चरखा फीचर्स

कोरोना के बाद बाल श्रम में चिंताजनक वृद्धि

 

कोरोना महामारी के दौरान, देश में बाल श्रम में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है, जो जनसंख्या के बड़े वर्ग के बीच गंभीर आर्थिक संकट का संकेत देता है। सरकार के खुद के आंकड़े बताते हैं कि बच्चों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के अलावा इस वायरस ने उन्हें कम उम्र में ही काम करने पर मजबूर कर दिया है। बच्चे न सिर्फ घरेलू बल्कि खतरनाक काम भी कर रहे हैं। संसद में पेश राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना के आंकड़ों के मुताबिक 2019-20 से 2020-21 के बीच बाल श्रमिकों की संख्या में 6.18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2019-20 में 54,894 बच्चों को श्रम कार्य से मुक्त कराया गया और 2020-21 में यह संख्या बढ़कर 58,289 हो गई जबकि 2018-19 में यह संख्या 50,284 थी।

बाल श्रम पर काम करने वाले संगठनों और लोगों के अनुसार यह बाल श्रम से बचाए गए बच्चों की संख्या है जो आधिकारिक रिकॉर्ड में दर्ज है, लेकिन वास्तविक आंकड़े इससे कहीं अधिक भयावह हैं। देश में 5 से 14 वर्ष की आयु के 25.6 करोड़ बच्चों में से 3.9 प्रतिशत से अधिक बच्चे किसी न किसी रूप में श्रम से जुड़े हुए हैं।

कोविड महामारी की अवधि के दौरान अन्य राज्यों के साथ-साथ राजस्थान में भी बाल श्रम में काफी वृद्धि हुई है। हालांकि अभी तक इस सम्बन्ध में कोई आधिकारिक सर्वेक्षण नहीं किया गया है, लेकिन 2021 में वर्क नो चाइल्ड बिज़नेस की रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान के प्रमुख क्षेत्रों में बाल श्रम और उनके कानूनी अधिकारों की स्थिति बहुत चिंताजनक थी। राज्य में बच्चे ईंट भट्टे, पत्थर बनाने वाली रेत और ग्रेनाइट इकाइयों के अलावा खेती, कालीन का काम, रत्नों और गहनों की कटाई सहित चूड़ी बनाने के काम में लगे हुए हैं। राजस्थान के बीकानेर, गंगानगर, अजमेर, जयपुर, भरतपुर और भीलवाड़ा जिलों में ईंट भट्ठों में काम करने वाले बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है।

 

रिपोर्ट के मुताबिक यह बाल मजदूर कर्ज में डूबे परिवारों से ताल्लुक रखते हैं। घर की बिगड़ती आर्थिक स्थिति के कारण ही यह बच्चे मजदूरी करने को विवश हुए हैं। आर्थिक संकट का एक मुख्य कारण यह भी है कि लॉकडाउन के दौरान बंद हुई फैक्ट्रियों के मालिकों ने मजदूरों का बकाया भुगतान नहीं किया। 2011 की जनगणना के अनुसार देश के लगभग 8.4 प्रतिशत बाल मजदूर राजस्थान में काम करते हैं, जिनकी संख्या लगभग 2.52 लाख है, जो देश में तीसरे नंबर पर है। राजस्थान के सभी जिलों में किसी न किसी रूप में खनन का कार्य होता है। इनमें से 19 जिलों में पत्थरों से बालू बनाने का कार्य भी किया जाता है।

एक अनुमान के मुताबिक राजस्थान के खनन उद्योग में करीब 25 लाख लोग काम करते हैं और इनमें से 24 फीसदी बच्चे हैं। कोविड महामारी के दौरान उनके काम का बोझ बढ़ गया है। माइन लेबर प्रोटेक्शन कैंपेन के मैनेजिंग ट्रस्टी राणा सेन गुप्ता कहते हैं ”कोविड से पहले भी खदानों में बड़ी संख्या में बाल मजदूर थे, लेकिन अब यह संख्या और भी बढ़ गई है। सरकार को इस सम्बन्ध में सर्वेक्षण करना चाहिए।” जैसलमेर आदि जिले ऐसे हैं जहां बच्चों को पत्थरों से रेत बनाने का काम दिया जाता है।

