अंतरराष्ट्रीय

म्यांमार : एक अदद लोकतन्त्र की तलाश

 

म्यांमार की सेना ने फरवरी में लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार का तख्तापलट कर दिया था। जिसके बाद देश भर में प्रदर्शन शुरू हो गये थे। इन प्रदर्शनों में कम से कम 510 प्रदर्शनकारियों की मौत हो चुकी है। म्यांमार के असिस्टेंस एसोसिएशन फॉर पॉलिटिकल प्रिजनर्स’के मुताबिक, मृतक संख्या इससे कहीं अधिक हो सकती है। 2574 लोगों को हिरासत में लिया गया है। शनिवार 27 मार्च को 100 से अधिक लोगों की मौत के बावजूद लगातार प्रदर्शन जारी रहा है। जैसा कि ज्ञात है पिछले साल के आखिर में हुए आम चुनाव में आंग सान सू की की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) पार्टी ने भारी बहुमत हासिल किया था, लेकिन म्यांमार के सैन्य शासकों ने एक फरवरी को तख्तापलट कर सत्ता अपने हाथ में ले ली।

इसके बाद से जारी हिंसा में करीब पाँच सौ प्रदर्शनकारी मारे जा चुके हैं। अमेरिका और यूरोपीय संघ ने सैन्य शासकों के खिलाफ कड़े प्रतिबंध लगाए हैं, फिर भी सेना बर्बरतापूर्वक प्रदशनकारियों का दमन कर रही है। सेना ने सू की सहित अनेक नेताओं को गिरफ्तार कर एक साल के लिए देश में इमरजेंसी लगा दी है। सेना ने चुनाव में धांधली का आरोप लगाया था, जिसे वहाँ के चुनाव आयोग ने खारिज कर दिया था। म्यांमार की सेना ने मंगलवार को देश के पूर्वी हिस्से में हवाई हमले किए हैं। इससे पहले भी इसी तरह की कार्रवाई के चलते कारेन जाति के हजारों लोग थाईलैंड भाग चुके हैं। थाईलैंड के प्रधानमन्त्री ने कहा कि जो ग्रामीण पिछले सप्ताह हवाई हमले के चलते भाग कर आए थे, वे स्वयं लौटे हैं। उन्होंने थाईलैंड के सुरक्षाबलों द्वारा म्यांमार से भगाए लोगों को जबरदस्ती वापस भेजने से इनकार किया। इस बीच, पूर्वी क्षेत्र में हालात और खतरनाक होते जा रहे हैं। कारेन समुदाय की सैन्य इकाई ने कहा सेना सभी तरफ से हमारे क्षेत्र की तरफ आगे बढ़ रही है।

म्यांमार में लोकतन्त्र की सबसे बड़ी उम्मीद आंग सान सू की से कहाँ चूक हो गयी कि वहाँ की सत्ता पर एक बार फिर सेना का कब्जा हो गया। दशकों के संघर्ष के बाद उन्हें देश की कमान मिली थी। 2015 के चुनाव में जब सू की को जबर्दस्त जीत मिली थी तब लगा था कि म्यांमार के हालात सुधर जाएंगे, लेकिन एक बार फिर म्यांमार सैन्य शासन के हाथों में चला गया है।

जाहिर है वहाँ एक अदद लोकतन्त्र की तलाश अब भी जारी है। सैन्य शासन के पाँच दशक के बाद मार्च 2016 में म्यांमार में लोकतन्त्र बहाल हुआ था। म्यांमार के सांसदों ने आंग सान सू की के करीबी तिन क्यां को देश का पहला असैन्य राष्ट्रपति चुना था। वैसे तो सू की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने चुनाव में भारी जीत हासिल की थी। दोनों सदनों में उसे बहुमत भी मिले थे। बावजूद इसके म्यांमार में सेना ने भी मजबूत पकड़ बनाए रखी।

गौरतलब है कि साल 1962 में सत्ता को अपने हाथों में लेने वाली वहाँ की सेना ने म्यांमार के संविधान में एक ऐसा प्रविधान कर दिया कि आंग सान सू की बड़ी जीत हासिल करने के बावजूद राष्ट्रपति बनने से वंचित हो गयी थी। उस प्रविधान के अनुसार जिनके करीबी परिजन विदेशी नागरिक हों वे राष्ट्रपति नहीं बन सकते। मालूम हो कि आंग सान सू की के बेटों के पास विदेशी नागरिकता थी यही उनके राष्ट्रपति बनने की राह में रोड़ा था। हालांकि 2018 में म्यांमार की कमान तिन क्यां की जगह विन मिंट को दे दी गयी थी। कुल मिलाकर म्यांमार लोकतांत्रिक तरीके से आगे बढ़ चला था, मगर क्या पता था कि कोरोना के बीच वहाँ के लोकतन्त्र को भी तानाशाही नामक वायरस जकड़ लेगा। एक बार फिर म्यांमार की जमीन पर लोकतन्त्र बंधक हो जाएगा। Myanmar Coup Demonstration in favor of pro democracy leader Aung San Suu Kyi in Myanmar Jagran Special

