‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ : धूमिल नहीं है, अब यह मुक्ति–बोध देश समझ रहा है
[शाहीन बाग़ में एकत्रित भीड़ के मद्देनज़र उठते सवालों की पड़ताल : ‘जिन्ना वाली आज़ादी’ के मायने क्या हैं? फैजुल हसन ने क्यों कहा – “हम वो कौम से हैं, अगर बर्बाद करने पर आयेंगे तो छोड़ेंगे नहीं। किसी भी देश को ख़त्म कर देंगे।” क्या कौम के नाम पर अतिवादी कट्टरपंथी फिर से भारत के टुकड़े करने की चाह रखते हैं? ; क्या ‘कट्टरता का चुनाव’ करने वालों को भी इस मुल्क़ से मुहब्बत है? ; ‘जय भीम–जय मीम’ से अनुसूचित जातियों का कितना भला हुआ?; नागरिकता क़ानून के विरोध में सड़कों पर उतरने वालों को अनुसूचित जाति विरोधी क्यों न कहें? ; क्या होता यदि श्री जोगेन्द्र नाथ मंडल को आज़ाद भारत में शरण न मिलती? ; कौन हैं, जो हिन्दुओं के विभाजन से फायदे में हैं? ; बुद्धिजीवी ‘चयनात्मक आख्यान’ और ‘आक्रोश’ से क्योंकर आलिंगनबद्ध हैं? ; कौन हैं, जो हिन्दुओं को कट्टर बना रहे हैं? ; क्या हिन्दुओं को नागरिकता क़ानून के पक्ष में एकजुट हो जाना चाहिए? ; शाहीन बाग़ का ‘प्रायोजित जमघट’ संविधान विरोधी क्यों है? ; ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ का मंत्र देने वाले मोदी से इतनी नफ़रत क्यों है? ; भारत ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ की भूमि है। ‘गतिरोध–अवरोध की विकृति’ का पाठ कहाँ से आ रहा है?] |
दिल्ली हमेशा से ही समझ से परे रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक आत्मीय प्रोफेसर ने एक प्रसंग विशेष में कहा था, ‘तुम नहीं समझोगे आनंद, यहाँ के डाइनेमिक्स अलग हैं।’ वास्तव में दिल्ली को जितना समझने की कोशिश की जाए, वह और अधिक जटिल होती चली जाती है। परन्तु इन दिनों जिस तरह दिल्ली को कंपाने की कोशिश की जा रही है, उससे अब दाँत किटकिटाने लगे हैं। दिल्ली और वहाँ के डाइनेमिक्स अब भी समझ से परे हैं परन्तु दिल्ली के शाहीन बाग़ में जो जमघट लगा हुआ है, वह अनायास ही बहुत कुछ समझा रहा है ; इतिहास कुछ-कुछ याद दिला रहा है और जनमानस में अनेकानेक सवाल खड़े कर रहा है। कई बुद्धिजीवी मित्रों को शाहीन बाग़ की इस ‘प्रायोजित भीड़’ पर ‘फ़ख़्र’ है ; कोई ‘सांस्कृतिक हस्तक्षेप’ के नाम पर अपना ‘पूर्व–निर्धारित एजेंडा’ बेच रहा है तथा ‘संविधान और लोकतन्त्र की हिफाज़त’ का स्वांग रच रहा है। एक प्रश्न बारम्बार उठता है, जबकि ‘प्रजातांत्रिक संस्कृति’ की गुणवत्ता की कसौटी पर खरे उतरे प्रधानमन्त्री ने दिल्ली के रामलीला मैदान से और गृहमन्त्री ने विविध मंचों से अपने भाषणों में सबको विश्वास दिलाया कि ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम’ किसी भी भारतीय की नागरिकता लेने के लिए नहीं बल्कि इस्लामिक धर्मराज्यों (theocratic states) में कट्टरपंथियों द्वारा उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लिए पारित किया गया है ताकि वे भी सम्मान से जी सकें, अपनी आस्था–विश्वास–अस्तित्व बचा सके ; इस आश्वासन के बावजूद इस देश के मुस्लिम ‘वर्ग विशेष’ को इस क़दर बहका दिया गया है कि वह “सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास” मंत्र (एकता मंत्र) देने वाले प्रधानमन्त्री मोदी और भाजपा को ‘मुस्लिम विरोधी’ मान चुका है और हर जगह अपना संख्याबल दिखाने में कोई क़सर नहीं छोड़ रहा है। हम आए दिन देख रहे हैं कि तथाकथित सेक्यूलर (छद्म!) कलाकार, बुद्धिजीवी और उपेक्षित विपक्षी राजनीतिक दल के नेता इस भीड़ को भ्रमजाल में फाँसने वाला वैचारिक खाद–पानी मुहैया कराने से नहीं चूक रहे हैं। इस भीड़ और यहाँ परोसे जा रहे नारे और नैरेटिव को सुनकर लगता है, “नहीं – अब वहाँ अर्थ खोजना व्यर्थ है /पेशेवर भाषा के तस्कर–संकेतों /और बैलमुत्ती इबारतों में /अर्थ खोजना व्यर्थ है / हाँ, अगर हो सके तो बगल के गुज़रते हुए आदमी से कहो – /लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा, /यह जुलूस के पीछे गिर पड़ा था /इस वक़्त इतना ही काफ़ी है।” (धूमिल, कविता)
