अविरल गंगा का अर्थ
- विमल भाई
गंगा पुनर्जीवन मंत्री श्री नितिन गडकरी का ताजा बयान है कि गंगा मार्च तक 80% साफ हो जाएगी। गंगा की बड़ी सहयोगिनी यमुना पर निर्माणाधीन लखवाड़ व्यासी बांध के बारे में उन्होंने कहा कि जैसे ही यह परियोजना बन जाएगी इसके बनने के बाद यमुना बिना किसी अवरोध के बहने लगेगी। क्या मंत्री जी को अभियंता का अर्थ नहीं मालूम या मंत्री जी जनता को मूर्ख बना रहे हैं? वे नई दिल्ली में 22 किलोमीटर बहती दिल्ली वाली यमुना की सफाई के लिए 11 परियोजनाओं के शिलान्यास के अवसर पर बोल रहे थे।
प्रधानमंत्री जी ने भी फिर से पुरानी सरकार पर हजारों करोड़ खर्च करके भी गंगा सफाई ना करने का दोष लगाया। उन्होंने गंगा सफाई के मुद्दे पर पारदर्शिता और इच्छाशक्ति की भी बात कही। दोनों मंत्रियों के बयानों को क्या 2019 के चुनाव के संदर्भ में देखना चाहिए? क्योंकि असलियत इससे बिल्कुल उलट है।
गंगा का अर्थ है गंगा के पांचों प्रयाग विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, देवप्रयाग व रुद्रप्रयाग जहां अलकनंदा में क्रमशः धौलीगंगा, पिंडर और मंदाकिनी मिलती हैं। फिर अलकनंदा व भागीरथी मिलकर गंगा का पूर्ण स्वरूप बनाती हैं। गंगा की बात करते हुए हमें उसके इस संपूर्ण रूप को ही ध्यान में रखकर चलना होगा; चाहे वो सरकारें हो या गंगा प्रेमी। आज गंगा की अविरलता व निर्मलता की बात बहुत धीमी गति के साथ देश की हवा में तैर रही है।
आस्थावान हिंदुओ को गंगा में इस अर्धकुंभ में ढेर सारा पानी चाहिए, लोगों के पाप धोने के लिए, भले ही वह पानी टिहरी बांध जलाशय से आता हो। उत्तराखंड की नई त्रिवेंद्र रावत सरकार ने उत्तराखंड में आकर 2017 में केंद्रीय ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल के साथ समझौता किया था कि बांध जलाशय का पानी 825 मीटर से ऊपर नहीं ले जाएंगे। इसके पीछे की छुपी बात यह थी कि उसके ऊपर 10 मीटर के लोगों का पुनर्वास करने में सरकार असफल रही थी। मगर अचानक से कुंभ के लिए राज्य सरकार ने टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉरपोरेशन को बांध में पूरा पानी भरने की इजाजत दे दी जबकि अभी 415 लोग सरकारी आंकड़ों के अनुसार भूमि आधारित पुनर्वास से वंचित हैं। गंगा में पाप धोने के लिए पहाड़ के लोगों का बलिदान दिया जा रहा है। टिहरी बांध की झील के दोनों तरफ की गांवों में भूस्खलन जारी है। इस भूस्खलन की समस्या पर अभी तक जो रिपोर्टे बनी है उनका कोई अता-पता नहीं है। भूस्खलनों से प्रभावितों लोगों को न मुआवजा दिया गया है और न ही उनका पुनर्वास हो पाया है। जो “संपाशर्विक नीति” झील की वजह से नुकसान हो रहे घरों, परिवारों व गांवों के लिए बनी थी उसको बांध कंपनी ने उच्च न्यायालय में चुनौती दी है। झील में जो 10 पुल डूबे उसकी एवज में अभी तक सभी पुल नहीं बन पाए हैं। गर्मियों में जब पानी नीचे चला जाता है तो लोगों को नदी पार करने के लिए बहुत मुश्किल हो जाती है क्योंकि रास्ते नहीं होते। झील से रेत के गुब्बार उठते हैं