प्रशान्त भूषण और न्याय-पालिका
देश की राजनीतिक संस्कृति में संवाद के मंच घटते जा रहे हैं। सहमति के दायरे सिकुड़ रहे हैं। सहयोग के आधार कमजोर हो रहे हैं। सामूहिक हस्तक्षेप उर्फ़ जन-आन्दोलनों का आकर्षण घट रहा है। समाज की राजनीति और अर्थनीति में सुधार के लिए जनशक्ति के आधार पर चल रहे लोकतान्त्रिक आन्दोलनों की सुनवाई नहीं हो रही है। देश में सत्ता-व्यवस्था की आलोचना और देशद्रोह को पर्यायवाची प्रचारित किया जा रहा है। जनतांत्रिक संस्थाओं को प्रभावहीन बनाने की शिकायत को सत्ताधीशों ही नहीं बल्कि संवैधानिक संस्थाओं का अपमान बताया जाता है। इस सबके बारे में अबतक एक सुनवाई की जगह रह चुके न्यायालयों में भी उदासीनता का माहौल बनता जा रहा है।
नागरिकता कानून संशोधन से उत्तर-पूर्वी प्रदेशों में हुई उथल-पुथल और जम्मू-कश्मीर प्रदेश के विघटन के विरोधियों की नजरबन्दी से लेकर कोरोना माहामारी से निपटने के लिए घोषित आकस्मिक ‘लाक-डाउन’ से कई करोड़ श्रमजीवी स्त्री-पुरुषों के परिवारों के क्रूर विस्थापन तक से जुड़े आवेदन अपेक्षित तत्परता से नहीं निपटाए गए। इससे ‘चुप्पी की संस्कृति’ को बढ़ावा मिल रहा है। सरकार विरोधियों को काबू में करे यह अप्रत्याशित नहीं होता। लेकिन अपनी सर्वविदित संवैधानिक स्वायत्तता के बावजूद न्यायपालिका नागरिक अधिकारों का मान-मर्दन होने की अनदेखी करे तो ‘दुर्योधन-दरबार’ से तुलना होने लग जाती है।
जो फिर भी बोलते हैं उनको दण्डित करने की परम्परा बन रही है। मराठा राज और ब्रिटिश सेनाओं के बीच में भीमा कोरेगांव की स्मृति में किये जानेवाले पारंपरिक आयोजन से लेकर नागरिकता कानून के बारे में महिलाओं की अगुवाई में शाहीन बाग़ में हुए लम्बे धरने तक से जुड़े नागरिकों के साथ सरकार का सलूक लोकतंत्र के प्रति निष्ठावान लोगों में चर्चा का विषय हैं। अंधविश्वासों के निर्मूलन में जुटे समाजसुधारक डा। नरेंद्र दाभोलकर, चिन्तक आचार्य कलबुर्गी, श्रमजीवियों के नेता पनसरे और मीडियाकर्मी गौरी लंकेश की ह्त्या के षड्यंत्रों के बारे में पुलिस और न्यायपालिका की रहस्यमय सुस्ती से भी सत्ता-प्रतिष्ठान के इरादों के बारे में भरोसा घट रहा है।
डा. सुधा भारद्वाज, प्रो. आनन्द तेलतुम्बड़े, डा. साईं बाबा और गौतम नवलखा जैसे आलोचक बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी को जारी रखना अशुभ रहा है। लेकिन वरिष्ठ अधिवक्ता और वंचित वर्गों के लिए नि:शुल्क मुकदमें लड़ने के लिए प्रसिद्ध प्रशान्त भूषण के द्वारा जून के अंतिम सप्ताह में किये गए दो ‘ट्वीट’ को लेकर देश की सबसे बड़ी अदालत द्वारा आनन फानन में सुनवाई के बाद सर्वोच्च न्यायालय के अपमान का दोषी घोषित करने से सब्र का बाँध टूट गया लगता है। क्योंकि पूरे देश में विरोध की बाढ़ आ गयी है।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों को लेकर जन-साधारण में सम्मान और विधि-विशेषज्ञों की शालीन चुप्पी का चलन रहा है। लेकिन इस बार सर्वोच्च न्यायालय के अनेकों अवकाशप्राप्त न्यायाधीशों और देशभर के अनगिनत वकीलों ने अपना अचरज दिखाते हुए अभिव्यक्ति के संवैधानिक अधिकार के पक्ष में साझा बयान जारी किये हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के 20 वरिष्ठ नेताओं ने इसे लोकतंत्र विरोधी बताते हुए एक स्वर में सार्वजनिक आलोचना की है।
