चर्चा में

अंक-गणित की गिरफ़्त में शिक्षा!

 

दिल्ली विश्वविद्यालय में  भौतिक-शास्त्र पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर राकेश कुमार पाण्डेय के ‘केरल बोर्ड के मार्क्स जिहाद’ संबंधी बयान ने शिक्षा जगत में नये विवाद को जन्म दे दिया है। उन्होंने केरल बोर्ड द्वारा अत्यंत उदारतापूर्वक छात्रों को बड़ी संख्या में 100 फ़ीसद तक मार्क्स देने की प्रवृत्ति की इशारा करते हुए इसे ‘मार्क्सवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार की सुचिंतित और सुनियोजित साजिश’ बताया है। प्रो. राकेश कुमार पाण्डेय द्वारा प्रयोग की गयी संज्ञा ‘मार्क्स जिहाद’ पर भले ही कुछ लोगों को असहमति या आपत्ति हो, लेकिन उनके द्वारा उठाये गए मुद्दे को निराधार नहीं कहा जा सकता है। यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि केरल में ‘लव जिहाद’ और ‘नारकोटिक जिहाद’ फल-फूल रहा है। इसलिए ‘मार्क्स जिहाद’ की संभावना को भी प्रथमदृष्ट्या निरस्त नहीं किया जा सकता है।

केरल बोर्ड के छात्रों के दिल्ली विश्वविद्यालय में अत्यधिक दाखिलों के खिलाफ तमिलनाडु की छात्रा गुनिशा ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका भी दायर की है। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित कॉलेजों- हिन्दू कॉलेज, रामजस कॉलेज, हंसराज कॉलेज, किरोड़ीमल कॉलेज, मिरांडा हाउस कॉलेज और श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स आदि के लोकप्रिय ऑनर्स पाठ्यक्रमों- राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, कॉमर्स आदि में प्रवेश लेने वाले छात्रों की पिछले कुछ वर्षों की सूची में केरल के छात्रों की भरमार है। हिन्दू कॉलेज के राजनीति शास्त्र विभाग का इस वर्ष का मामला सबसे रोचक है। वहाँ अनारक्षित श्रेणी के अंतर्गत कुल 20 सीटों पर प्रवेश होना था, लेकिन 26 छात्रों को प्रवेश देना पड़ा क्योंकि सभी के 100 फीसद मार्क्स थे। ये सभी छात्र केरल बोर्ड से 100 फीसद मार्क्स लेकर आये हैं।

इस वर्ष केरल बोर्ड के 234 छात्रों ने 100 फीसद अंक और 18510 छात्रों ने उच्चतम ए+  ग्रेड प्राप्त किया है। सी बी एस ई के मात्र एक छात्र ने ही 100 फीसद अंक पाये हैं। इस वर्ष केरल बोर्ड के 700 छात्रों ने बेस्ट फोर (जिसके आधार पर कट ऑफ निर्धारण होता है) में 100 फीसद अंकों के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय में आवेदन किया है। साथ ही, केरल बोर्ड के कुल आवेदक 4824 हैं, जिनमें से अधिसंख्य के अंक 98 प्रतिशत या उससे अधिक हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में यह ट्रेंड पिछले 3-4 वर्षों में क्रमशः बढ़ता गया है।

इसी के परिणामस्वरूप इसवर्ष 10 से अधिक कॉलेजों के 30 से अधिक पाठ्यक्रमों की कटऑफ 100 फीसद हो गयी है। दिल्ली विश्वविद्यालय के कैंपस कॉलेजों के अनेक शिक्षकों ने ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ बताया है कि 100 फीसद अंक लाने वाले इन छात्रों को विषय की बहुत कम समझ होती है। इन छात्रों को अंग्रेजी और हिन्दी दोनों ही भाषाएं समझ न आने के कारण कक्षा में ‘संप्रेषण के अभूतपूर्व संकट’ का सामना करना पड़ता है। इसीलिए 100 फीसदी अंक लाने वाले ये छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में जैसे-तैसे उत्तीर्ण हो पाते हैं। उपरोक्त तथ्य स्कूली शिक्षा की मूल्यांकन प्रणाली को संदिग्ध बनाते हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है। उसमें प्रवेश लेने का अधिकार देश के प्रत्येक राज्य और बोर्ड के छात्रों को है। क्षेत्र, धर्म या बोर्ड के आधार पर किसी छात्र को उपेक्षित या वंचित नहीं किया जा सकता है। लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि किसी बोर्ड से पढ़ने या राज्य विशेष का निवासी होने का नाजायज़ फायदा भी किसी को नहीं मिलना चाहिए क्योंकि इससे अन्य योग्य अभ्यर्थियों की हकमारी होती है। उत्तर प्रदेश बोर्ड की सख्त मूल्यांकन प्रणाली के शिकार छात्र इसके उदाहरण हैं।

