उत्तराखंडचरखा फीचर्स

कृषि से विमुक्त होता पर्वतीय समुदाय

 

कृषि उत्पादों में भारत विश्व में दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है जिसका योगदान वैश्विक कृषि उत्पादन में 07.68 प्रतिशत है। 09 नवम्बर, 2000 को देश के 27वें राज्य के रूप में उत्तराखण्ड का गठन हुआ जो एक कृषि प्रधान राज्य है जहाँ 85 प्रतिशत भाग पहाड़ी है और इसकी 75 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। राज्य में अक्सर हरे भरे जंगलों से घिरी घाटी के खेतों में मिलकर खेती के नजारे देखना आम हुआ करता था जहाँ खेतों में रोपाई करती महिलाएं व हल चलाते पुरुष का नजारा मनमोहक होता था।

वहीं पर आज पलायन, सिमटती खेती, भूमि क्षरण, मृदा अपरदन के कारण इन कार्यों को करते कुछ ही लोग दिखायी देते है। नैनीताल स्थित पहाड़पानी ब्लॉक के मजूली गाँव की सुमन देवी का कहना है पहले रोपाई करते समय पूरा गाँव जुटता था खेतों में मेले के जैसा माहौल रहता था। आज बाहर के तो क्या, उनके परिवार के लोग तक व्यस्तता के कारण नहीं आते हैं। लोगों ने गांवों को छोड़ शहरों की ओर रूख कर लिया है। आज हर ग्राम में जितने घर है उनके आधे तो खंडरों में बदल गये है।

पलायन आयोग के अनुसार राज्य में 2011 की गणना के बाद अब तक 734 गांवों की जनसंख्या पूर्ण रूप से शून्य हो गयी है, वहीं 565 गाँव ऐसे हैं जिनकी जनसंख्या 50 प्रतिशत से कम हो गयी है और यह आंकड़े लगातार बढ़ ही रहे हैं। जहाँ एक ओर रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य व आधुनिक सुख सुविधाओं की कमी के चलते लोग बाहर का रूख कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर अधिकांश किसानों का जीवनयापन कृषि है फिर भी किसान खेती से नाता तोड़ रहे है।

हालांकि कुछ युवा अभी भी खेती को तरजीह देते हुए उसे अपनी आजीविका का साधन बना रहे हैं। किसानों की खेती से विमुक्ती पर बात करते हुए धारी विकासखण्ड के ग्राम जलनानीलपहाड़ी के युवा किसान मोहित मेलकानी बताते है काश्तकारों की विमुक्ती का कारण पहाड़ों में मंडियों का अभाव है। किसान अपनी उपज का विपणन कहां व किस प्रकार करे? जो मंडियां हैं भी तो वह मैदानी क्षेत्रों में हैं। जहाँ ढुलान का व्यय उसके मुनाफे से अधिक हो जाता है साथ ही जंगली जानवरों का आतंक और मौसम की मार से बेहाल किसान खेती कैसे कर सकेगा? किसान जितना अपने खेतों पर मेहनत करता है, इसके बाद भी उसे कुछ नहीं मिलता है। आय की बात तो दूर, परिवार के लिए पूरे साल भर खाने के लिए भी जमा नहीं कर पाता है।

राज्य गठन के समय कृषि का क्षेत्रफल 7.70 लाख हेक्टेयर था जो 20 वर्ष में घटकर 6.73 लाख हेक्टेयर हो गया है, साथ ही परती भूमि जिसमें पहले खेती हुआ करती थी वह 1.07 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 1.60 लाख हेक्टेयर हो गई है। राज्य के 13 से 14 प्रतिशत भूमि में खेती की जाती है जिसमें अधिकांश हिस्से मैदानी इलाकों में आते हैं। पहाड़ी इलाकों में बेहद सीमित खेती की भूमि है। देखा जाए तो पर्वतीय किसानों के पास कृषि के लिए उपयुक्त भूमि ही नहीं है, ऐसे में उससे उन्नत खेती की उम्मीद कैसे लगाई जा सकती है? कृषि से विमुक्ति के चलते किसान अपनी कृषि भूमि को कम दामों में बेच रहे हैं, वर्तमान समय में पर्वतीय इलाकों में इतने निर्माण कार्य हो रहे हैं जिससे भूमि की उर्वरा क्षमता भी कम हो रही है जो कृषि को भी नुकसान पहुंचा रही है।