म्यांमार में इस सैन्य तख्तापलट और आंग सान सू की समेत कई शीर्ष नेताओं की गिरफ्तारी पर अमेरिका, इंग्लैंड समेत दुनिया के तमाम छोटे-बड़े देश चिंता जता रहे हैं। अमेरिका ने तो स्पष्ट किया है कि लोकतन्त्र को बहाल करने के लिए सही कदम न उठाने पर कार्रवाई करेंगे। संयुक्त राष्ट्र ने भी इस पर चिंता जताई है। सवाल है कि म्यांमार में इस बार राजनीतिक संकट क्यों उत्पन्न हुआ? असल में सेना यह आरोप लगा रही है कि वहाँ चुनाव परिणामों में धांधली हुई है। मालूम हो कि नवम्बर 2020 के चुनाव में वहाँ संसद के संयुक्त निचले और ऊपरी सदनों में सू की की पार्टी ने 476 सीटों में 396 सीटों पर जीत हासिल कर ली थी। यह सेना को नागवार गुजरी। उसने धांधली का आरोप लगाते हुए लोकतन्त्र को बंधक बना लिया।

सेना के पास साल 2008 के सैन्य मसौदा संविधान के अंतर्गत अभी भी कुल सीटों में से 25 फीसद आरक्षित हैं। इतना ही नहीं कई प्रमुख मन्त्री पद भी सेना के लिए आरक्षित हैं। सेना बड़े पैमाने पर धांधली का आरोप लगा तो रही है, पर सुबूत देने में वह असफल है। ऐसे में यह साफ प्रतीत होता है कि उसका इरादा लोकतांत्रिक सत्ता को हड़पने का था। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सेना द्वारा पहले वहाँ लोकतन्त्र पर कब्जा किया गया, फिर उसके खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों को मौत के घाट उतारा जा रहा है। अब तक यंगून, मांडले समेत करीब दो दर्जन शहरों और कस्बों में सैकड़ों प्रदर्शनकारी मारे जा चुके हैं। देखा जाए तो पुलिस और सैनिक आक्रामक रवैया अपनाए हुए हैं। हालांकि इन सबके बीच वहाँ लोकतन्त्र की रक्षा और बहाली को लेकर भी बातें सामने आ रही हैं। सैन्य शासन जुंटा के प्रमुख ने कहा है कि वह हर कीमत पर जनता की रक्षा करेंगे और जल्द ही चुनाव कराएंगे, लेकिन इसका समय नहीं बता रहे हैं।

म्यांमार में कभी अंग्रेजों का राज था। साल 1937 से पहले औपनिवेशिक सत्ता ने उसे भारत का ही एक राज्य घोषित कर रखा था। बाद में उसे भारत से अलग कर अपना एक उपनिवेश बना लिया। गौरतलब है कि 1980 के पहले इसका नाम बर्मा था। चार जनवरी, 1948 को बर्मा ब्रिटिश शासन से मुक्त हुआ और 1962 तक वहाँ पर लोकतन्त्र के तहत सरकारें चुनी जाती रही थीं। मगर दो मार्च, 1962 को सेना के तत्कालीन जनरल ने विन चुनी हुई सरकार का तख्तापलट करते हुए सैन्य शासन की स्थापना कर दी। वहाँ के संविधान को निलंबित कर दिया। सैन्य शासन के उस दौर में मानवाधिकार के उल्लंघन के भी आरोप लगते रहे। वहाँ सैन्य सरकार को मिलट्री जुंटा कहा जाता था। फिर लंबे संघर्ष और कई उतार-चढ़ाव के बाद आखिरकार वहाँ पर लोकतन्त्र बहाल हुआ, जिसका श्रेय तीन दशकों से इसके लिए प्रयासरत आंग सान सू की को जाता है। मगर एक हकीकत यह भी है कि जहाँ लोकतन्त्र को हड़पने की स्थिति बनती हो वहाँ ऐसा बार-बार बनने की संभावना भी रहती है। पाकिस्तान इसका बड़ा उदाहरण है।

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शैलेन्द्र चौहान

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क +917838897877, shailendrachauhan@hotmail.com
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