वर्तमान परिवेश में साहित्यकर्मी एवं संस्कृतिकर्मियों में ‘कर्मी’ कम ही शेष बच गए हैं और ‘कृमि’ (vermin) अधिक हो गये हैं। आप गौर करेंगे, इनमें ‘अनुभूति’ और ‘संवेदना’ लगभग नदारद है किन्तु अपनी ‘अभिव्यक्ति’ में ‘चयनात्मक आख्यान’ (selective narrative) गढ़ने और ‘चयनात्मक आक्रोश’ (selective outrage) रचने और प्रचारित करने में इन्हें महारत हासिल है। दुख इस बात का है कि ये इसके आदी हो चुके हैं। इन्होंने अपने सामाजिक सरोकारों को तिलांजलि दे दी है और समाज में विश्वसनीयता ‘लगभग’ खो चुके हैं। सही मायने में इन्हें अब ‘सामाजिक’ कहना समीचीन नहीं लगता बल्कि इच्छा होती है कि इन्हें ‘असामाजिक’ ही कहा जाए क्योंकि ये ऐसे जुलूसों में सर्वतः उसी ‘तत्व’ को पनपने की हिम्मत बाँट रहे हैं। इनसे देश (और देश की एकता!) को आंतकवादियों का सा ख़तरा है बल्कि कहना समीचीन ही होगा – आतंकियों की तुलना में इन्हीं से ज़्यादा ख़तरा है क्योंकि इन्होंने युवाओं का ‘मानसिक अनुकूलन’ (mental conditioning) करने की एक चमत्कारिक कला अर्जित कर ली है। वे युवाओं की मानसिक बनावट और बुनावट (moulding /restructuring) पर प्रहार करते हैं तथा उनमें सौहार्द की जगह सनक, अहिंसा की जगह आक्रोश और हिंसा, सामाजिकता की जगह असामाजिकता (मानवीयता–अमानवीयता), देशप्रेम की जगह देशद्रोह, जिजीविषा की जगह विरक्ति, संवेदनशीलता की जगह असंवेदना, मुहब्बत की जगह नफ़रत, सहिष्णुता की जगह असहिष्णुता ठूँस–ठूँस कर भर देते हैं। इनके सानिध्य में देश का युवा राष्ट्रप्रेम और भाईचारा नहीं बल्कि उपद्रव और हिंसा सीखने को विवश है। बौद्धिक जगत की इस अप्रामाणिक हलचल और हरक़तों ने देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में हो रहे मनमाने और झूठे उपद्रवों की टोह लेते हुए सविस्तार लिखने को विवश कर दिया था। उस वैचारिक लेख को यहाँ पढ़ा जा सकता है। (https://sablog.in/narratives-forging-new-era-and-the-truth-of-the-mentality-of-left-supporters-jan-2020/)
इनके लिए मोदी और भाजपा विरोध प्रसिद्धि का सा–धन बन गया है। वे सोचते–कहते हैं, किसी (इसी) बहाने समाचारों में तो छाये रहेंगे और यही पहल आगे चलकर राजनीति के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा। ऐसे साहित्य और संस्कृति ‘कृमि’ देश और समाज को खोखला करने में कोई क़सर नहीं छोड़ रहे हैं। ऐसे कृमियों की हरक़तों को रेखांकित करने का विचार आया तो मुक्तिबोध से ही प्रेरणा मिली – “अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे /उठाने ही होंगे।” इन्होंने साहित्य एवं संस्कृतिकर्म की आड़ में ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ के नाम पर जो अपने–अपने मठ और गढ़ बना लिए हैं, उन्हें तोड़ने की नितान्त आवश्यकता है, अन्यथा निकट भविष्य में “मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम” की शोकाग्नि में जल कर तड़पते रहना होगा।
मुक्तिबोध ने संभवतः ऐसे ही लोगों के लिए लिखा है – “यहाँ ये दीखते हैं भूत–पिशाच–काय /भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब /साफ उभर आया है, /छिपे हुए उद्देश्य /यहाँ निखर आये हैं।” इसी कविता का पूर्वार्ध “उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक जगमगाते कवि–गण” की मिलीभगत भी उल्लेखनीय है। संभवतः ऐसे ही आलोचक, कवि और विचारकों की वैचारिकी के मद्देनज़र उस अघोषित कवि घनश्याम ने लिखा होगा – “पहली पुस्तक पढ़कर लगा /मेरा कद /कुछ ऊँचा उठा /ऊँचे उठने का उन्माद /पुस्तक–दर–पुस्तक /सीढ़ी बनने लगा /पहले /तुम मुझे बौने लगने लगे /फिर कीड़े–मकोड़े /और अब दीमक… /कि होश आया /दीमक /मेरी