3000 वरिष्ठ नागरिकों, सेना और प्रशासन से जुड़े व्यक्तियों और शिक्षाविदों ने इसे आलोचना के अधिकार के लिए आपत्तिजनक बताया है। बुद्धिजीवियों और साहित्यकर्मियों ने ‘असहमति’ की जरुरत रेखांकित करते हुए प्रशान्त भूषण के बयान से सहमति जाहिर की है। किसान आन्दोलन, श्रमिक संगठन, विद्यार्थी मंचों और नागरिक अधिकार से जुड़े नागरिक संगठनों तक के लोग इस निर्णय का खुला विरोध कर रहे हैं और दोनों ‘ट्वीट’ को ‘री-ट्वीट’ कर रहे हैं। गाँधीमार्गियों से लेकर मार्क्सवादियों और समाजवादियों के बयान आ चुके हैं। विदेशों से आप्रवासी भारतीयों और गैर-भारतीय समाज वैज्ञानिकों ने चिंता जाहिर की है। क्यों? कई स्पष्ट कारण हैं —
एक तो, जानकारों को यह अचरज हुआ है कि माननीय न्यायाधीशों ने इस मामले में महान्यायवादी ( अटर्नी जनरल ) की सलाह की परम्परा का ध्यान क्यों नहीं रखा ? इस बात की तो चर्चा हो ही रही है कि महान्यायवादी श्री वेणुगोपाल ने बहस के दौरान दो-टूक शब्दों में कहा कि इस मामले में प्रशान्त भूषण को दण्डित नहीं करना चाहिए। फिर भी न्यायाधीश मंडल ने कहा कि महान्यायवादी की सलाह किसने और कब मांगी? हम जरुर और भरपूर सज़ा देंगे!
दूसरे, इस फैसले में कुछ वर्ष पहले इंडियन एक्सप्रेस की सम्पादकीय टिप्पणी पर सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना का आरोप लगाकर सम्पादक श्री मुलगांवकर पर चलाये गए मुकदमें के निर्णय की अनदेखी की गयी है।
तीसरे, इस बार माननीय न्यायाधीशों ने अपने निर्णय में 30 वर्ष से वकालत कर रहे अबतक 500 जनहित याचिकाओं की पैरवी करने के कारण बहुचर्चित वकील प्रशान्त भूषण के 150 पृष्ठ के जवाब के बारे में कोई जिक्र ही नहीं किया है। क्या फैसला करने की जल्दी में आरोपी के पक्ष की विवेचना करने का समय नहीं मिला? बिना जवाब पर कोई ध्यान दिए यह कैसे घोषित किया गया कि इस तरह की टिप्पणियाँ मर्यादा की ‘लक्ष्मण-रेखा’ लांघने की समस्या पैदा करती हैं। ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघने पर माता सीता को रावण के सत्ता-प्रतिष्ठान ने बन्दिनी बनाया था। अगर प्रशान्त भूषण जैसे नागरिक न्यायाधीशों के कल्पना जगत की ‘लक्षमण रेखा’ लाँघ चुके हैं तो उन्हें किस का सत्ता-प्रतिष्ठान बंद कारावास में रखने जा रहा है?
अंतिम, चौकाने वाली बात यह देखी गयी कि माननीय न्यायमूर्तियों ने अपने फैसले में लिखा है कि एक वरिष्ठ विधिवेत्ता की हमारे लोकतंत्र और इसके सर्वोच्च न्यायालय के बारे में कुल 280 अक्षरों की मात्र दो सरोकारी टिप्पणियों से कुछ ही हफ़्तों में दुनिया के सबसे विराट जनतांत्रिक सत्ता-व्यवस्था का ‘केंद्रीय स्तम्भ बुरी तरह से डांवाडोल’ हो गया है और यह एक दंडनीय हरकत है ! स्वराज और लोकतंत्र के सात दशकों की उपलब्धियों के उत्सव के माहौल में न्यायमूर्ति मंडल की इस घबराहट का क्या आधार है और इसे कौन ‘समझदारों का निष्कर्ष’ मानेगा? क्या प्रशान्त भूषण के शब्दों में हिरोशिमा और नागासाकी को ध्वस्त करनेवाले परमाणु बम से ज्यादा विध्वंसकता है?