जिस कारण से चिन्याली सौड़ जैसे व्यापारिक केंद्र रहे क्षेत्र में धूल जनित समस्याएं, बीमारियां होती हैं। इसका कोई निदान नहीं। माटू जनसंगठन ने सरकार को और बांध कंपनी को कई बार लिखा है कि यहां की रेत को उठाने का और बेचने का ठेका प्रभावित गांव में स्थानीय लोगो की समितियां बनाकर उनको देना चाहिए ताकि रेत-जनित समस्या का भी निदान हो, स्थानीय लोगों को रोजगार मिल पाए, हरिद्वार में गंगा पर गैरकानूनी खनन भी बंद हो तथा राज्य की रेत संबंधी जरूरतें भी पूरी हो। किंतु सरकार ने यह ना करके अब तक खनन-माफिया को ही तरजीह दी है।
इन सबके बीच बड़े बांधों की अन्य सच्चाईयां निकालने का भी मौका सामने आता है। उत्तराखंड में भागीरथी गंगा पर जिस तरह संसार के बड़े बांधों में से एक टिहरी बांध से लेकर अलकनंदा गंगा पर जीवीके कंपनी के श्रीनगर बांध से जुड़ी पर्यावरण और पुनर्वास की अनसुलझी समस्याएं, तमाम सरकारी नीतियां, नेताओं के वादों, राष्ट्रीय कानूनों, अंतरराष्ट्रीय समझौतों से लेकर स्थानीय राजनीति में फंसे नेताओं के बीच बांध प्रभावित जनता दिग्भ्रमित है। यह बड़े बांधों का खासकर गंगा यमुना घाटी के बांधों की स्थिति का खाका है। एक ही नदी पर, एक के बाद एक बन रहे बांधो में आपसी अभियांत्रिकी तारतम्य तक नहीं है। जैसे टिहरी बांध के जलाशय की अंतिम छोर पर मनेरी भाली चरण-दो बांध के पावर हाउस का हिस्सा डूबता है। बांधों की झीलों में इकट्ठी रेत से स्थानीय लोगों का जीना दूभर हैं।
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री दिल्ली जाकर मंत्रालयों में बांधों के बारे में पैरवी करते हैं। भ्रमपूर्वक बांध के मसले को रोजगार और राज्य के विकास के साथ दिखाकर राज्य के लिए बांधों को एक आवश्यक बिंदु बताने की कोशिश करते हैं। राज्य बनने के बाद आई कोई भी सरकार अभी तक गंगा पर बने बांधों का रिपोर्ट कार्ड देने में असमर्थ रही है। बड़ी घोषणायें और बड़े बयान हमेशा विस्थापितों के और पर्यावरण के पक्ष में आते हैं किंतु जमीनी स्तर पर यह बात पूरी तरह से विपरीत नजर आई है।
महानदी पर प्रस्तावित पंचेश्वर बांध की जनसुनवाई से लेकर नन्ही सी सुपिन नदी पर प्रस्तावित जखोल साकरी तक की जनसुनवाई में जिस तरह सुरक्षा बलों का उपयोग किया गया वह बताता है कि बांध के लिए आवश्यक स्वीकृति प्राप्त करने के लिए जनता को शुरू से ही डरा धमकाया जा रहा है ।
किसी भी बांध क्षेत्र में पुनर्वास की शर्तों को पूरा नहीं किया गया है। पर्यावरण की शर्तें तो पूरी करना दूर स्थानीय स्तर पर पर्यावरण की क्षति को प्रशासन द्वारा पूरी तरह अनदेखा किया जाता है। यदि कोई प्रशासन से इन मुद्दों पर सवाल करता है तो उसको जवाब नहीं मिलते। अदालतों में जाने के बाद सरकार बांध कंपनी के पक्ष में खड़ी नजर आती है। बांध बनने के बाद स्थानीय लोगों से किए गए वादे तो पूरी तरह भुला दिए जाते हैं।
