‘नैरेटिव’ गढ़ता नया दौर और वामपंथ समर्थकों की मानसिकता का सच
(जेएनयू में हिंसा के हवाले से हिंसात्मक होते ‘दिग्भ्रमित’ युवाओं पर विशेष)
भारत का एकमात्र ‘सर्वोच्च’ विश्वविद्यालय (जैसा कि सर्वत्र प्रचारित है!) – ‘जेएनयू’ में हुई हिंसा पर हर कोई अपना ‘अनुकूल’ (favourable) पक्ष रख रहा है। मैं नहीं जानता कि वहाँ ‘वास्तव’ में क्या और कैसे हुआ! ना ही उड़–उड़ कर आने वाले समाचारों को देख–सुन कर कोई पक्ष–विपक्ष रखने की इच्छा ही है। क्योंकि सच्चाई यह है कि घटनात्मक वास्तविकता ना आप जानते हैं ना मैं ही! वह जाँच का मामला है। लेखक–विचारक–आलोचक–पत्रकार बिना जाने–सोचे–समझे अपने संकुचित दायरे का उल्लंघन करते हुए सोशल मीड़िया में हवा बनाने (बिगाड़ने?) का उपक्रम कर रहे हैं। अमूमन यह काम हम बड़ी रुचि से करते (रहे) हैं। उस घटनात्मक सत्य से तो केवल वे उत्पाती–उपद्रवी (असामाजिक तत्व) ही परिचित होंगे अथवा उत्पात–उपद्रव का सृजन करने वाले (षड़यंत्रकारी) ही। मैं यहाँ अपने अनुभवों (आँखन देखी) के आधार पर वामपंथी विचारधारा समर्थकों (विद्यार्थी–शिक्षक) की ‘विकलांग’ हो चुकी ‘मानसिकता’ और ‘विकराल’ हो चुकी ‘हरक़तों’ पर प्रकाश डालने का प्रयास मात्र कर रहा हूँ। ऐसे दिग्भ्रमित कर देने वाले वातावारण में अब बिन बोले चुप रहना गँवारा नहीं लगता। स्वेच्छा से हिंदी साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते स्नातक कक्षाओं से ही पाठ्यक्रमों में ‘कम्युनिज़्म’ में विश्वास रखने वाले रचनाकार–विचारकों को भर–भर कर और मन–भर कर पढ़ा है। इस लिहाज़ से कम–से–कम मेरी स्थिति एक तरह से ‘रहा उनके बीच मैं’ की सी ही रही है।
प्रसंगोचित है, मुक्तिबोध अपने समय में लिख रहे थे – “सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्/ चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं/ उनके ख़याल से यह सब गप है/ मात्र किंवदन्ती। / रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल–बद्ध ये सब लोग/ नपुंसक भोग–शिरा–जालों में उलझे।” (अंधेरे में)
आज का समय और मंज़र बिरला (stray) ही है। आज हर (स्वघोषित) साहित्यिक, कवि, चिंतक, आलोचक, प्रोफेसर (जो कि स्वनामधर्मा आलोचक ‘बन’ चुके हैं और जो ‘बनने’ की प्रक्रिया में हैं) को अपने अनुकूल बोलने में महारत हासिल है। ऐसे अधिकाधिक बोले जाने वाले समय में हर पल नए–नए नैरेटिव खड़े किये जा रहे हैं। सत्य तक पहुँचने से पहले ही सोशल मीडिया, समाचार पत्र और दूरदर्शन चैनलों पर ‘आभासी सत्य’ सनसनीखेज़ अंदाज़ में सबको परोसा जा रहा है। एक खास कवायद है ‘ओपेनियन’ बनाने और अपने हित में ‘जनमत’ जुटाने की! इस जनमत संचय और वृद्धि के लिए किसी भी हद तक जाने की एक अज़ीबोग़रीब होड़ मची हुई है। ऐसे में ठेठ (प्रगाढ़) सत्य को प्रस्तुत करने के लिए ‘चुप’ नहीं ही रहना चाहिए। पुनः स्मरण कराऊँ कि बिते दिन उपरलिखित ‘सर्वोच्च विश्वविद्यालय’ में क्या और कैसे हुआ के सम्बन्ध में यह लेखा–जोखा क़तई नहीं है। ना ही किसी पक्ष विशेष को ‘जस्टिफाई’ करने का प्रयास है। कुछ अनुभव (जिया–भोगा) हैं, जो सबका ज्ञानवर्धन कर सकेंगे। जिससे भारत के स्वर्णिम और अखण्ड भविष्य को बनाने–संवारने में सजग–सक्रिय वैचारिक पहल की जा सकेगी।