पहली पुस्तक को लग चुकी है/ और किसी भी क्षण /औंधे मुँह गिर पडुँगा /कभी न उठ पाऊँगा/ मैं” (2012) जिनसे समाज चेतना ग्रहण करता है तथा सन्मार्ग पर चल पड़ता है, वे ही घनघोर कुमार्गी हो गए हैं और समाज में क्रोधावेश भरने का निरंतर उपक्रम कर रहे हैं। ऐसे लोगों की वैचारिकी का ही खाद–पानी है कि ‘सेक्यूलरिज़्म’ की ओट में ‘जिन्ना वाली आज़ादी’ के नारे भी बुलंद हो रहे हैं और फैजुल हसन जैसे बिगडैल युवा (नेता बनने की उद्दाम चाह में!) कहने से नहीं चूक रहे हैं – “हम वो कौम से हैं, अगर बर्बाद करने पर आयेंगे तो छोड़ेंगे नहीं। किसी भी देश को ख़त्म कर देंगे।” इस नकारात्मक वैचारिकी पर आज सबको सोचने–विचारने की ज़रूरत है। इस देश में ‘कुछ लोगों’ को (धर्मांध और आयातित वैचारिकी पोषक!) कुछ भी सकारात्मक दिखाई क्यों नहीं देता? जबकि हम भलीभाँति जानते हैं, “हर आदमी एक–दूसरे की परिस्थिति है, एक–दूसरे का परिवेश है” (मुक्तिबोध, सतह से उठता आदमी) फिर क्यों इस देश की परिस्थिति और एक–दूसरे के परिवेश में विष घोलने का काम किया जा रहा है। ऐसे कट्टर और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का विचार रखने वालों को क्या कभी ‘स्वयं का चरित्र–ज्ञान’ हो भी पायेगा? इनके आचरण और व्यवहार को रेखांकित करने के लिए सुदामा पाण्डे ‘धूमिल’ सहज ही स्मरण आते हैं –“मालूम है कि शब्दों के पीछे /कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं /और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं – आदत बन चुकी है।” और “वह बहुत पहले की बात है /जब कहीं किसी निर्जन में /आदिम पशुता चीख़ती थी और /सारा नगर चौंक पड़ता था।” अब ओ–वैसी तथा फैजुल हसन जैसे कौमी नफ़रत फैलाने वाले आदिम पशु की भाँति जनसभाओं में चीखते हैं। आश्चर्य नहीं कि अब कोई नहीं ‘चौंक पड़ता’ और हम जानते हैं कि पशुत्व की भाषा (जला दो–मिटा दो!) बोलने वालों के साथ खड़े होने वाले (‘I Stand With Shahinbagh’ एक राजनीतिक स्टंट हो गया है) और उनकी वक़ालत करने वाले उन्हें चुपचाप सुनते ही नहीं रहते बल्कि अपने लिए इसे ‘सिंहासन खाली’ करवाने का कारगर हथियार मानकर मन ही मन आह्लाद से भर उठते हैं। ऐसा करते हुए वे ‘पंचतन्त्र’ की ‘चार मित्र’ कहानी का भीषण अंत भूल जाते हैं।
हाल में कमलेश्वर की पुस्तक ‘हिन्दुत्व बनाम हिन्दुत्व’ हाथ लगी। इस पुस्तक में उन्होंने प्रकारांतर से संघ को सेक्यूलरिज़्म के लिए ख़तरा बताया है और कहा कि ‘मुझे दोबारा हिन्दू बनाया जा रहा है!’ आज कमलेश्वर नहीं हैं, वरना एक वाजिब सवाल बिल्कुल बनता कि आत्मीय! कौन हैं जो धर्माधारित राजनीति कर रहे हैं और हिन्दुओं को कट्टर बनने के लिए उकसा रहे हैं? माननीय सरसंघचालक जी ने तो ‘हिन्दुत्व’ की परिभाषा बहुत स्पष्ट कर दी है। कौन हैं ये लोग जो हिन्दुओं को कट्टर बनाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं? क्या आप मुक्तिबोध के मंतव्य से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते – “हर आदमी एक–दूसरे की परिस्थिति है, एक–दूसरे का परिवेश है।” कौन हैं ये लोग जो भाजपा और संघ को ‘कट्टर हिन्दुत्ववादी’ का ‘टाइटल’ देकर सबको बहकाने का उपक्रम कर रहे हैं? कौन हैं ये लोग जो घुसपैठियों की वक़ालत कर रहे हैं? कौन हैं ये लोग जो नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में देश में अराजकता का माहौल बना रहे हैं? आत्मीय! पुस्तक को दीमक लगने से कोई फर्क़ नहीं पड़ता। उसे पुनर्प्रकाशित किया जा सकता है। परन्तु वही दीमक यदि दिमाग़ को लग जाए तो क्या किया जा सकता है? देश का वर्तमान और भविष्य पुस्तकों में वैचारिकी के रूप में परोसे गये दीमकों के लगने से लगभग खोखला होने को है। आज सबको ‘सच को सच’ और ‘झूठ को झूठ’ कहने हिम्मत करने की ज़रूरत है। मैंने माना, ज़रूरी नहीं कि बड़ा लेखक सचमुच सबकुछ अच्छा ही लिख जाता है!
