स्त्री विमर्श के प्रचलित मिथ
स्त्री मुक्ति के सवाल तबतक अधूरे रहेंगे, जबतक कि उसे उस पारम्परिक छवि से मुक्त न किया जाये जिसे लक्ष्मण रेखा की तरह उसके अस्तित्व के चतुर्दिक खींच दी गयी है। संदर्भ जब स्त्री मुक्ति या स्त्री विमर्श का हो तो वह पितृसत्तात्मक मानसिकता जिसके मन में स्त्री की एक खास छवि प्रतिष्ठित है, वह कई प्रकार के सवालों से स्त्री मुक्ति को कीलित कर देना चाहता है। ऐसा नहीं कि ये वे लोग हैं जो अनिवार्यतः स्त्री के प्रति सम्मान नहीं रखते या स्त्रियों के प्रति वे संवेदनशील नहीं हैं – बल्कि इसके उलट अधिकतर ऐसे लोगों के जेहन में स्त्री के प्रति सम्मान का अतिरेक होता है। यह उसीका नतीजा होता है कि वे स्त्री को या तो देवी मानते हैं या दानवी।
सम्मान के अतिरेक में उनका मानस यह मानने का तैयार ही नहीं होता कि स्त्रियाँ भी व्यक्ति हैं और उनकी भी कुछ कमजोरियाँ हो सकती हैं, वे भी गलतियाँ कर सकती हैं। ये स्त्री के प्रति मातृभाव से ग्रसित होते हैं। यह मातृभाव स्त्री से बिना किसी अपेक्षा के केवल प्रतिदान की उम्मीद रखता है। उनके लिए स्त्री त्याग, दया, ममता, करुणा, सेवा आदि उदात्त भावों की प्रतिमूर्ति होती है। इनमें से एक तत्व की भी कमी उनकी नजर में स्त्री को गिरा देती है। इनकी उदारता की सीमा रेखा मध्यकाल में निर्धारित वे ही मानदंड होते हैं जिसके तहत कबीर ने लिखा होगा – ‘‘पतिव्रता मैली भली, काली कुचित कुरुप/पतिव्रता के रूप पर, वारिहिं कोटि सरूप’’। क्या ही आश्चर्य है कि तेजी से बदलते सामाजिक परिदृश्य के बावजूद स्त्री के प्रति बहुसंख्यक समाज की इस मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है।
दरअसल पुरुष ने सभ्यता के विकास क्रम में अपने लिए बाहर की दुनिया चुनी और स्त्री को घर की चारदीवारी में कैद कर दिया। स्त्री पर पारिवारिक दायित्व सौंपकर वह बाहर की दुनिया के लिए उन्मुक्त हो गया। इस प्रयास में बड़े कौशल से उसने धर्म और संस्कृति के उपादानों के द्वारा स्त्री का इस प्रकार अनुकूलन कर डाला कि पिंजड़े में बद्ध पक्षी की तरह वह उड़ना ही भूल गयी। इस अनुकूलन की प्रक्रिया में खुद को सायास ढ़ालते हुए वह अनायास ही उन गुणों से दूर होता चला गया जो पारिवारिक जीवन के लिए जरूरी होते हैं।
नतीजा यह हुआ कि परिवार के लिए वह स्त्री पर निर्भर होता चला गया। अब जब स्त्री आत्मनिर्भर हो रही है और बाहरी जगत में अपने पंख फैलाने को आतुर है तो उस परिवार नामक संस्था को लेकर असुरक्षा की भावना से ग्रसित है जिसके बूते पर वह उन्मुक्त रहा है। यह उसकी सोच से बाहर की चीज है कि पैसा कमाने के अतिरिक्त परिवार के प्रति भी उसका कोई उत्तरदायित्व हो सकता है। संतति नाम तो उसका वहन करे पर त्याग स्त्री करे। इसलिए वह पूरे जी जान से, नाना विध तर्कों के द्वारा स्त्री विमर्श को खारिज करने में लगा है।
