

भारत के हर हिस्से में आजादी के वीर जननायकों के किस्से लोकगीतों के माध्यम जन जन तक पहुंचाया जा रहे थे। लोकगीत अब जन आन्दोलन का सशक्त माध्यम बन चुका था – कजली, फाग आल्हा जैसे तर्जो पर लोक गायक गीत गाते हुए गली गली घूमते और राष्ट्रभक्ति की भावना को उद्दीप्त करने में अपनी सशक्त भूमिका निभा रहे थे। कजली गीत का सुंदर उदाहरण देखिए –

हमके लहरेदार चुनरिया / पिया रंगाई देता ना / शुद्ध स्वदेशी खद्दर ले द्या/ हरे रंग केसरिया / बंदेमातरम किनरिया / पिया रंगाई देता ना। / झांसी की रानी छपवा द्या / हाथ लिये तरवरिया / और छपा द्या वीर भगतसिंह / गर लगी फंसरिया /पिया रंगाई देता ना / हमरे लहरेदार चुनरिया / पिया रंगाई देता न। (लोकमान्य 19 मई 1974 पृ.10)

जनजागरण व राष्ट्रभक्ति पर कविता लिखना भी अंग्रेजी राज में जुर्म था। जिसके कारण लोककवियों को भी निशाना बनाया जा रहा था। राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को इसी अपराध के लिए तोप से उड़ा दिया गया था। गोंडवाना के गोंड राजवंश के प्रतापी राजा शंकरशाह और उनके पुत्र रघुनाथशाह ने भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 में जबलपुर क्षेत्र का नेतृत्व किया था और लोगों को अपनी कविता के जरिए अंग्रेजों के विरूद्ध क्रांति के लिए एकजुट किया था।

मूंद मुख डंडिन को चुगलौं को चबाई खाई / खूंद डार दुष्टन को शत्रु संहारिका

मार अंगरेज, रेज कर देई मात चंडी /बचै नाहिं बैरी-बाल-बच्चे संहारिका॥

संकर की रक्षा कर, दास प्रतिपाल कर/दीन की पुकार सुन आय मात कालका

खाइले मलेछन को, झेल नाहि करौ मात/भच्छन तच्छन कर बैरिन कौ कालिका॥

अंग्रेजों के जितने जुल्म बढ़ रहे थे उतने ही बलिदानियों के हौसले बुलंद होते जा रहे थे। शहीद प्रताप सिंह ने दिल्ली के बंमकांड में सहभागिता निभाई थी। लार्ड हाडिंग पर बम फेकने वालों में उनका नाम भी शामिल है। रासबिहारी बोस ने उन्हें राजस्थान की सैनिक छावनियों में जाकर भारतीय सैनिकों व अन्य युवकों को क्रांति के लिए तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी थी। उनके बलिदान पर भैरवलाल स्वर्णकार ने जिन शब्दों में गौरवगान किया उससे सिद्ध होता है कि शहीद प्रताप सिंह को लोक कितने सम्मान के साथ आज भी याद करता है। राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के शाहपुर नगर स्थित केसरी सिंह और उनके पुत्र प्रताप सिंह बारहहठ और जोरावर सिंह बाराहठ के बलिदान के स्मारक इस बात की पुष्टि करतें हैं । वीर केसरी जो संपन्न परिवार से आते थे और लाखो रूपये के मालिक थे। आज उन्हें रोटी का टुकड़ा भी नसीब नहीं। पराधीन भारत मां की रूलाई देशभक्त केसरी से देखी नही जा रही। वह उठकर बोला मुझे धोती के लिए कही से दो रूपये लाकर दो।

केहरी हो बंदी जेला में,परिवार लिखा मां ही हर ही। / घरबार छुट्यो परिवार छुट्यो, सब बिखर गया कण कण रे ज्यों

लाखारी पूजी रा मालिक रोटी बिन दुखड़ो पाता हां। / भारत मां रा करूणा क्रदंन, सह शक्यों वीर नहीं उठ बोल्यो

ममा, धोती रे खातिर बस दो रूपया किणा सं लाकर दो। (पृ 76 भारतीय लोक साहित्य : परम्परा और परिदृश्य )

