कुछ दिन पहले टीवी पर एक विज्ञापन देखने को मिला, जिसमें एक औरत अपने छोटे से बेटे को यह कहती हुई नजर आ रही थी कि “बेटा जाओ, जाकर देखो कचरा वाला आया है क्या?” अपनी मां की बातों का जवाब देते हुये वह छोटा सा बच्चा कहता है कि “मां वे तो सफाई वाला है, कचरे वाले तो हम हैं, क्योंकि कचरा तो हम फैलाते हैं. वे तो हमारे फैलाये कचरे को साफ करता है, इसलिए सफाई वाला तो वे हुआ न?” बच्चे के इस जवाब के बाद वह मां स्तब्ध नजरों से अपने बच्चे को देखते हुये, अपनी गलती पर निःशब्द हामी भर देती है.
यह विज्ञापन देश की उस मानसिकता पर करारा प्रहार है, जहां सफाई करने वाले अथवा दूसरों की फैलायी गंदगी को साफ करने वाले अर्थात् सफाई कर्मचारियों की हमेशा अवहेलना की जाती है. उन्हें समाज द्वारा अछूत अथवा घृणित करार दे दिया जाता है. यह उस विकासशील समाज की सोच अथवा मानसिकता है, जहां हम अपने ही द्वारा फैलायी गयी गंदगी को साफ करने वाले लोगों से घृणा करते हैं, जो बहिष्कृत समाज का हिस्सा बनकर, बदहाल जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं. हमारे समाज में प्राचीन समय से ही यह गंदी मानसिकता पूरे जटिलता के साथ अपनी जड़ों को विस्तार दे रहा है, जिसका विस्तार रोकना अब भी बहुत मुश्किल है.
गांधीजी ने अपने बचपन में ही भारतीयों में स्वच्छता के प्रति उदासीनता की कमी को महसूस कर लिया था। यही कारण है कि गांधीजी के लिए स्वच्छता एक बहुत ही महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दा था। 1895 में जब ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों और एशियाई व्यापारियों से उनके स्थानों को गंदा रखने के आधार पर भेदभाव किया था, तब से लेकर अपनी हत्या के एक दिन पहले तक गांधीजी लगातार सफाई रखने और सफाई कर्मियों के हित पर जोर देते रहे.
19 नवंबर 1925 के यंग इंडिया के एक अंक में भी गांधीजी ने भारत में स्वच्छता के बारे में अपने विचारों को प्रकट करते हुये कहा था कि- “देश के अपने भ्रमण के दौरान मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ गंदगी को देखकर हुई. इस संबंध में अपने आप से समझौता करना मेरी मजबूरी है. (गांधी वाङ्मय, भाग-28, पृष्ठ 461). सन् 1901 में गांधीजी ने कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में स्वयं अपना मैला साफ करने की पहल की थी, जिसका सदैव उन्होंने पालन भी किया। उन्होंने 1918 में साबरमती आश्रम शुरू किया तो उसमें पेशेवर सफाई कर्मी लगाने के बजाय आश्रमवासियों को अपना मैला साफ करने का नियम बनाया।
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की वर्ष 2016-17 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 1992 से लेकर 2005 के बीच देश में कुल 7,70,338 हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों की पहचान हुयी थी, जिनमें से 4,27,870 कर्मियों का पुनर्वास कर लिया गया था. इसके बाद 3,42,468 हाथ से मैला उठाने वाले कार्मिक रह गये थे। हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों की संख्या में उत्तर प्रदेश पहले नम्बर पर तथा मध्यप्रदेश दूसरे, महाराष्ट्र तीसरे और गुजरात चौथे नम्बर पर है.
इन कार्मियों में निजी तौर पर काम करने वाले या नगर निकायों में नियमित या अनियमित तौर पर सीवर लाइनों, सेप्टिक टैंकों पर काम करने वाले कार्मिक शामिल नहीं हैं। अगर महात्मा गांधी के चश्मे से उनकी ही नजर से देखा जाता तो सड़कों पर झाड़ू लेकर फोटो खिंचवाने के बजाय एक मानव को दूसरे मानव का मैला उठाने के कृत्य को सबसे अधिक गंभीरता से लिया जाता.
12 जुलाई, 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक आदेश दिया था, जिसमें सिर पर मैला ढोने वाले मज़दूरों और सीवेज कामगारों की दुर्दशा को रेखांकित किया गया था. कोर्ट के द्वारा उनके कल्याण और सुरक्षा को लेकर भी सरकार की भर्त्सना की गयी थी. सफाईकर्मियों की निरंतर हो रही मौत और उनके परिवार को मिलने वाले मुआवजे पर भी सुप्रीम कोर्ट के द्वारा विशेष जोर दिया गया था लेकिन अन्य नियमों की तरह इसे भी ठंडे बस्ते का हिस्सा बना दिया गया. कानूनन प्रतिबंधित होने के बावजूद आज भी देश में लाखों लोग दूसरों का मैला अपने सिर पर ढोने को बाध्य हैं और मौत को गले लगा रहे हैं. अपने देश में सफाईकर्मियों की ऐसी स्थिति को बनाये रखना देश के राष्ट्रपिता और उस महात्मा को हर दिन मारने के बराबर है जो सदैव इस वर्ग के उत्थान की ओर ध्यान देते रहे.
(30 जनवरी पर विशेष)