ध्यातव्य है – जब से केन्द्र में नरेंद्र मोदी की भाजपा सरकार बनी है, वामपंथी समर्थकों में मैंने अपार बेचैनी और उद्वेग देखा है। (इसमें आप कांग्रेसियों को बिना भूले जोड़ सकते हैं)। दि. 25 सितम्बर, 2014 को प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के जन्म दिन विशेष पर उनके ‘मानवीय एकता मंत्र’ और ‘समाज सेवा’ के प्रति योगदान को याद किया था। बाद में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जयंती के आयोजन की शुरुआत हुई तो पहली बार वामपंथी युवा समर्थकों ने विश्वविद्यालय परिसर(रों) में हंगामा शुरू किया कि हम ऐसा होने ही नहीं देंगे, फिर हो–हल्ला और हुडदंग मचाते हुए मार्च निकाला, नरेंद्र मोदी और संघ को मन–भर गाली दी। मामला यही नहीं थमा विश्वविद्यालय परिसर में ‘आज़ादी–आज़ादी’ के ऐसे और इतने भारी भरकम नारे गूँजे कि संभवतः स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी नहीं गूँजे होंगे। एक क्षण को लगा कि हम अचानक 1857–1947 के दौर में पहुँच गये हैं। वह दिन अविस्मरणीय है। कल्पनातीत तो था ही! मेरे मानस पर वह दिन इतना प्रभाव कर गया कि मैं पूरा दिन सोचता रहा कि ऐसा क्यों है कि किसी अन्य विचारक (वामेतर और भारतीय) की वैचारिकी को लेकर इतना भारी–भरकम निषेध है? देश के युवाओं की ऐसी मानसिकता कौन और क्योंकर बना रहा है कि वे सर्वसमावेशी होने की बजाय एकपक्षीय और घातक रूप में आक्रामक होते जा रहे हैं?
इस दिशा में चर्चा शुरू हुई तो कई सुशिक्षित साथी मित्रों ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय की वैचारिकी की अस्वीकृति का कोई समाधान दिये बग़ैर ही संघ और संघियों को गाली देना शुरू किया कि ये संघी ऐसे ही हैं, देश को ख़त्म कर देना चाहते हैं, अभी तो आये हैं आगे–आगे देखो क्या–क्या और कैसे–कैसे करते हैं, ये संघी भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं, मुसलमानों को भगाना चाहते हैं, अनुसूचित जातियों को पुनः पिछड़ेपन के दलदल में धकेलना चाहते हैं, ये हत्यारे गोडसे और सावरकर की नाजायज़ औलादें हैं, इनकी ऐसी, इनकी वैसी, ना जाने कैसी–कैसी, किसकी–किसकी और क्या–क्या इत्यादि–इत्यादि गालियाँ! मैं हतप्रभ था। इतनी और वैसी–वैसी सी गालियाँ मैंने पहले एकसाथ थोक में (कभी और कहीं) नहीं सुनी थीं। इन युवाओं के मन में अन्य विचार–चिंतन को लेकर ऐसा गुबार है कि वह किसी भी पल फट कर हवा हो जाता है। उस हवा की चपेट में जो भी आ जाता है, उसमें ‘विचार’ इस कदर धुल–धुसरित हो जाते हैं कि वह बिना कुछ सोचे उसी में उड़ने और विचरण करने लग जाता है। उस दिन हुई उस घटना तथा उस तरह की अन्यान्य घटनाओं से प्रभावित होकर ही मैंने युवाओं के नाम एक जागरण संदेश में ‘भारतीय ज्ञान–परम्परा’ की ओर लौटने का आग्रह किया था जो कि ऐसे दिग्भ्रमित वातावरण में सुविचारित और श्रेयस्कर है। (वह लेख यहाँ पढ़ा जा सकता है – https://sablog.in/indian–knowledge–tradition–public–interest–achievement–of–national–interest–nov–2019/
