एकता, सहकार व आपसी प्रेम का प्रतीक ‘बाखली’
पहाड़ के समाज की जीवन-संस्कृति और रहन-सहन दोनों अनूठा रहा है। यहां की लोक परंपराएं व रहन-सहन प्रकृति के करीब और सृष्टि से संतुलन बनाने वाली रही है। इसकी झलक पर्वतीय समाज की हाउसिंग कॉलोनियां कही जाने बाखली में देखी जा सकती है। दर्जनों परिवारों को एक साथ रहने के लिए पहाड़ में बनने वाले ये भवन सामूहिक रहन-सहन, एकजुटता और सहयोग की भावना को परिलक्षित करते हैं। इनकी बनावट ऐसी होती थी कि आपदा के समय में एक साथ होकर चुनौतियां का सामना कर सकें।
कुमाऊँ में गाँवों में लोगों के घर ‘बाखली’ में होते हैं। बाखली में रहने की प्रथा उत्तराखण्ड की अपनी है। अन्यत्र कहीं नहीं पायी जाती। एक जाति-बिरादरी के लोग अपने रहने के मकान, गाँव की कृषि भूमि के उत्तर में पहाड़ी की ढलान अथवा ऊँचाई पर एक सीध में सारे मकान एक दूसरे से जुड़े एक कतार में बना लेते हैं। मकानों की इस एक कतार को बाखली कहते हैं। एक गाँव में इस प्रकार दो, तीन या अधिक बाखली हो सकती है। यह प्रचलन मुख्य रूप से सुरक्षा की दृष्टि से तथा सभी भाइयों के परिवार साथ-साथ रहने के कारण चला होगा।
बाखली में मकान समान ऊँचाई के तथा दो मंजिले होते हैं। नीचे की मंजिल में जिसे गोठ कहते हैं पशु बांधे जाते हैं और उनका चारा रखा जाता है। दुमंजिले में परिवार रहता है। दुमंजिला मकान के भी दो खण्ड होते हैं और हर खण्ड (खन) में आगे-पीछे कमरे होते हैं। आगे के कमरे को चाख कहते हैं जो बैठक के काम आता है। इसमें एक-दो खिड़की होती है जिसे ‘छाज’ (छज्जा) कहते हैं। मकान के प्रवेश दो प्रकार के होते हैं।
सामान्यतया बाखली में सभी मकानों के आगे पटागंण होता है जो पटाल (मोटे चपटे पत्थर) बिछाया होता है और उसके आगे एक हाथ चौड़ी दीवाल लगी होती है। जो बैठने के काम करती है और तुलसी थान भी। पटागंण से दुमंजिले तक पत्थरों की सीढ़ी बनी होती है। उसके ऊपर दरवाजा होता है। दूसरे प्रकार के दरवाजे वाले पटागंण से ही खोली बनी होती है जिसमें सीढ़ियाँ निचले मंजिल से सीधे दुमंजिले तक जाती है और उसके बाद दांये-बांये दोनों खण्डों के लिए दरवाजे बने होते हैं। खोली वाले दरवाजे भी कुमाऊँ की विशेषता है, जिनमें दरवाजे के लकड़ी के चौखट में सुन्दर, डिजाइन तथा खाचे बने होते हैं। खोली के ऊपर भी छज्जा सुन्दर डिजाइन में बना होता है।
पहली मंजिल के ऊपर छाजे के आगे पाथरों की सबेली लगभग एक फुट आगे को निकली होती है। जो झाप का काम करती है। दूसरी मंजिल के ऊपर दोनों ओर ढालदार छत होती है जिसे पाथर (पतले पटाल या स्लेट) से छाया जाता है। बाखली के सभी मकानों की धुरी एक सीध में होती हैं। धुरी में सपाट तिरछे पाथर बिछे होते हैं। मकान के भीतरी कमरे में रसोई होती है। रसोई के ऊपर छत में एक 6 इंच गोलाई का जाला धुंआ निकलने और रोशनी आने के लिए खुला होता है। एक सरकने वाले पाथर से इसे बंद किया जा सकता है।
मकानों के आगे की दीवाल पर छत की जो बल्लियाँ लगी होती है उनके बीच के स्थान को तख्तों से बंद किया जाता है और हर बल्ली के बीच के तख्ते में दो तीन इंच लम्बे चौड़े छेद छोड़े जाते हैं। इन छेदों में घरेलू चिड़िया गौरैया जिसे ‘घिनौड़’ कहते हैं अपना घोंसला बनाती है। पहाड़ी के हर पुराने मकानों में चिड़ियों के लिए ऐसी व्यवस्था होती है, जो यहाँ के लोगों के पशु-पक्षी प्रेम को उजागर करती है। दो मकानों के बीच के पटागंण में डेढ़ फुट ऊँची एक हाथ चौड़ी दीवाल होती है और इस दीवाल के बीच पशुओं और लोगों के आने-जाने के लिए रास्ता खुला होता है। बाखली में एक कोने से दूसरे कोने तक किसी के घर भी आने-जाने के लिए कोई रोक-टोक नहीं होती है।
बताया जाता है कि कत्यूर व चंद राजाओं ने भवनों के निर्माण की इस शैली को विकसित किया था। लेकिन आज के अंधाधुंध विकास, गांवों की उपेक्षा और भौगोलिक परिस्थतियों ने बहुत कुछ बदल दिया। कंक्रीट के जंगल में तब्दील होते जा रहे पहाड़ के हरे भरे गांव पलायन की मार झेल रहे हैं। शिक्षा और रोजगार के लिए पलयन के कारण गांव के गांव खाली हो गए। आज आधुनिकतावाद के चलते हम अपनी पहचान खोने लगे हैं।
पहाड़ के गाँवों की बाखलियाँ सामूहिकता में जीने की शानदार मिसालें रही हैं। बहुत सारे परिवार बिलकुल एक दूसरे से सटे मकान बनाकर रहते आये हैं। हर ऐसी बाखली के आगे का बड़ा सा आँगन पीढ़ी-दर-पीढ़ी साझा किये गए सुख-दुःख का गवाह रहा है। बीते दशकों में उत्तराखण्ड की ज्यादातर बाखलियाँ वीरान हो गयी हैं लेकिन आज भी जब कभी ऐसी कोई बाखली आबाद दिख जाती हैं, तो मन खिल जाता है। “ब्रह्मांड में कहीं तो, कुछ तो ऐसा विलक्षण है, जो मनुष्यों के द्वारा जान लिए जाने की प्रतीक्षा कर रहा है।“