बहरहाल, वर्ग विशेष की हिंसक और भीषण उग्रता (atrocious cruelty) के बावजूद ‘जय भीम’ का नारा देने वाले नेता शाहीन बाग़ की ‘प्रायोजित भीड़’ का हिस्सा बनते हुए देश के हर हिस्से में 5000 शाहीन बाग़ बनाने की बात करते दिखाई दे रहे हैं। क्या आप सोचने के लिए बाध्य नहीं कि ‘परिस्थिति–परिवेश’ बिगाड़ने वाले क्या मंशा रखते हैं? बहरहाल, संभवतः चन्द्रशेखर आज़ाद भूल चूके हैं कि इस्लाम के नाम पर बने पाकिस्तान की वक़ालत करने वाले श्री जोगेन्द्रनाथ मंडल के साथ क्या हुआ था! पाकिस्तान में अनुसूचित जातियों का उद्धार देखने वाले जोगेन्द्रनाथ मंडल को अंततः भारत ही क्यों लौटना पड़ा था? ‘जय भीम–जय मीम’ नारे के जोश–जल्लोष में पाकिस्तान जाने वाली हिन्दू अनुसूचित जाति के लोगों के साथ क्या हुआ था? कितने भाग कर वापस भारत आये थे? कितनों को कितना अत्याचार सहना पड़ा था और कितनों को इस्लाम कुबूलने को विवश कर दिया गया था? कितनों को अपनी माताएँ–बहनें–बेटियाँ वहीं छोड़ने को विवश किया गया था? और तो और ‘जय भीम–जय मीम’ के जोश–जल्लोष के दौरान ही तत्कालीन पूर्वी बंगाल में पिछड़ी हिन्दू जाति के लोगों को खुलेआम मौत के घाट उतारा गया था। उनके घर फूँक दिये गये थे और माँ–बहन–बेटियों के साथ बलात्कार पर बलात्कार किये गये थे। चन्द्रशेखर आज़ाद संभवतः अपने अतीत और पूर्वजों के हालात–हवालों से सीख नहीं ले पाये हैं! वैसे जिन शरणार्थियों को नागरिकता देने के लिए यह क़ानून बनाया गया है, उनमें ‘हिन्दू अनुसूचित जाति’ के लोग तादाद में (70 प्रतिशत!) शामिल हैं। क्या स्थिति होती यदि पाकिस्तान से पलायन कर आने वाले श्री जोगेन्द्र नाथ मंडल और हिन्दू अनुसूचित जाति के लोगों को आज़ाद भारत में शरण न मिलती? वे इस्लामिक धर्मराज्यों से खदेड़े गये थे फिर जाते तो और कहाँ जाते? आज भी जो वहाँ से पलायन कर भारत पहुँचे हैं तो क्योंकर उन्हें नागरिकता नहीं देनी चाहिए? अगर यह ग़लत है तो वह भी ग़लत था! क्या श्री जोगेन्द्रनाथ मंडल को मरने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए था?