ईंट भट्ठों और खनन के अलावा कई बच्चे कृषि कार्य में भी लगे हैं। उदाहरण के लिए अलवर, बारां और बांसवाड़ा जिलों में बच्चों को अक्सर बड़े चारागाहों में मवेशियों को चराने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। मालिक इन बच्चों को कोई उचित मजदूरी नहीं देते हैं और न ही कोई अन्य सुविधा प्रदान करते हैं। इसके अलावा बच्चों को उनके परिवार द्वारा कृषि से संबंधित विभिन्न प्रकार के कार्यों में भी लगाया जाता है। कोविड काल में कालीन बनाने, जाम काटने, हस्तशिल्प और कागज काटने के क्षेत्र में काम करने वाले बच्चों की संख्या में वृद्धि हुई है। 

 

इन फैक्ट्रियों में बच्चे बहुत छोटी और तंग जगहों पर काम करते हैं। लगातार एक जगह काम करने से बच्चों की उंगलियों को नुकसान पहुंचता है। बच्चे श्वसन और दृष्टि समस्याओं से प्रभावित होते हैं। कई उद्योगों में बच्चों से 8 से 10 घंटे काम कराया जाता है और उन्हें मासिक वेतन के रूप में केवल कुछ रुपये दिए जाते हैं। राजधानी जयपुर के आदर्श नगर, घाटगेट, रामगंज, चांदपोल, गंगापोल जैसे क्षेत्रों में बाल मज़दूरी अधिक देखने को मिलता है।

राजस्थान में बाल श्रम में वृद्धि पुलिस द्वारा बचाए गए बच्चों की संख्या में परिलक्षित होती है। पुलिस ने 2018 में 1625 बाल मजदूरों को, 2019 में 2420 और 2020 में 1817 को छुड़ाया था। इस तरह राजस्थान में तीन साल में 5862 बच्चों को बाल मज़दूरी से बचाया गया है। अकेले जयपुर में जनवरी 2019 से 2021 तक पुलिस ने 470 बच्चों को बाल मजदूरी से छुड़ाया है। उल्लेखनीय है कि बरामद बच्चों की उम्र 10 से 17 साल के बीच थी। इनमें से 90 प्रतिशत बच्चे बिहार के विभिन्न जिलों के थे और उनमें से अधिकांश पिछड़ी जातियों के थे।

स्वैच्छिक कार्रवाई और स्थानीय भागीदारी के माध्यम से ग्रामीण उन्नति संघ के कार्यक्रम निदेशक वरण शर्मा कहते हैं “कोविड युग में बच्चों ने बड़ी संख्या में काम करना शुरू कर दिया था। दरअसल न केवल शहरों में बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी गाँवों में रोजगार के स्रोत कम हो गए हैं और हजारों परिवार अभी भी कोविड के कारण शहरों की ओर पलायन नहीं करना चाहते हैं। यही कारण है कि परिवार के सदस्य घर चलाने के लिए अपने बच्चों से काम कराने से भी नहीं हिचकिचाते हैं”। (चरखा फीचर)

माधव शर्मा

लेखक वर्क नो चाइल्ड बिजनेस के फेलो हैं।

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'चरखा' मीडिया के रचनात्मक उपयोग के माध्यम से दूरदराज और संघर्ष क्षेत्रों में हाशिए के समुदायों के सामाजिक और आर्थिक समावेश की दिशा में काम करता है। इनमें से कई क्षेत्र अत्यधिक दुर्गम और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से अस्थिर हैं। info@charkha.org
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