बहरहाल, मुझे पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विरोध के सम्बन्ध में कोई युक्तियुक्त उत्तर अब तक नहीं मिल पाया है। कालांतर में नानाजी देशमुख का भी (सौम्य और भीतर ही भीतर) विरोध हुआ। मैंने कुछ विद्यार्थियों से कहा कि आप आंदोलन ही करना चाहते हैं तो कोई वैचारिक मंच बनाएँ और जो विचार–सूत्र पंडित जी तथा अन्य विचारकों (वामेतर और भारतीय) ने दिए हैं, उन पर विचार एवं चिंतन करें। सार्थक विचार हो तो उसके सार्थक पक्ष और यदि निरर्थक हो तो उस वैचारिकी के निषेधों के सार्थक कारणों को उजागर करते हुए चर्चा–परिचर्चा को आगे बढ़ाकर विचार एवं चिंतन की सुदृढ़ परंपरा विकसित करें। इसी प्रक्रिया से गुज़र कर एक सुचिंतित समाज का निर्माण हो सकेगा। हो–हल्ला, हुल्लड़, हुडदंग, हिंसा अशिक्षित एवं अल्पशिक्षितों का (कु)मार्ग है। आख़िरकार, क्या यह सच नहीं कि हमारा भारत शास्त्रार्थ की सुदृढ़ परंपरा के लिए जाना जाता रहा है। यहाँ जननायक जनक शास्त्रार्थ में न केवल उपस्थित होते थे बल्कि चर्चा में सक्रिय हिस्सा लेते थे। बहरहाल, मेरी बातें रास नहीं आयीं तो ब्लागों में, सोशल मीडिया, वाट्सऐप समूह तथा उनके विचारानुकूल समाचार पत्र, वेब पोर्टलों और छोटे–से–छोटे विरोध–प्रदर्शन (protest) में मेरे ही विरुद्ध अघोषित अभियान छेड़ दिया – यह व्यक्ति ‘संघी’ है और देश तथा विश्वविद्यालय का भगवाकरण करने की मंशा रखता है इत्यादि। धीरे–धीरे मामला इस क़दर बदला कि जो–जो इन ‘विशिष्ट पक्षधर’ विद्यार्थियों के अनुशासनहीनता पर शिकंजा कसने की बात करता, वह उनके लिए ‘संघी’ और ‘सैफरॉनाइज़ेशन सपोर्टर’, ‘मोदी भक्त’ अथवा ‘संघी सरकार का चमचा’ ही बनता गया। आप किसी भी विचारधारा में विश्वास करते हुए निश्चय ही कहेंगे कि यह कैसी मानसिकता है, जो बौनी होने के बावजूद ‘प्रगतिशीलता’ के आवरण में लदी हुई है । मज़ेदार बात यह है कि चूँकि केन्द्र में मोदी की भाजपा सरकार है, वह प्रत्येक व्यक्ति जो प्रशासनिक दायित्वों के तहत अनुशासन और व्यवस्था बनाये रखने की बात करता है और अनुशासन बनाये रखने के लिए प्रसंगोचित आनुषंगिक कार्रवाई करता है, उसे भाजपाई–संघी करार दिये जाने का प्रचलन ही शुरू हो गया है। विश्वविद्यालयों में हो रहे हुल्लड़–हिंसा को इसी उद्वेग और बेचैनी का परिणाम कहा जा सकता है।
मैंने देखा और अनुभव किया कि संघ की सुविचारित वैचारिकी जाने बग़ैर संघ को गाली देने का एक प्रचलन हो गया है और संघ श्रृंखलाबद्ध रूप में अनेकानेक समूहों में निरंतर दुष्प्रचारित होता रहा/ रहता है। विद्यार्थियों में यह मनोग्रंथि विकसित कर दी गयी है कि संघ अर्थात् ‘नकारात्मक वैचारिकी का कारखाना’, जो हिंसा और द्वेष ‘मैन्युफैक्चर’ करता है, मुसलमानों से नफ़रत करता है और औरों को उनसे नफ़रत करना सिखाता है, अनुसूचित जाति विरोधी है, हिंदू राष्ट्र का समर्थक है, जिसमें किसी और को रहने की अनुमति नहीं होगी इत्यादि। और कुछ नहीं तो नाथुराम गोडसे उनके आक्रमण का एकमात्र हथियार बना हुआ है ही। बात–बात पर अत्यंत आवेश और उद्वेग में चिल्लाते हैं (मानो मिर्गी का दौरा पड़ गया हो) – ‘गोडसे की नाजायज़ औलादें’! कल ही सोशल मीडिया में किसी आत्मीय का संस्मरण पढ़ रहा था। उन्होंने अत्यंत व्यंग्यात्मक अंदाज़ में लिखा था – ‘तारीफ़ बिना पढ़े बहुत अच्छी होती है।’ यह भी सच है ना कि बिना जाने–पढ़े–सोचे गालियाँ देना और भी आसान होता है। ख़ैर, इन युवाओं और विद्यार्थियों के दिलो–दिमाग़ में यह ‘फिक्स’ (सेट) कर दिया गया है कि (कुल मिलाकर) संघ माने भारत की ‘सेक्युलर आत्मा’ का धुर विरोधी कट्टर संगठन है! इसलिए संघ तथा संघियों से न केवल नफ़रत सिखायी जाती है बल्कि सोशल मीडिया में (कथित रूप से) बड़े–बड़े लेखक संघियों और मोदी समर्थकों को खोज–खोजकर ‘ब्लॉक’ करने के अभियान में जुटे हुए हैं और ऐसा करने के लिए वे सबसे खुलेआम अपील भी करते हैं। यह है इन ‘बड़े–बड़े’ लेखक–आलोचक–पत्रकारों की प्रगल्भता! बहरहाल, जब संघी तथा तद्नुकूल वामेतर वैचारिक पक्ष और पक्षकारों को लेकर ऐसे तर्क–कुतर्क होने लगे तो मैंने कहा कि यह मामला उचित नहीं है और अकादमिक जगत में इस ‘वैचारिक कठमुल्लापन’ के लिए कोई स्थान नहीं ही हो सकता। आपको संघ तथा भारतीय विचारकों को भी पढ़ना–सुनना और समझना चाहिए।
जिन दिनों मैं हैदराबाद विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहा था, मेरे शोध–निर्देशक गुरुवर स्व. सुवास कुमार जी ने पूर्वोत्तर भारत तथा कश्मीर के मद्देनज़र कहा था – “तुम्हारे संघ को (?) बजाय इधर समय ज़ाया किये ऐसी जगहों में काम करना चाहिए।” गुरुवर की ‘वैचारिक प्रतिबद्धता’ के बावजूद उनसे मुझे ‘वैचारिक संतुलन’ मिल पाया था। गुरुजी जानते थे कि मेरा शैशव राम मंदिर से संलग्न हनुमान मंदिर में पूरी तरह ‘हिंदुत्वमयी’ वातावरण में बीता। यही वह दौर था जब रामायण और महाभारत हमारे आकर्षण के केन्द्र बने। हमारे लिए मानो श्री राम और श्री कृष्ण साक्षात् अवतरित हुए थे। किन्तु श्री राम और श्री कृष्ण से बहुत बाद में बहुत–कुछ सीखने को मिला। शैशव पहले खेलकूद और बाद में जद्दोजहद में गुज़रा। उन दिनों जीवन में ‘चिंतन’ नहीं ‘चिंताएँ’ हावी रहीं। किंतु बाद में उन्हीं के जीवन–मर्म से वैचारिक चिंतन को बृहत् आकार मिला। हिंदुत्व के वातावरण में हुई परवरिश ने हमें ‘सच्चा मानव’ (बेहतर आदमी) बनाने का जो उपक्रम किया, उसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि हमारे चिंतन का दायरा संकुचित नहीं हुआ बल्कि उत्तरोत्तर बृहत् ही होता गया। मेरे विद्यार्थी भलीभाँति जानते हैं कि मैं मार्क्स–एंगेल्स–तोलस्ताय–फूको–बउआर को भी पढ़ता और पढ़ा(ता) रहा हूँ। ‘विश्व साहित्य’ शीर्षक पर्चे में लगभग सभी रचनाकार ‘उसी’ धारा के अनुसारक, संवाहक और उसी वैचारिकी को पल्लवित करने वाले हैं। चूँकि ‘विश्व साहित्य’ मेरे द्वारा प्रस्तावित पर्चा था तो आरंभ से ही वह पर्चा पढ़ाने का सौभाग्य मुझे ही प्राप्त हुआ। मैंने अभ्यास–क्रम में कभी किसी भी वैचारिकी का परहेज़ नहीं किया बल्कि जो कुछ अनजान रहा, उसे जानने