श्री चन्द्रशेखर आज़ाद का यह कैसा ‘जाति प्रेम’ है, जो ‘हिन्दू अनुसूचित जाति’ के लिए पूरी तरह अनादरपूर्ण तो है ही, घोर संदेहास्पद भी है। उनके इस आचरण–व्यवहार पर सभी भारतीयों की भृकुटि तन जानी चाहिए। सबको भलीभाँति पता है, इस क़ानून से किसी की नागरिकता जाने से रही फिर भी इस देश का (कथित रूप से) ‘सेक्यूलर’ और ज़ाहिर इस्लामपरस्त मुसलमान (वर्ग विशेष) सड़कों पर क्यों उतर चुका है? कइयों ने कहा कि भारत ‘सेक्यूलर’ देश है, अतः हर किसी को (रोहिंग्या मुसलमान!) नागरिकता देनी चाहिए। कैसी मानसकिता की शिकार है इनकी बुद्धि, जो देश की सीमा में पूर्व–निर्धारित एजेंडे के साथ घुसपैठ कर आते हैं, देश के सामाजिक–सांस्कृतिक–जनांकिकीय तानेबाने को उध्वस्त कर देते हैं, सेक्यूलरिज़्म के नाम पर उनका पक्ष लेकर उन्हें नागरिकता देने का पक्ष रखने लगे हैं? ऐसी नाजायज़ मांग करने वालों के दिलोदिमाग़ में जो भेद छिपे थे, वे सहज ही खुल कर जन–जन को आगाह करने लगे हैं। इस वर्ग विशेष की ऐसी हलचलों और हरक़तों से जनमानस में एक प्रश्न उभरने लगा है कि इन्हें देश से नहीं सिर्फ़ अपनी कौम से मुहब्बत है?
इन मुस्लिम घुसपैठियों को देख कर एक प्रश्न उठता है कि इस देश को मज़हब के नाम पर किसने बाँटा था? जब यहीं, इसी धरती पर लौटकर आना था तो भारतमाता को इतने ज़ख़्म देकर यहाँ से चले जाने की ज़रूरत ही क्या थी? साथ ही यह भी कि हमें किससे ‘धर्मनिरपेक्षता का पाठ’ पढ़ना होगा? उनसे जो राष्ट्र की संकल्पना से इंकार कर रहे हैं, देश के क़ानून को ताक़ पर रखकर शरीयत और मुल्ला के क़ानून को मानते हैं तथा देवबंदी तालीम में पलकर उन्हीं के इशारों पर चलते हैं, जो सुनियोजित ढंग से हिन्दुओं को इस धरा धरती से मिटाने का सपना देखते हैं, जो अधिकाधिक बच्चे पैदाकर हिन्दुओं की संख्या को चुनौती देना चाहते हैं? हम सबने बख़ूबी देखा कि कश्मीरी हिन्दुओं के साथ क्या हुआ? कौन थे वे लोग जिन्होंने हिन्दुओं का नरसंहार (जातिसंहार) कर दिया? ऐसे कई प्रश्न कट्टरपंथी मुसलमानों की मंशा और हरक़तों से उपजते हैं।
इस देश ने गाँधी को अपना राष्ट्रपिता तो माना परन्तु उनके आदर्शों को धता बताने में कोई क़सर नहीं छोड़ी। कितना विरोधाभास है – एक हाथ में तिरंगा और दूसरे हाथ में पत्थर–औज़ार–हथियार तथा तोड़फोड़–आगजनी की हरक़तों से ‘संविधान की हिफाज़त’ कैसे हो सकती है? वह भी उस क़ानून के विरोध में जिसे इस देश की संसद ने बहुमत से पारित किया और महामहिम राष्ट्रपति ने उस पर मुहर लगा दी। नाजायज़ मांगों के लिए अनशन के संबंध में ओशो की एक कहानी स्मरणीय है – एक युवक एक सुंदर युवती पर मोहित होकर उसके घर के सामने इस मांग के साथ अनशन पर बैठ जाता है कि जब तक उस युवती से उसका विवाह नहीं हो जाता, उसका अनशन नहीं टूटेगा। अब ऐसी मांग के लिए क्या किया जा सकता था? कहा कि इसके सामने एक बूढ़ी औरत को बिठा दिया जाय। बूढ़ी औरत की ओर से मांग रखी गयी कि जब तक वह युवक उससे विवाह नहीं कर लेता, वह भी अनशन से उठेगी नहीं। बस फिर क्या था! मामले की गंभीरता भाँपते हुए, वह युवक वहाँ से भाग खड़ा हुआ। ओशो की कहानी इस नाजायज़ मांगकर्ताओं पर ख़ूब जचती है। इन सभी मांगकर्ताओं के घर में एक–एक रोहिंग्या घुसपैठिया पंजीकृत कर ठूँस दिया जाए, तब संभवतः ऊँट पहाड़ के नीचे आएगा।