आजादी के मतवालों की सूची अंनत है। जननायकों के बलिदान से आक्रोशित जनसमाज में बच्चें बूढ़े एकसमान रूप से आन्दोलित हो रहे थे। नेताओं के एक आह्वान पर पूरा जनसमाज एकजुट होकर अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचारों के समाने डटकर खड़ा हो जाता था। फिर चाहे विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार हो या स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग के लिए घर-घर चरखा क्रांति में पुरूषों के साथ स्त्रियों की भूमिका को कौन भुला सकता है। चरखा कातते हुए स्त्री पुरूषों के कंठो से जो गीत निकले वो चरखा गीत आज भी उस दमन के आगे न झुकने वाले साधारण जन के आत्मबल का साक्षी है। भारत के अन्य राज्यों की तुलना में चरखा बिहार में सबसे बड़ा स्वाधीनता आन्दोलन का प्रतीक बना। छेदी झा मधुप द्वारा लिखित चरखा चौमासा इसका सुंदर साक्ष्य है-

पेखि जेठ प्रचण्ड ज्वाला परम क्लेशक आगरी/त्यागि गेला तीर्थ ठेला धरहि बैसू नागरी।

बैसि न व्यर्थ बिताविय,/चरखा चारु चलाविय,/देखि देश दरिद्रता नभ घुमरि घुमि घन मालिका

कानि अश्रु अषाढ़ टारथि वसन बिनु लखि बालिका। /सूत सुभग तनु काटिय/विरचि वसन तन धारिय

मास सावन करथु हा! हर विकल बेंस विदेशिया/अहाँ मन दय पीर बाँटू सूत काटू देशिया।

देशक सब धन बाँचत,/अरि डर थरथर काँपत,/छाड़ि चिन्ता, करू भादव भवन बैसि विभावरी

बारि बाती धरू चरखा करु वरखा आखरी/मधुप विपति सब बीतत/देश कठिन रण जीतत।

प्रथम विश्व युद्ध के समय भारत अंग्रेजों के अधीन था इसलिए भारतीय सैनिको को अंग्रेजो की ओर से जर्मनी से युद्ध करना पड़ा था। युद्ध में भारतीय जवानों ने भी वीर गति पायी थी। न चाहकर भी अंग्रेजी की अधीनता ने उसे इस युद्ध विभीषका में झौक दिया था। ग्रामीण जनता पर प्रथम विश्वयुद्ध का क्या प्रभाव पड़ा था उसकी बानगी लोकगीतों गीतों में मौजूद है। भारतीय सैनिक की विवशता को लोकगीतों में आज भी याद किया जाता है –

अब के जाध बचा मोरे प्यारे जरमन की लड़ाई तै। / तोप चले, बंदूक चलै और गोला चले सन्नाई कै /…

मौको लपटन ने बुलवायौ पाती तुरत पठाई कै। / अबके जान बचा मोरे भैया जरमन की लडाई तै। /

खंदक में पानी भरि जावे,  जाड़ों बदन गलावै रे। /ऐसा जोर जुलुम जरमन को ल्हाराई ल्हास बिछावै रे।

 जर्मन में जब भई लडाई / अंग्रेजों की अलबत होती हार / भारत ने जब मदद दई/ रंगरूटन की भरमार/ बाकी एवज

गवर्मेंट ने /दीनी हमें लताड़/चलि करिके जलयान बाग में/ कीन्हे अत्याचार / बिन बूझै बिन खगर हमारी /

भरि दिए कारागार/ फांसी दैके हने हमारे भगतसिंह सरदार।

स्वाधीनता आन्दोलन का उत्साह के लिए वीर रस आधारित आल्हा गीत उस युग की लोक प्रेरणा का स्रोत थे।

 सीस नवाऊं गुरू अपने कूं, दुर्गा जी में ध्यान लगाय/ आल्हा गाऊं आजादी की, भैया सुन लेउ कान लगाय, कारे मन के सभी फिरंगी जिनकी जालिम है सरकार/ खून पीयै भारतवासिन के जे लोंभी कामी, मक्कार / सन 57 में भारत की गुस्सा गई जवानी खाय/ झांसी वारी रानी ने ली तेज दुधारी हाथ उठाय/ दन दन गोला गोली छूटे धाएं धाएं तोपे थर्राय/ कट कट मुंड गिरे धरती पै, देख फिरंगी दहशत खांय।

आल्हा हो या राष्ट्रीय सोहर सबका उद्देश्य जनता के मनोबल को सुदृढ कर उसे देश बलिदान के लिए प्रेरित करना था। जिसमें लोक समाज के स्त्री और पुरुष की एक समान भागीदारी देखी जा सकती है। मैथिली पुत्र प्रदीप जी मैथिली सोहर गीत में लिखतें है –‘ अंग्रेजो ने गाँधी, बुध अशोका के देश को युद्ध में झोक दिया। ऐसे अंग्रेजों को भगाने के लिए मै अपने पुत्र को पति के पास युद्ध करने के लिए भेजुंगी और खुद खेती करके रसद का समान भेजवाऊंगी। ‘ ऐसे ओजस्वी गीत लोगों के भीतर राष्ट्र के प्रति उत्सर्ग की भावना को उदीप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे।