की प्रक्रिया निरंतर अपने अभ्यास–क्रम का हिस्सा रही (है)। मेरे विचारों की खुराक़ में श्री राम और श्री कृष्ण का जीवन–मर्म तो रहा ही किन्तु हिंदी में पढ़े–पढ़ाए गए रचनाकारों के रचना–सूत्र भी रहे हैं। ऊपर कह ही दिया है कि पाठ्यक्रम में समाहित अधिकतर रचनाकार कम्युनिज़्म समर्थक ही रहे हैं। हिंदुत्व की परवरिश के साथ–साथ एक समय ऐसा भी रहा, जब हम भी (तथाकथित और स्वनामधर्मा) कामरेड़ों के साथ रहे। जो उनके साथ देखा–जिया–भोगा उसकी किसी अन्य प्रसंग में सविस्तार विवेचना होगी।
हमें यह मानना ही होगा कि हमारे संस्कारों पर ‘सानिध्य’ और ‘परिवेश’ का अतीव प्रभाव होता है। किन्तु जो विचार–चिंतन करने लगता है, वह निस्सार हो चुकी विचारधारा की सीमाओं से भी परिचित होता है और उसी क्रम में अपने आपको नए सिरे से संस्कारित भी करता है। युवाओं को आज उस संस्कारोचित मार्ग की आवश्यकता है न कि ‘बदतर आदमी’ बनाने वाली सारहीन वैचारिकी की! पढ़ें और जाने कि क्योंकर वह ‘निस्सार’ है। किसी बात के होते हुए भी मुक्तिबोध, निराला, नागार्जुन के ‘लेखन–कौशल’ से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। किसी भी विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य का विद्यार्थी अपने पाठ्यक्रम में साहित्य की प्रत्येक विधा में कम्युनिज़्म ही पढ़ता है क्योंकि उसे ‘वही’ ‘सबकुछ’ पढ़ाया जाता (रहा) है। हाँ, यह बात और है कि गुरुवर सुवास जी की तरह संतुलित विचार–दृष्टि वाले अध्यापक हर जगह होंगे ही, ज़रूरी नहीं! किसी बात के होते हुए भी गुरुवर सुवास जी की अन्य विचारधारा में जो आस्था रही, वह ‘मुखर’ न होते हुए भी ‘उजागर’ (जाग्रत) अवश्य ही रही है। मेरा सौभाग्य रहा कि मैं उनके उस ‘जाग्रत’ पक्ष को जान–समझ पाया।
बहरहाल, विषयांतर से बचते हुए यह बता दूँ कि कम्युनिज़्म समर्थक विद्यार्थियों को हर बात का विचित्र और राजनीतिक लाभानुकूल पक्ष ‘नैरेट’ करके बताया जाता है और जैसा कि देखा जा सकता है, उन–उन विश्वविद्यालयों में मोदी–भाजपा–संघ विरोध की आवाज़ें अधिक उठी हैं, जहाँ समाजवादी, धर्म निरपेक्षता की नित दिन ‘मुनादी’ होती (रही) है और जगजाहिर है कि वहाँ अन्य वैचारिकी वालों के साथ प्रायः अन्याय ही होता रहा है। वहाँ एक धर्म और एक विचारधारा विशेष का केवल दबदबा ही नहीं (रहा) है बल्कि वहाँ उनका ‘लोहा’ बोलता (रहा) है। अपने अनुभवों के आधार पर कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि ‘निरपेक्षता की मुनादी’ करने वाले ‘कठमुल्ला’ और घनघोर ‘कट्टर’ बन गए हैं और जिन पर ‘हिंदुत्व’ और घनघोर रूप में ‘कट्टरता’ का आरोप लगता रहा, वे ‘सामंजस्य’ और ‘सामाजिक समरसता’ का प्रचार–प्रसार कर भारत को और टुकड़े–टुकड़े होने से बचाने में जुटे हुये हैं। यह आज के समय का पूर्ण सत्य है।