आज जो लोग कब्रों और मज़ारों में मुसलमानों के हमवतन होने का दावा करने लगे हैं, वे भूल गये हैं कि इस भारत ने बाबर (बर्बर!) और उसके आततायी वंशजों को लम्बे समय तक झेला और अपने संस्कारों से संस्कारित करने का सतत प्रयास किया है। सड़कों पर उतरे हुए मुसलमानों को यह नहीं भूलना चाहिए कि उनसे मौजूदा हमवतन होने का दावा पेश करने वाले कागज़ातों की मांग नहीं की गयी है। ओ–वैसी और वैसी–सी (तुष्टीकरण करने वाले) राजनीतिक हस्तियों के राजनीतिक लाभ को समझना होगा और मुसलमान भाइयों को देश की एकता बनाये रखने के लिए शाहीन बाग़ की सी नौटंकी से बचना होगा। कभी–कभी सोचने को विवश हो जाता है मेरा भी मानस कि कैसा होगा वह मंज़र जब इस देश का हर हिन्दू जाग्रत होगा और ऐसी नाजायज़ नौटंकियों का जवाब पूरे महानाट्य के रूप में देने की ठान लेगा? कल ही मेरे एक वरिष्ठ मित्र ने कहा था कि खाकी चड्डी वालों के दंड–बैठक और लाठी पेलने की कला क्या केवल दिखावे के लिए है? यद्यपि यह भावात्मक आवेग था किन्तु सोशल मीडिया में जो देखने को मिल रहा है, उससे यह तस्वीर बनती दिखाई दे रही है कि जातियों में बंटा हुआ हिन्दू पल–प्रतिपल जाग्रत हो रहा है। जिन्हें ‘जय भीम–जय मीम’ के नारे के दम पर लोभित किया गया, उनमें से बहुतांश को ‘वोट बैंक की राजनीति’ समझ आयी है। वे ऐसी या ‘वैसी’ ‘माया’ में फँसने से बच रहे हैं। 2019 के लोकसभा चुनावों में इसका सुफल भी देखने को मिला है। श्री जोगेन्द्रनाथ मंडल के साथ क्या हुआ, उससे भी वे वाक़िफ़ हो चुके हैं। वे देख रहे हैं कि आए दिन कट्टरपंथी मुसलमानों की धर्म–पिपासा ने किस क़दर उन्हें जलाकर राख कर देने का सिलसिला रचा है। लगता है, इस्लाम के ठेकेदार बने फिरने वाले राजनेताओं को राजनीति के सुफल पाठ पढ़ाने के लिए कार्यशालाओं के आयोजन की ज़रूरत है।
कट्टर इस्लामपरस्त नेताओं की भड़काऊ बयानबाजी से समाज में अराजकता का माहौल बन रहा है। इस्लामिक उन्माद में जब यह कहा जाएगा कि“हम 25 करोड़ हैं और तुम 100 करोड़ हो, 15 मिनट के लिए पुलिस हटा दो, देख लेंगे किसमें कितना दम है।” (2013) तब सनातनी जन्म से जितना भी सेक्यूलर हो, उनकी नई पीढ़ी में ऐसे बयानों से निश्चय ही विद्वेश बढ़ता दिखाई दे रहा है। यद्यपि यह पीढ़ी राम और कृष्ण लीलाओं को सुनकर बड़ी हुई है, शिशुपाल की 100 गलतियों के पश्चात कृष्ण की ‘रिएक्शन’ वाली लीला से भी सराबोर है ही। न भूलें कि शिशुपाल शाप से मुक्त होने के लिए गाली–गलौज़ कर बैठा था। आप न तो शापित हैं, न ही आपकी कोई ‘मुक्ति–कामना–बोध’ होना चाहिए। फिर मन करता है कि पूछ ही लें कि ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ इस देश का बच्चा–बच्चा जानता है कि आपने “इस मुल्क़ पर 800 सालों तक हुक़्मरानी और जंगबाजी की है”, परन्तु आप भूल रहे हैं कि इस देश की सहिष्णुता ने ही आपको फलने–फूलने का मौका दिया है। भारतीयों का यह ‘स्वाभाविक सेक्यूलरिज़्म’ था। वास्तव में ऐसी भड़काऊ बयानबाजी करने से पहले इस्लाम की वक़ालत करने वाले फरेबी और मक्कार नेताओं को यह नहीं ही भूलना चाहिए कि केवल छत्रपति शिवाजी महाराज ने औरंगजेब की पूरी ज़िंदगी इस किले से उस किले तक दौड़ने में ख़त्म कर दी थी और ज़्यादा उंगली करने वालों की उंगलियाँ तक काट दी थीं।