खेती से आजीविका चलाने की मुहिम में लगे नैनीताल जनपद के ससबनी गाँव के युवा किसान दीपक नयाल का कहना है राज्य में जो शिक्षित पीढ़ी है उनका कृषि से रूझान खत्म हो गया है क्योंकि कृषि कार्य में जितना वह श्रम व समय लगता है, उसकी अपेक्षा में उत्पादन उतना नहीं मिल पाता है। साथ ही खेती की जोत भी सिकुड़ रही है। पीढ़ी दर पीढ़ी के बटवारे से किसानों की खेती की जोत सिमटती जा रही है। बड़ी मुश्किल से पर्वतीय क्षेत्रों में किसानों के पास 8 से 10 नाली जमीन होती है। जिस पर 3 से 5 भाइयों का हक होता है। ऐसे में बंटवारे के बाद 2.5 से 3 नाली ही एक किसान के पास आ पाती है। साथ ही जल्द उत्पादन व अधिक मूल्य की चाह में किसानों द्वारा नई कृषि तकनीक, उपकरणों व रासायनिक खादों, कीटनाशकों के अधिक प्रयोग से मिट्टी की उर्वरक क्षमता समाप्त खत्म हो रही है। वहीं राज्य में फैल रही चीड़ की प्रजाति भी घातक है जो अन्य पौध प्रजाति को खत्म कर रही है वही इसका बुरा प्रभाव कृषि में भी पड़ रहा है।

उद्यान विभाग, पहाड़पानी ब्लॉक के गिरीश लाल का कहना है आज लोग मेहनत से डरने लगे हैं। उन्हें बिना प्रयास किये सब मिलने लगा है। जिससे पर्वतीय किसानों में अपंगता की स्थिति आ गई है। सरकारी योजनाओं के तहत अधिकांश सुविधाएं मुफ्त में मिल जाने के कारण किसान मुफ्तखोरी प्रवृत्ति का शिकार हो गया है। इस प्रकार की योजनाओं को हटाये जाने की आवश्यकता है। उनके विभाग द्वारा भी कई बार सब्सिडी पर बीज व सामान किसानों के लिए उपलब्ध करवाया जाता है, लेकिन किसानों द्वारा उसको लेने की मंशा नहीं होती जाती है। वह बताते हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि वर्षा पर आधारित है।

अतः स्थलाकृति, विभिन्न जलवायु, अल्प खेती योग्य भूमि, सीमांत जोत का भारी प्रतिशत, कठिन परिस्थिति, उच्च लागत कम रिटर्न, भूमि क्षरण और मृदा अपरदन आदि कृषि विकास के मार्ग में गंभीर बाधाएं हैं। इन बाधाओं को देखते हुए नई कार्य योजनाओं पर कार्य किया जाना चाहिए और इसमें उन किसानों को शामिल किया जाना चाहिए जिनके लिए यह योजनाएं बनायी जा रही हैं। इन प्रयासों के माध्यम से ही विमुक्त होती कृषि की ओर वापस किसानों को ला पाना संभव हो सकेगा.

इसके अतिरिक्त आयुर्वेद, पर्यटन और लद्यु उद्योग इन तीनों पर सरकार को विशेष ध्यान देने व अनुभवी विशेषज्ञों की मदद से पर्वतीय क्षेत्रों में कार्ययोजना तैयार करने की ज़रूरत है। जिससे पलायन को रोकने के साथ युवाओं को रोजगार भी मिल सकेगा। राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में आयुर्वेद व हर्बल उत्पादों की भरमार है इससे जुड़े उद्योगों को स्थापित करने की ज़रूरत है, जिससे रोजगार के साथ साथ स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से भी निजात मिल सकेगी। (चरखा फीचर)

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नरेंद्र सिंह बिष्ट

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं एवं सामाजिक मुद्दों और महिला सशक्तिकरण पर लेखन करते हैं। समपर्क +918077346582, nar.bisht@gmail.com
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