एक और बात यह भी कि वाम समर्थक इतने ‘क्रिएटिव’ हैं कि ‘मिम्स’ (memes) के माध्यम से सबको न केवल आकर्षित करने की जुगत में जुटे–डटे रहते हैं बल्कि विरोधियों को उकसाने और भड़काने का सतत उद्यम भी करते हैं और प्रकारांतर से हिंसा का षड़यंत्र भी रचते हैं। इन दिनों हो रहे (तथाकथित) आंदोलनों को हवा देने में जितनी भूमिका तथाकथित बुद्धिजीवी और पत्रकारों की है, उसी या उससे अधिक अनुपात में असफल राजनीतिक पार्टियों के नेताओं की भी बड़ी भारी भूमिका है। इन भूमिकाओं को सरकार विरोधी नेताओं का विश्वविद्यालय परिसरों में जाकर युवाओं के साथ मंत्रणा करने, मिलने से लेकर उनके भाषणों के ‘कंटेंट’ तक को देखा–जाँचा–परखा जा सकता है। पिछले सप्ताह की ही तो बात है, देश की एक प्रसिद्ध ‘शैक्षिक संस्था’ में जनता दरबार में उपेक्षित नेताजी विद्यार्थियों को ‘नागरिकता संशोधन कानून’ पर जाग्रत करने के लिए पहुँचे तो अपने 40–50 बाहरी समर्थकों के साथ संस्था परिसर पहुँचे। संस्था प्रशासन ने समर्थकों को परिसर में प्रवेश की अनुमति नहीं दी। जिसके कि कारण अनेक और जायज़ थे। परंतु नेताजी अड़ गये कि यह तानाशाही है और संस्था के प्रवेश द्वार पर तब तक जमे (डटे) रहे, जब तक उनके सहयोगी–समर्थकों द्वारा मीडिया को इकट्ठा नहीं कर लिया गया। अगले दिन सुबह कई समाचार पत्रों (वाम समर्थक) ने उस समाचार को वरियता देते हुए प्रकाशित किया और कमोबेश ‘मज़मून’ (subject matter) यही रहा कि फलाँ–फलाँ नेता जी को मोदी सरकार और संघ के इशारे पर संस्था में प्रवेश करने से रोका गया। और अमूमन जैसा होता है, हुआ भी, मीडिया और सोशल मीडिया में नेता जी पूरे दिन छाए रहे। अब जो जनता दरबार में लगातार उपेक्षित रहा, उसे पूरे दिन और सप्ताह भर मीडिया ‘कवर’ करती रही। ऐसे राजनीतिक उपेक्षितों के लिए तो ऐसे अवसर चाँदी काटने के माध्यम बन जाते हैं। वह डटे ही नहीं रहेंगे बल्कि पूरी तरह प्रयास करेंगे की कुछ–न–कुछ कर वह कुछ चाँदी काट ही ले।
मैंने देखा–पढ़ा कि वर्तमान सरकार को कई लेखों में ‘अराजक’ और ‘फासिस्ट’ कहा गया है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस सरकार को जितनी गालियाँ दी (गयीं) जा रही हैं, संभवतः भारत के इतिहास में कदापि किसी भी सरकार या प्रधानमन्त्री को नहीं दी गयी होंगी। चुन–चुन कर ऐसी–ऐसी गालियाँ दी जाती हैं कि गालियों का एक समृद्ध कोश तैयार हो सकेगा (इनकी गालियों के समाजशास्त्र पर कभी फुर्सत में लिखने बैठे तो सारा मामला समझ आएगा) ; इस (कथित) अराजक, तानाशाह और फासिस्ट सरकार के खिलाफ़ खूब और भर–भर कर लिखा जाता है ; लगभग प्रत्येक लोकतांत्रिक–संवैधानिक तौर–तरीक़ों से लिये गये निर्णयों का घनघोर विरोध किया जाता है ; खुलेआम विश्वविद्यालय परिसर ही क्यों बल्कि शहर और नगरों की डगरों पर इनके पुतले ही नहीं फूँके जाते बल्कि सरकारी संपत्ति को स्वाहा कर दिया जाता है ; पुलिस और प्रशासकों पर जूते–चप्पल–पत्थर बरसाये जाते हैं और तिस पर कहा जाता है कि मोदी की भाजपा सरकार अराजक, फासिस्ट, तानाशाह इत्यादि–इत्यादि है। कभी–कभी लगता है कि धन्य है ऐसी सरकार जो इस क़दर अराजक और तानाशाह है कि उपद्रवियों पर भी द्रवित होकर केवल पानी की बौछार और आँसू गैस का उपयोग कर रही है। इतने ठंडे पड़े हुए हैं इस सरकार के शस्त्रागार कि बंदूकें जंग खा रही हैं कि चलाई ही नहीं जा सकती!