भरल कलश जल छलकल गौरी मन हल चल रे / ललना रे मन मन करती बिचार पिया नही घर छथि हे।

जहिया स गोदिला जन्म लेल क, मन में बेकल भेल रे, ललना रे पिया जी गेला युद्ध भूमि अजहू नहि आएल रे।

अगिया लगेबय, देहजरुवा के बजर खसायेब हे,ललना रे गाँधी, बुध अशोक क देश में लड़ाई जे ठनलक रे।

कुंअर के युद्ध सिखायब पिया लग पठाएब हे,ललना अपने जोतब हम खेत रसद पहुचाएब रे।

इसी प्रकार कवि श्री उल्फत सिंह( निर्भय) 1930 में स्वाधीनता संग्राम के समय रसिया गीत लिखा – जिसमें अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिए ललकार जा रहा था –

तेरे पापन कौ अब पापी काहु दिन भंडा फूटैगी। …बम्ब चलाई चाहे गोली चलाइ लै / बै अपराधिनु फांसी चढ़ाइलै / चाहै कितनिहु जेल भरौ, नहिं तांतौ टूटेगी /कैसे हु करिलै आज धधाके / आखिर जाइ जैसे सींग गधा के / तू तौ पापी जाइगौ ही, जस निरभै लूटेगौ। / तेरे पापन कौ अब पापी काहु दिन भंडा फूटैगी।

लोक जनश्रुतियों की एक अद्भुत बात यह है कि यहाँ कथा के रचयिता का पता नहीं चलता। मुख्य कथानक के इर्द-गिर्द कुछ इस तरह की रचनात्मकता जुड़ती जाती है जिससे मूल घटना या कहानी के बारे में सटीक रूप से पता नहीं चल पाता लेकिन मूल कथानक इन क़िस्सों में कुछ इस तरह उभरकर सामने आता है जो सभी को आकर्षित करने के साथ-साथ कुछ न कुछ जोड़ने का निमंत्रण भी देता है। इनमें तथ्य और कल्पना को अलग करना मुश्किल होता है। इसलिए जनश्रुतियों में एक ही कथा के कई संस्करण सुनने को मिल जाते हैं। आजादी के आन्दोलन को सफल बनाने और अंतिम लक्ष्य तक पहुंचाने में लोक कवियों और जननायकों के योगदान को कभी नही भुलाया नही जा सकता। आजादी के महायज्ञ में असंख्य बलिदानियों ने अपने प्राणों की आहूति दी थी। जिन्हें विशेष प्रकार की राजनीति के कारण भले ही भुला दिया हो लेकिन इन वीर बलिदानी नायकों को लोक जनश्रुतियों ने अपने गीतों के द्वारा अमर कर दिया। आजादी के आन्दोलन के असली नायक व सिपाही वो असंख्य गुमनाम लोग है जिनके नाम किसी समाचारपत्र की सुर्खियों में भले ही नही छापे गए लेकिन लोक के मन में उनकी अमिट छाप आज तक विद्यमान है। स्वाधीनता का इतिहास राजनीतिक विचारधारा के वर्जस्व में लिखा गया आधा अधूरा इतिहास है। पूरा इतिहास लिखने के लिए इन जनश्रुतियों में छिपे क्षेत्रीय नायकों के बलिदान की अमर कथाओं को जानना होगा क्योंकि इन सच्चे नायकों के बिना भारत के स्वाधीनता आन्दोलन का इतिहास पूरा हो ही नहीं सकता।

संदर्भ ग्रंथ

भारतीय लोक साहित्य: परम्परा और परिदृश्य – विद्या सिन्हा : प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार – संस्करण 2011

लोक संस्कृति: आयाम एवं परिप्रेक्ष्य -संपादक महावीर अग्रवाल :शंकर प्रकाशन म. प्र., संस्करण 1987

आल्हा लोकगायकी : इतिहास और विश्लेषण -डॉ नर्मदा प्रसाद गुप्त,  चौमासा वर्ष 5 अंक 14

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विभा ठाकुर

लेखिका कालिंदी कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं। सम्पर्क +919868545886, vibha.india1@gmail.com
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