रही बात कुतुब–मीनार, चार–मीनार की तो भारतीयों को इस बात का बख़ूबी इल्म है कि हमारे पूर्वजों द्वारा बने–बनाये ढाँचे गिराकर, उन पर लीपा–पोती कर इमारतें किस तरह खड़ी की गईं और कैसी–कैसी इबारतें (रोज़नामचा) लिखाई गईं। जब तब नींवों से निकलने वाली मूर्तियाँ बहुत कुछ बयाँ कर जाती हैं। मीनारों–महलों को बनाने वाले कारीगरों के कटे हाथ भी बहुत कुछ बयाँ कर जाते हैं। जान रहे हैं कि तलवार के साये में कैसा इतिहास लिखा और लिखवाया गया होगा। चंद ग़ैर–इरफ़ाना इतिहासकारों की इबारतों और दलीलों से इस देश का युवा दिग्भ्रमित होता रहा किंतु सर्व धर्म समभाव वाले उदारपंथी मुसलमानों के वक्तव्यों को देख–सुनकर वह आश्वस्त हो रहा है कि भारत के टुकड़े–टुकड़े करने वालों के मंसूबे कामयाब नहीं होंगे। उल्लेखनीय है कि भारत के सहिष्णु संस्कारों ने उदारवादी मुसलमानों में अतिवादी सांप्रदायिक लगाव (communal attachment) पनपने नहीं दिया। ‘यह वतन हमारा है’ कहने भर से वह अपना नहीं हो जाता, उसके सर्वांगीण विकास हेतु निरंतर किए जाने वाले सकारात्मक कार्य–प्रकार्य स्वयमेव ‘अपनत्व का परिचय’ दे देते हैं। कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि शाहीन बाग़ में मौजूद हर शख़्स देश विरोधी भी है और उसमें भी विशेष रूप से हिन्दू अनुसूचित जाति विरोधी है। शाहीन बाग़ के समर्थकों को इस प्रायोजित भीड़ पर ‘फख़्र’ होता होगा। मुझे ऐसे नक़लचियों पर ‘शर्म’ भी आती है और ‘घीन’ भी।
अधिकतर मुसलमान भाई वर्तमान केंद्र सरकार से घनघोर नफ़रत करते हैं। अतः आये दिन गालियों की झड़ी लगा देते हैं। और तो और बाहर से आया हुआ घुसपैठिया भी भारत सरकार के खिलाफ़ अभियान छेड़ देता है। बहुतांश मुसलमान मित्रों की शिकायत है कि जबसे मोदी सरकार बनी है, यह हिन्दू–मुस्लिम घृणा शुरू हुई है। वास्तव में मोदी मुसलमान विरोधी नहीं हैं। वे तो सबको साथ लेकर चलने की वक़ालत और उस पर सही मायने में अमल करने वाले नेता हैं। यदि वे मुसलमान विरोधी होते तो मुसलमानों के एक हाथ में कुराण और दूसरे हाथ में कम्प्यूटर की वक़ालत नहीं करते। केंद्रीय मन्त्री मुख़्तार अब्बास नक़वी ने भारतीय मुसलमानों के विकास के संबंध में ‘आपकी अदालत’ में जो कुछ कहा, उसे यहाँ दोहराने की निश्चय ही आवश्यकता नहीं है। किंतु चंद मुसलमान मित्रों की शिकायत है कि उनके कुछ हिन्दू मित्र शैशव से साथ–साथ खाये–खेले–कूदे और बड़े हुए हैं, अब वे उनसे उखड़े–उखड़े रहते हैं। मैंने कारण जानने की कोशिश की तो बताया कि उन्होंने ने सोशल मीडिया में असदुद्दीन ओवैसी को ‘शेर’ और मोदी को ‘कुत्ता’ चित्रित करता हुआ meme खुलेआम प्रचारित किया था और लिखा था ‘303 कुत्तों पर 1 शेर भारी’। 2019 की भारी जीत के बाद ही एक और मुसलमान मित्र ने सोशल मीडिया में लिखा था “मोदी रंडवा आ गया, सब अपनी गां* दे दो।” किसी को भी पहली ही नज़र में गालियाँ दिखाई देती हैं। सोशल मीडिया में आपको ‘फॉलो’ करने वालों में आपके मित्र भी होते हैं। वे आपकी इस हरक़त को देख रहे होते हैं।
आपके दिलोदिमाग़ में किसी–न–किसी (पूर्वाग्रह /दुराग्रह) कारण मोदी के लिए नफ़रत होगी परन्तु उनके दिलोदिमाग़ में हो सकता है कि वे ‘जननायक’ हो। इस बात से इंकार तो नहीं ही किया जा सकता कि इस देश की जनता ने जाति–धर्म देखे बिना भारी बहुमत के साथ उन्हें अपना सरताज बनाया है। ऐसे में मोदी को दी हुई हर गाली को वे अपने लिए भी गाली मान लेते हैं। वे भला मोदी के लिए ऐसी–वैसी बातें–गालियाँ क्यों सुनना पसन्द करेंगे? मेरे तो संज्ञान में नहीं कि मुसलमानों के विरोध में मोदी जी ने कहीं भी और कभी भी कुछ कहा भी है। किंतु आप ये जो आए दिन हिन्दू–मुस्लिम के नाम पर ज़हर उगलने वालों को ‘शेर’ मानते हैं, उसके लिए आप ही के पास कोई सर्वजनोपयोगी