किसी भी बांध से स्थानीय विकास कोष के नाम पर 1% बिजली उत्पादन का लाभ जो स्थानीय लोगों को मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहा है। प्रत्येक प्रभावित परिवार को 10 वर्ष तक 100 यूनिट बिजली या उसके एवज में पैसा या दोनों ही मिले। इस नीति का भी पालन नहीं हो रहा। राज्य को मिलने वाली 12% मुफ्त बिजली अन्य कामों में लगाई जा रही है। जबकि वह केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय की नीति के तहत राज्य को पर्यावरण और पुनर्वास की समस्याओं को निपटाने के लिए दिए जाने का प्रावधान है।
यहां यह भी याद रखना होगा कि 2016 में केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण द्वारा जारी रिपोर्ट के आधार पर ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने देश को बताया था कि अगले 10 वर्षों तक भारत में नई परियोजनाओं की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि हमारे पास बिजली अधिक मात्रा में है। मध्य प्रदेश में तमाम संयंत्र विद्युत संयंत्र बंद किए गए हैं। ऐसे में कैसे माना जाए कि बांध देश के विकास के लिए है। तो क्या देश में उन लोगो को नहीं गिना जाता जो स्थानीय स्तर पर बांध के बुरे प्रभाव झेलते हैं?
गंगा रक्षण के लिए , स्वामी सानंद का 111 दिन के उपवास के बाद संदिग्ध परिस्थितियों में सरकारी अस्पताल में मृत्यु, उसके बाद जून से उपवास कर रहे संत गोपाल दास का 5 दिसंबर को दिल्ली के एम्स अस्पताल से गायब हो जाना, यह सब भी सोचनीय विषय हैं।
गंगा के तमाम मुद्दों को लेकर उत्तराखंड के हरिद्वार में मातृ सदन आश्रम में 26 वर्षीय युवा संत ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद जी 24 अक्टूबर, 2018 से उपवास पर है। माटू जनसंगठन ने उनके उपवास को समर्थन दिया है। जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के तमाम साथियों ने 7 दिसंबर, 2018 को भी आश्रम पहुंचकर उनको राष्ट्रीय समर्थन दिया था।
सरकारों, पर्यावरणविदों, गंगा प्रेमियों व गंगा के किनारे रहने वाले संतो को समझना होगा कि जब गंगा के गंगत्व को बचाने की बात हो, गंगा की निर्मलता- अविरलता की बात हो या उत्तराखंड के सही विकास की बात हो तो इसके लिए आवश्यक है कि:-
1- बांधों का भ्रम जाल हटाना होगा। निर्माणाधीन बांधों को तत्काल प्रभाव से बंद करके अब तक हुए पर्यावरण व लोगों के नुकसान की भरपाई की जाए।
2- गंगा यानी धौलीगंगा, नंदाकिनी, पिंडर और मंदाकिनी, अलकनंदा व भागीरथी को भविष्य में बांध रहित निर्बाध रखने के लिए कानून बने
3- सरकार एक समिति बनाकर उत्तराखंड के सभी बांधों से विस्थापितों की समस्याओं का आकलन करे और समस्या निस्तारण कड़ी निगरानी के बीच हो। इस समिति में विस्थापितों के प्रतिनिधि व देश के मान्य समाज कर्मियों को शामिल किया जाए।
4-उत्तराखंड के विकास के लिए स्थानीय लोगों को वन अधिकार कानून 2006 के तहत वनों पर अधिकार दिया जाए और उनके स्थाई विकास के लिए अन्य परियोजनाएं चालू की जाए।
लेखक उत्तराखंड में गंगा यमुना घाटी में 1988 से बांधों के सवाल पर कार्यरत हैं और माटू जन संगठन के समन्वयक हैं|
सम्पर्क- +919718479517, bhaivimal@gmail.com