सच कहूँ तो मैंने अब तक केवल वामपंथी अराजकता और ढीठाई–हठकारिता, आतंक देखा है। ऐसे कुपढ़ और अधपढ़े कम्युनिस्टों के लिए धर्मांध ओ–वैसी सेक्यूलर है, इस्लाम धर्माधारित बना पाकिस्तान सेक्यूलर है, असम के सामाजिक–सांस्कृतिक धरोहर को तहस–नहस करने वाले दबंग–गुंड़ई रोहिंग्या मुसलमान सेक्यूलर हैं ; बस भाजपाई और संघी कट्टर हैं। अब तो इनके (तथाकथित) सेक्यूलरिज़्म में शिवसेना भी सेक्यूलर हो गयी है। जब तक भाजपा के साथ रही, वह भी इनकी दृष्टि में ‘कट्टर’ और ‘फासिस्ट’ ही रही। धन्य है इनका सेक्यूलरिज़्म जो पूरी तरह अराजक है, असहिष्णु और हिंसक है तथा देश में गृहयुद्ध का माहौल बना कर देश को घनघोर अंधकार में धकेलने के कगार पर है।
बहरहाल, रह–रहकर यही विचार बारंबार मन को आंदोलित कर रहा है कि मोदी–भाजपा और संघ के (अंध)विरोध में कहीं हमें सुनियोजित रूप में ‘गृहयुद्ध’ (Civil War) की ओर तो नहीं धकेला जा रहा है? क्या मोदी–भाजपा हटाने के लिए मारकाट, हिंसा ही एकमात्र माध्यम शेष रह गया है? क्या ऐसे हालातों में देश की व्यवस्था व्यवस्थित रह पायेगी? क्या हम हमारे परिजन एवं परिवारजनों के साथ ऐसे हालातों में सुरक्षित रह पायेंगे? कभी जेएनयू, कभी एमयू तो कभी जेएमयू और फिर अब पुनः जेएनयू, कौन हैं ये ‘शातिर’ जो शातिराना ढंग से युवाओं को हिंसात्मक वैचारिकी का डोस पिला रहे हैं और द्वेष की मानसिकता से सराबोर कर उन्हें घनघोर अंधकार में धकेल रहे हैं?
मेरे विचार में किसी को भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकतांत्रिक बाध्यताओं का अनुपालन करते हुए ही विरोध करने का अधिकार है परंतु बहकने, भड़कने, भड़काने और विचारधारा के नाम पर समाज में एक–दूसरे को खून का प्यासा बनाने का अधिकार निश्चय ही हमारा लोकतंत्र–संविधान नहीं देता है। ऐसी मानसिकता वाले लोग और ऐसी रक्तपिपासु विचारधारा का पूरी तरह निषेध होना चाहिए। आज हमें यह जानने–समझने की (अनिवार्यतः) आवश्यकता है कि ‘मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम’ की सी स्थिति उत्पन्न न होने पाये। वह विचारधारा ही किस काम की जो ‘निस्सार’ हो चुकी है और वे विचारक–आलोचक–पत्रकार ही किस काम के जो युवाओं को सही दिशा देने की बजाय उन्हें हिंसात्मक मार्ग पर धकेले देते हैं।
‘हम देखेंगे’ नहीं, हम देख चुके हैं और देख ही रहे हैं कि वामपंथ और सेक्यूलरिज़्म के नाम पर युवाओं को एक अलहदा क़िस्म की ‘गोरिल्ला युद्ध नीति’, ‘पत्थरबाजी’ और ‘आगजनी’ का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। निजी अनुभव हैं कि वामपंथ के समर्थक युवा हर बात पर हल्ला–गुल्ला ही नहीं करते बल्कि पूरी तत्परता के साथ भीषण हमला करते हैं और बड़ी चतुराई से ‘विक्टिम’ कार्ड लेकर मीडिया में अपनी मनगढ़ंत कहानी रच देते हैं। ‘वामपंथ शासित अकादमिक विश्व’ और ‘नैरेटिव’ गढ़ता मीडिया एवं पत्र–पत्रिका समूहों के अंतर्संबंध पर बहुत कुछ बोलने की आवश्यकता नहीं है। आज ‘रंगा–बिल्ला’ की जोड़ी के राज़ से देश–दुनिया वाकिफ़ हो ही चुकी है। मैं तो निजी अनुभवों के हवाले से इस ‘नेक्सस’ (मिलीभगत) की केवल ‘आँखन देखी’ सच्चाई बताने की हिम्मत कर