इस अवमानना-प्रकरण के बारे में आये फैसले से ‘वकील एकता’ का नारा लगने लगा है और न्यायपालिका सुधार की कम-से-कम चार मांगें देश की हवा और ‘सोशल मीडिया’ में फ़ैल गयी हैं। आनेवाले दिनों में इतिहासकार इसका श्रेय प्रशान्त भूषण के दो अति-संक्षिप्त ‘ट्वीट’ (टिप्पणी) को जरुर देंगे। लेकिन इसका असली कारक एक बेतरतीब और संक्षिप्त सुनवाई के बाद न्यायाधीश-मंडल के द्वारा जारी लम्बे-चौड़े फैसले को बताया जाना चाहिए। इसी फैसले के कारण ये मांगें उठी हैं —
पहली, सर्वोच्च न्यायालय और मुख्य न्यायाधीशों की इधर के वर्षों की चिन्ताजनक भूमिका की आलोचना करके ‘दर्पण में छवि’ दिखानेवाले एक वरिष्ठ अधिवक्ता को दण्डित करने की बजाय न्यायाधीशों द्वारा अपनी आत्मसमीक्षा की जाए – पहले एक पूरी बेंच प्रशान्त भूषण के ‘उपेक्षित उत्तर’ में दिए गए प्रमाणों और उनके पक्षधर सर्वोच्च न्यायालय की ही वर्षों तक शोभा बढ़ा चुके वयोवृद्ध जजों और अधिवक्ताओं के बयानों की जांच करें। फिर सर्वोच्च न्यायालय को ज्यादा उत्तरदायी व आदरणीय बनाने के लिए मुख्य न्यायाधीश समेत सभी न्यायाधीशों के लिए एक पारदर्शी और जवाबदेह लोकतान्त्रिक आचरण संहिता बनाएं और अपनाएँ।
दूसरे, ‘ नागरिकों के अभिव्यक्ति और आलोचना के अधिकार’ को सुरक्षित रखा जाये और ब्रिटेन समेत दुनिया के अन्य लोकतान्त्रिक राष्ट्रों की तरह ‘अवमानना कानून’ को समाप्त किया जाए।
तीसरे, अवकाश-प्राप्त कुछ मुख्य न्यायाधीशों समेत अन्य न्यायाधीशों के बारे में अपने निजी लाभ के लिए सरकार के पक्ष में फैसले देने और आमदनी से ज्यादा संपत्ति के बारे में लगाए गए नए-पुराने आरोपों की निष्पक्ष समयबद्ध जांच की जाये ताकि उनकी छवि को निष्कलंक बनाए रखा जा सके।
चौथे, न्यायाधीशों और न्यायालय की स्वायत्तता को मजबूत करके इसे सरकार के दबाव से मुक्त करने के लिए भारतीय संविधान के प्रति जवाबदेह बनाया जाए। इस प्रसंग में न्याय-व्यवस्था में बढ़ चुकी अव्यवस्था के निर्मूलन के लिए राष्ट्रपति, संसद के दोनों सदनों और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संयुक्त रूप से नियुक्त विधिवेत्ताओं की एक विशेषज्ञ समिति की मदद से तहसील कचहरी से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक को लोकतान्त्रिक आधार पर पुनर्गठित किया जाये।
देश की न्याय-पालिका में बुनियादी बदलाव की जरूरत को लेकर लम्बे अभियान की एक पृष्ठभूमि जरुर है। लेकिन इधर अगस्त महीने के चंद दिनों के अखबारों के सम्पादकीय, विशेषज्ञों के साक्षात्कारों, प्रशान्त भूषण प्रसंग से जुड़े प्रतिरोध कार्यक्रमों और राष्ट्रव्यापी वेबिनारों से ये ठोस सुझाव उभरे हैं। इसे आधार बनाकर जिला और प्रदेश स्तर पर लोकतान्त्रिक संगठनों और वकीलों के मंचों द्वारा ‘न्याय-व्यवस्था सुधार अभियान समिति’के गठन के संकेत आने लगे हैं।
उधर, न्यायाधीशों की संवैधानिक जवाबदेही (ज्युडिशियल एकाउंटेबिलिटी) के लिए विधि-विशेषज्ञों के साथ दो दशकों से प्रयासरत प्रशान्त भूषण ने भी सर्वोच्च न्यायालय में अदालत की राय स्वीकार कर माफ़ी मांगने की बजाय सत्याग्रही गाँधी को अपना प्रेरणास्त्रोत दिखाते लोकतंत्र और न्यायपालिका की दुर्दशा का सच जग-जाहिर करने के एवज में अपने को दंड के लिए प्रस्तुत करके न्याय के लिए दर-दर की ठोकर खा रहे अनगिनत लाचार स्त्री-पुरुषों को अपना समर्थक बनाने में सफलता पायी है। अगर प्रशान्त भूषण को दण्डित किया गया तो यह आग में घी का काम करेगा। जगह – जगह प्रशान्त भूषण का अभिनन्दन-अनुसरण होगा। उनका हर सम्मान-उत्सव न्यायालय और न्यायाधीशों की छवि को कुछ और दागदार बनाएगा। साथ ही, विदेशी शासन की कोख से जन्मी भारतीय न्याय-व्यवस्था को लोकतान्त्रिक और जनहितकारी बनाने वाले सुधारों की जरुरत और मांग को और प्रासंगिक बनाएगा।
+++