हर विषय की अपनी भाषा होती है. इसी लिहाज से राजनीति की भी एक मर्यादित भाषा होती है. राजनीति में मर्यादित भाषा इसलिए जरूरी होती है ताकि समाज को निर्देशित कर सके. जब हमारे राजनेता प्रतिद्वंदी के लिए ओछी भाषा का प्रयोग नहीं करते हैं तो समाज के किसी भी व्यक्ति को इस तरह की भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए. राजनीति और राजनेता समाज के लिए अच्छे आदर्श भी स्थापित करते जाते हैं और समाज हर क्षण उस आदर्श को अंगीकृत करता रहता है. लेकिन भारत की राजनीति, इस कालखंड के सबसे निचले स्तर को स्पर्श कर रहा है. वैसे तो भारत की राजनीति और राजनेता बहुत कम ही समय भारत के नागरिक के मुद्दे पर चर्चा करती है. बहरहाल, अब भारतीय राजनीति इस मुद्दे पर रुक गयी है की राजनेता एक दूसरे के लिए किस तरह की भाषा का प्रयोग करेंगे. पहले वो खुद इस दलदल से निकल जाएँ तो शायद समाज में कुछ आदर्श स्थापित कर सकें.
आज भारत की संसद इस बात पर बहस कर रही है कि प्रधानमंत्री ने ओछी भाषा का प्रयोग किया उसके लिए वो माफ़ी मांगे. दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी का भी आरोप है कि प्रधानमंत्री के लिए ओछी भाषा के उपयोग करने के लिए कांग्रेस पार्टी माफ़ी मांगे. इस बीच किसान, बेरोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, रेलवे, कानून-व्यवस्था, समाज में फैल रहे बहुसंख्यकवाद जैसे मुद्दे संसद में कहीं दूर-दूर तक नहीं हैं. इस आरोप-प्रत्यरोप के बीच प्रधानमंत्री कई जगह भावुक हो जाते हैं और यह भी कहने लगते हैं की मुझे बुरा-भाल कहा जा रहा है. क्या कोई प्रधानमन्त्री के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग कर सकता है? यह बात बिलकुल सही है कि प्रधानमंत्री जैसे मर्यादित पद के लिए किसी भी सूरत में ओछी भाषा का प्रयोग सिर्फ असंसदीय, असंवैधानिक ही नहीं बल्कि असामाजिक भी है. इस तरह की भाषा का प्रयोग से तो हम अपने परिवार, दोस्तों के बीच में भी बचते हैं.
लेकिन क्या प्रधानमंत्री इसके लिए खुद जिम्मेदार नहीं हैं? भारतीय राजनीति जनता की याद न रखने की आदत का खूब फायदा उठाती है. नेता मान कर चलते हैं कि जनता की याददाश्त छोटे समय के लिए होती है. इसलिए हर समय मुद्दे बदल दिए जाते हैं. जनता भी पिछले मुद्दों को भूल जाती है. लेकिन बुद्ध ने कहा था कि समस्या के कारण, जड़ को ढूंढ़ना ही समाधान ढूंढ़ना होता है. प्रधानमंत्री मोदी के लिए जिस तरह की भाषा का प्रयोग आये दिन लोग करते हैं असल में उसकी शुरुआत खुद प्रधानमंत्री ने की थी. जिस प्रधानमंत्री पद की गरिमा की दुहाई देकर जनता के बीच रुआंसा हुआ जा रहा है उस पद की गरीमा को कमतर आंकने का काम भी मोदी जी ने ही शुरू किया था. गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लालकिले की प्राचीर से दिये जाने वाले भाषण के समानान्तर बतौर मुख्यमंत्री जो भाषण दिया था जो की असंवैधानिक भी था और प्रधानमंत्री पद की गरिमा का तिरस्कार भी. पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने उसकी निंदा भी की थी. प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए रेनकोट पहनकर नहाने की बात कही, मौनी बाबा से लेकर ऐसे हजारों शब्द प्रयोग किये, जिसे किसी भी तरीके से सही नहीं कहा जा सकता था. बीजेपी के गुलाबचंद कटारिया ने तो मनमोहन सिंह के लिए ‘“सा…”” गाली तक का प्रयोग किया. प्रधानमंत्री मोदी खुद कांग्रेस के नेता के लिए 50 करोड़ की गर्लफ्रेंड” जैसे शब्दों का प्रयोग कर चुके हैं. प्रधानमंत्री मोदी के लिए मणिशंकर अय्यर ने ‘“नीच’” शब्द का प्रयोग किया जिसको लेकर काफी हंगामा भी हुआ लेकिन इसका खंडन करते हुए यह भी देखना जरुरी है कि इस पद की गरिमा का ख्याल किसी को भी नहीं था, न है. प्रधानमंत्री मोदी ने खुद इस पद की गरिमा का ख्याल नहीं रखा. मोदी के भाषण ने ज्यादातर लोगों के बात करने के तरीके को अपनाया, उससे लोग उनसे कनेक्ट भी हो पाए लेकिन मोदी जी को तो लोगों के लिए आदर्श खड़ा करना था, लोगों के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन के साथ-साथ उन्हें जनता के आपसी भाषाई व्यवहार को भी बदलना था. यही नेता का काम होता है.
बहरहाल, जिस भाषा को लेकर इतना हंगामा है, उसकी शुरुआत मोदी जी ने ही की और उसकी फसल भी अब मोदी जी काट रहे हैं. मणिशंकर अय्यर के साथ कोई भी खड़ा नहीं हुआ, होना भी नहीं चाहिए लेकिन मोदी जी के साथ भी इस तरह की भाषा के प्रयोग पर, खड़ा होना संभव नहीं. इस देश को सभ्यता के रास्ते पर आगे बढ़ना है, लेकिन हमारी राजनीति या तो हमें पीछे ले जा रही है या फिर हमें एक जगह स्थिर कर रही है. राजनीति में सभ्यता नहीं, एक-दूसरे के लिए सौहार्द-सम्मान नहीं तो इस देश की जनता इस राजनीति से किस बदलाव की अपेक्षा रख सकती है. यह तय हो गया है कि इस देश की राजनीति से कुछ भी अच्छा करने की अपेक्षा ही बेमानी है.
डॉ. दीपक भास्कर
दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कॉलेज में राजनीतिशास्त्र के सहायक प्रोफ़ेसर हैं.
deepakbhaskar85@gmail.com
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