रहा हूँ। मुक्तिबोध की ही कविता की चंद पंक्तियाँ स्मरणीय हैं। जब विचार आया कि इस सच का “क्या करूँ, किससे कहूँ, कहाँ जाऊँ, दिल्ली या…” अंततः यह सच ‘सबलोग’ के माध्यम से आप तक पहुँच पाया है। सुचिंतित पाठकों से आग्रह है कि इस विचार को किसी भी माध्यम से सब लोगों तक पहुँचायें ताकि “मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम” जैसी स्थिति ना उत्पन्न हो और जानना–समझना होगा कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाने के बाद “उठा भी तो झाड़ आया नुक्कड़ों पर स्पीच मैं” से कोई लाभ नहीं हो पाएगा।
यदि बुद्धिजीवियों में थोड़ी–सी भी ‘बुद्धि’ ‘जीवित’ (शेष!) हो तो इस बात का सारा आशय अवश्य ही समझ आयेगा। तलवार के साये में अथवा अप्राप्य की प्राप्ति–लालसा से लिखे गये इतिहास (और वर्तमान) का अनुसरण कर हम भारत की आत्मा को जीवित नहीं रख पायेंगे। हमें नहीं भूलना चाहिए कि चरित्र से दीन–हीन व्यक्ति के ग्रंथों में रची–रचाई अच्छी–अच्छी बातों से ज़्यादा ‘चरित्र’ (character) महत्वपूर्ण होता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हम भारतीयों का ‘दिशा–ज्ञान’ बड़ा सजग रहा है। हम घर भी बनाते हैं तो घर के किस कोने में और किस दिशा में क्या होगा (होना चाहिए) इसका पूरा ज्ञान एकत्रित कर लेते हैं और तब जाकर घर की नींव रखते हैं। यहाँ तक कि सोते समय सिर किस दिशा में होना चाहिए और पैर किस ओर से लेकर शौचालय (बैठने) की दिशा तक को ध्यान में रखते हैं। हमें दिग्भ्रमित करने वाले ‘नैरेटिव’ से बचना होगा और देश में आये दिन हो रहे राजनीति प्रेरित (जनित?) उपद्रवों का सुविचारित खण्डन करना होगा।
याद है न सुदामा पाण्डे (धूमिल) ने क्या कहा था – “न कोई प्रजा है/ न कोई तंत्र है/ यह आदमी के खिलाफ़/ आदमी का खुला सा/ षड़यन्त्र है।” यह ‘तंत्र’ नए–नए ‘नैरेटिव’ के चलते अब तंत्र–साधना (black magic) में ही जीवित रह गया है। वामपंथ ने इस ‘तंत्र’ को अपने हर ‘वार’ के लिए अपना लिया है और ‘वॉर’ के लिए हर बार कोई वार करने से नहीं चूक रहा है। अब यहाँ सबकुछ ‘जादुई’ है – ‘यथार्थ’ से लेकर ‘विचार’ तक! एक (अघोषित) लेखक घनश्याम जी की एक कविता है ‘मुश्किल से नामुमकिन’ – “अब जब कि/ साहस का समझ से –/ या फिर/ बुद्धि का बल से संयोग/ अलौकिक और अचिंतनीय/ अटकलें और अपवाद में/ तब्दील हो चुका है/ (सिर को पैर और/ पाँवों को आँख नहीं/ राहू–केतू की तरह)/ ऐसे में एक सही कविता/ न लिखी जा सकती है/ न पढ़ी/ और समझना तो/ लगभग असंभव है/ चूँकि एक सही आदमी की तलाश/ दिन–ब–दिन/ मुश्किल से नामुमकिन/ हुई जा रही है…।” (हिंदी : विविध आयाम, तक्षशिला प्रकाशन (2012), पृ. 68)
हमें मुश्किल से नामुमिकन होती जा रही ‘सही आदमी की तलाश’ को मुमकिन बनाने के लिए हर संभव प्रयास करना होगा और भारत को पुनः ‘बेहतर आदमी’ का देश बनाने का सतत उपक्रम करना होगा। जो जेनयू, एएमयू, जेएमयू में हो रहा है, उससे देश ‘बदतर आदमी’ का देश बनने के कगार पर है। हमें इस स्थिति से केवल बचना नहीं है बल्कि सतत सुधारात्मक कार्रवाई करने का उपक्रम करना है।
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