इस प्रयास में पहला तर्क तो यह है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है। वह यह तर्क इसप्रकार प्रस्तुत करता है मानो पुरुष तो सब एक दूसरे के मित्र ही होते हैं। यदि ऐसा ही होता तो विश्व को दो दो विनाशकारी विश्वयुद्धों से न गुजरना पड़ता। इतिहास साक्षी है कि किस प्रकार क्षुद्र स्वार्थों और अहंकारों के कारण अतीत से लेकर आजतक पुरुष युद्धरत रहा है और मानवता के जाने कितने संहार उसने कर डाले हैं और यह प्रक्रिया सभ्यता के इस मुकाम पर पहुंचने के बाद भी अनवरत जारी है। इस तर्क का एक मनोवैज्ञानिक पहलू यह भी है कि मनुष्य स्वाभाविक रूप से आत्मरतिग्रस्त होता है। यह आत्मरति उसे दूसरों के प्रति निर्मम बना देती है। यह पुरुष के लिए जितना सच है उतना ही स्त्री के लिए भी।
व्यक्ति की प्रतिद्वंद्विता अपने ही कार्यक्षेत्र में होती है। जब स्त्री की अपनी ही एक अलग दुनिया हो और उसका कार्यक्षेत्र घर तक ही सीमित हो तो उसका टकराव उसी क्षेत्र में और स्त्रियों के साथ ही नहीं होगा तो किससे होगा! हम अभी भी एक अर्द्धसामंती समाज में जी रहे है जहाँ अवसर मिलते ही कोई भी व्यक्ति दूसरे पर वर्चस्व स्थापित करने का कोई भी अवसर चूकना नहीं चाहता है। हमारे अंदर के किसी कोने में छिपी हुई सामंती प्रवृत्तियाँ हमारी संवेदना को आच्छादित कर लेती हैं और हमें मानवीय नहीं रहने देतीं। अपने आप में परिपूर्ण व्यक्ति किसी दूसरे से आशंकित नहीं होता किन्तु जो अपने अस्तित्व को दूसरों के माध्यम से पुष्टि चाहते हैं, वे सदा इस आशंका से भरे होते हैं कि कहीं दूसरे उनके हाथ से फिसल न जायें।
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इस प्रवृत्ति को हमारे कार्यस्थलों और सार्वजनिक जीवन में महसूस किया जा सकता है। हमारी कार्यसंस्कृति का अभी तक लोकतंत्रीकरण नहीं हो पाया है। इस तर्ज पर कहा जा सकता है कि हमारे समाज में बॉस और सास में कोई अंतर नहीं है। बेचारी सासों को नाहक ही बदनाम किया जाता है। यहाँ तो एक और चीज आ जुड़ती है। स्त्रियों की पुरुषों पर निर्भरता की स्थिति में वे अपनी सत्ता और पहचान के लिए एक दूसरे की प्रतिद्वंद्वी बन जाती हैं। जिन घरों में स्त्रियाँ आत्मनिर्भर है, वहाँ यह स्थिति कम देखने को मिलती है।
इसी प्रकार का एक और आरोप लगाया जा सकता है पुत्र प्राप्ति की कामना और दहेज का और कहा जाता है कि इसके लिए स्त्रियाँ ही जिम्मेदार हैं। किन्तु ऐसा करते हुए यह भुला दिया जाता है कि संस्कृति पर अपने वर्चस्व तथा शिक्षा से स्त्रियों को बेदखल कर जिस प्रकार पितृसत्ता ने स्त्री का अनुकूलन किया, उसके तहत स्त्रियों के मानसिक संस्कार भी पितृसत्ता के सांचे में ही ढ़लें, ऐसे में अनचाहे ही वह उन परम्पराओं का वहन करती रही जो स्वयं उसके विरुद्ध जाती थीं।