तर्क नहीं हैं तो आपके हिन्दू मित्रों के लिए उसका कोई औचित्य कैसे होगा? यदि ओ–वैसी को कोई बुरा भला कहता है तो आपको सुइयाँ चुभती हैं और फिर आप हिन्दुत्व जाग गया, कट्टर हो गया का आर्तनाद करने लग जाते हैं। आपके इस दो–गले आचरण–व्यवहार से निश्चय ही आपके हिन्दू मित्रों को दिक्कत होती है। न जाने क्यों हिन्दुओं को लगता है कि ‘मोदी है तो मुमकीन है’ जबकि मोदी जी ने पहले सबका साथ, सबका विकास (2014) और हाल में सबका विश्वास (2019) वाली पटरी प्रतिष्ठापित कर दी है। वे पूरे भारत के प्रधानमन्त्री हैं। मोदी जी के किसी भाषण का एक वीडियो बहुत वायरल हुआ था, जिसमें भाषण के दौरान क़रीब की मस्ज़िद में नमाज़ अदा हो रही है और वे नमाज़ होने तक अपना भाषण रोक देते हैं। इस वाक़ये से भी संघ के संस्कारों में पले–बढ़े मोदी जी का मुस्लिम समाज के प्रति आदर को जाना–समझा जा सकता है। मुसलमान भाइयों को किसी भी बहकावे में आकर इस पक्ष को नज़रंदाज़ नहीं करना चाहिए।
फिर शाहीन बाग़ के प्रायोजित अनशन पर लौटते हुए इंदिरा गांधी की तानाशाही का एक उदाहरण स्मरण आता है। 1966 की बात है, जब साधू–संतों ने गौ–हत्या पर पाबंदी लगाने के लिए संविधान में संशोधन की मांग की थी, जिसे इंदिरा जी ने ठुकरा दिया था। तब साधू–संतों ने ‘गौ–हत्या निषेध आंदोलन’ खड़ा कर दिया था और आमरण अनशन पर बैठ गये थे। जो इस घटना को भूल गये हैं, उन्हें स्मरण करा दूँ कि उन साधू–संतों पर पुलिस से गोलियाँ चलवाई गई थीं और कइयों को जेल में ठूँस दिया गया था। उस हत्याकांड में कई साधू–संत आहत हुए (मारे गए) थे। तत्कालीन गृहमन्त्री गुलजारी लाल नंदा को इस हत्याकांड के बाद अपना पद त्यागना पड़ा था चूँकि वे अनशन करने वाले साधू–संतों से सहानुभूति रखते थे। उन्होंने उस हत्याकांड के लिए सरकार के साथ–साथ स्वयं को ज़िम्मेदार बताया था। अपने आपको सेक्यूलर तथा बुद्धिजीवी बताने वाले लेखक–पत्रकार एवं समाजवाद का सपना परोसने वाली पार्टियों ने इंदिरा के खिलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत नहीं की थी बल्कि उनका समर्थन ही किया था। इन दिनों सारे स्वनामधर्मा प्रकांड आलोचक, विचारक तथा कवि–लेखक गण, पत्रकार मोदी शासित भाजपा सरकार को तानाशाह और फासिस्ट कहते नहीं थकते जबकि अब तक मोदी–शाह ने न तो किसी को जेल भेजा है, न गोलियाँ ही चलवाई हैं। तब फिर मन करता है कि पूछ ही लूँ – पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?
शमीम हनफ़ी का एक शेर विचारणीय है – “मैंने चाहा था कि लफ़्ज़ों में छुपा लूँ ख़ुद को /ख़ामुशी लफ़्ज़ की दीवार गिरा देती है।” हमें उपेक्षित राजनीतिज्ञों द्वारा जनित–प्रेरित–प्रायोजित एक समुदाय के ‘वर्ग विशेष’ की हलचलों और हरक़तों को भी समझना होगा। लिहाज़ा ‘ख़ामुशी’ पर भी तवज्जोह मरकूज़ करने की ज़रूरत है। दोनों की भयावहता ऐसी है कि वह सहिष्णुता की दीवारें गिराने में कोई क़सर नहीं छोड़ती है। ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम’ सबके लिए बोध भी है और मुक्ति भी! अतः इस मुक्ति–बोध से शाहीन बाग़ वाले भी सराबोर हो जाएँ ताकि देश में अमन–चैन फिर से स्थापित हो सके। बरसाती मेंढ़कों की तरह दूरदर्शन चैनलों पर टर्राने वाले स्वनामधर्मा प्रकांड आलोचक, विचारक तथा पत्रकारों से हमें भी मुक्ति मिले। आशा है सबमें ‘देश की एकता’ का सही अर्थों में बोध जाग्रत होगा।
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