बल्कि उसके अस्तित्व को इन परम्पराओं से इस प्रकार नाथ दिया गया कि उससे बाहर निकलना उसके लिए मुश्किल हो गया। उसने पाया कि जिस परिवार पर वह अवलम्बित है उसकी परम्परा पुत्र से ही चलती है, उसके मोक्ष का माध्यम भी पुत्र ही है और देखा कि पुत्र संतान को जन्म देना उसके मान भी वृद्धि ही करता है। विज्ञान भले इस सत्य की पुष्टि करता रहा हो कि लिंग के निर्धारण के लिए पुरुष का जीन जिम्मेदार है पर व्यवहार में इसके लिए स्त्री को जवाबदेह मानकर उसे बेदखल कर दूसरे विवाह की परम्परा भी मान्य रही है। जब सम्पत्ति पर अधिकार पुरुष का हो, निर्णय का हक उसने अपने हाथों में ले रखा हो तब यह कहा जाना कि दहेज के लिए जिम्मेदार स्त्री ही है, एकतरफा सच ही हो सकता है। अधिकतर तो उसका इस्तेमाल पुरुष के हाथों के उपकरण की तरह होता है। हालांकि इस आधार पर ऐसी स्थिति को न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता। बढ़ती हुई जागरूकता और शिक्षा के प्रसार के साथ ये चीजें तेजी से टूट रही हैं – टूटनी भी चाहिये।
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पूरी दुनिया छल और धोखे से भरी पड़ी है। छल पुरुषों ने स्त्रियों के साथ भी कम नहीं किया है। पर स्त्री के प्रति देवत्व की भावना से भरे होने के कारण स्त्री द्वारा किया गया छल उसे बर्दाश्त नहीं होता, वह इतना अधिक आहत कर जाता है कि सम्पूर्ण नारी जाति पर ही लांक्षण लगाने लगता है। उसे स्त्री का देवी के पद से जरा-सा भी स्खलित होना सहन नहीं होता और वह तत्क्षण उसे सम्पूर्ण मानवीय गरिमा से वंचित कर देता है।
एक स्त्री जब अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अप्रत्यक्ष माध्यम या छल का रास्ता अपनाती है तो उसे त्रिया चरित्र कहते हैं। इसे स्त्री का दुर्गण मानते समय इस पर विचार करने की जरूरत नहीं महसूस की जाती कि आखिर एक स्त्री को ऐसा करने की जरूरत पड़ती क्यों है। जब स्त्री की व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठा ही न हो, जब उसकी बात सुनी ही न जाये, निर्णय में उसकी भागीदारी न हो, उसकी इच्छाओं को तरजीह ही न दी जाये, वहाँ अपनी बात रखने के लिए कौशल या कूटनीति का सहारा लेना उसकी विवशता हो जाती है।
आज यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि स्त्री विमर्श की अब आवश्यकता नहीं रही। यह सच है कि चीजें तेजी से बदल रही हैं, पर एक बड़ी आबादी के लिए मंजिल अभी भी काफी दूर है। साठ प्रतिशत काम महिलाओं द्वारा करने के बावजूद जब मात्र एक प्रतिशत सम्पत्ति पर ही उनका हक हो, जनसंख्या में स्त्री का अनुपात एक हजार पुरुषों पर मात्र 940 हो, लोकसभा में स्त्रियों की उपस्थिति मात्र 12 प्रतिशत ही हो, कन्या भ्रूण हत्या तथा स्त्रियों के विरुद्ध घरेलू हिंसा तथा यौन हिंसा की घटनाएं थम नहीं रही हों, प्राथमिक और उच्च शिक्षा में लड़कियों की पर्याप्त भागीदारी न हो – तबतक यह कैसे कहा जा सकता है कि स्त्री विमर्श अब बेमानी हो गया है? ये सारी चीजें बताती हैं कि असमानता की दीवारें अभी टूटी नहीं हैं।