वस्तुतः बेहिसाब बढ़े हुए अंक संवैधानिक दायित्वों और नौजवान पीढ़ी के भविष्य के साथ खिलवाड़ हैं। इससे अन्यान्य बोर्डों में भी इस तरह की प्रवृत्ति बढ़ेगी। वे भी अधिकाधिक अंक देकर अपने बोर्ड के छात्रों को दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में ज्यादा से ज्यादा संख्या में प्रवेश दिलाने के आसान रास्ते पर चल पड़ेंगे। इससे शिक्षा व्यवस्था और मूल्यांकन प्रणाली क्रमशः अधोमुखी होती हुई धराशायी हो जाएगी। निश्चय ही, इसके लिए छात्र-छात्राओं को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।  वे बेचारे तो व्यवस्था के ‘गिनीपिग’ हैं।

हालिया विवाद के केंद्र में भले ही केरल बोर्ड या केरल से आने वाले छात्र हों, लेकिन लगभग एक दशक से उदार मूल्यांकन और अत्यधिक बढ़े हुए अंकों की प्रवृत्ति केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के साथ-साथ कई अन्य राज्य बोर्डों में भी दिखाई दे रही है। यह अत्यंत चिंताजनक है। अध्ययन-अध्यापन और जीवन में अंकतालिका के बढ़ते महत्व ने तमाम चुनौतियाँ पैदा की हैं। सबसे पहले तो इसने पढ़ने-पढ़ाने का आनन्द समाप्त कर दिया है। यह प्रक्रिया मशीनी हो गयी है। सीखने और समझने की जगह पूरा ध्यान अंक लाने पर केन्द्रित हो गया है।

इससे छात्रों के ऊपर अत्यंत दबाव और तनाव हावी हो गया है। बच्चों और उनके माता-पिता के लिए बोर्ड परीक्षा (खासतौर पर बारहवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा) अत्यंत खौफनाक अनुभव हो गयी है। अगर कोई छात्र बहुत अच्छे अंक नहीं ला पाता है तो उसके माता-पिता को उसके जीवन के बर्वाद होने की आशंका सताने लगती है। ये अंक उन्हें न सिर्फ सफलता और संभावनाओं की राह खुलने की आश्वस्ति देते हैं, बल्कि उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में भी इजाफा करते हैं। माता-पिता अपने बच्चों को अपनी असफलताओं और अधूरे सपनों को पूरा करने का माध्यम बनाये जा रहे हैं।

आज तोतारटंत शिक्षा का बोलबाला है। इस अंककेंद्रित व्यवस्था में रचनात्मकता, आलोचनात्मक चिंतन और विश्लेषणक्षमता के विकास का कोई अवकाश या अवसर नहीं है। एक पूरी-की-पूरी पीढ़ी और पूरा-का-पूरा देश इस चूहादौढ़ की चपेट में है। कोई इस कहावत को नहीं सुनना-समझना चाहता कि ‘चूहादौढ़ को जीतकर भी आप चूहा ही रहते हैं।’ विडम्बनापूर्ण ही है कि पेरेंटिंग का मापदंड बोर्ड परीक्षा के अंक बन गए हैं। बच्चे ने कितना और कैसा ज्ञान अर्जित किया, क्या संस्कार सीखे, एक जिम्मेदार नागरिक और बेहतर मनुष्य के रूप में उसका कितना और कैसा विकास हुआ; इससे किसी को कुछ भी लेना-देना नहीं है…!

माता-पिता, समाज, शिक्षण संस्थान और सरकार का ध्यान और ध्येय बच्चे की मार्क्सशीट में अधिकाधिक अंक दर्ज कराने पर है। मार्क्स का अत्यधिक महत्व बढ़ जाने से अभिभावकों से लेकर शिक्षक, विद्यालय और स्वयं छात्र अत्यंत मुश्किल में हैं। इसलिए अवसाद आदि तमाम मानसिक विकार और आत्महत्या जैसे विचार छात्रों में लगातार बढ़ रहे हैं। अधिकाधिक मार्क्स लाने की विकृत प्रतिस्पर्धा ने छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों का रोबोटीकरण कर दिया है। बोर्ड परीक्षा में सैकड़ों की संख्या में छात्र 100 फीसद अंक ला रहे हैं। 100 फीसद या उसके आसपास अंक प्राप्त करने वाले छात्र खुद की सर्वज्ञता का अहं  पाल बैठते हैं। उनमें कुछ नया सीखने या करने की कोई चाहत नहीं बचती। निश्चय ही, यह शोचनीय स्थिति है और इसे तत्काल दुरुस्त करने की आवश्यकता है। इसके लिए देशभर में एक स्तरीय,समावेशी और समान मूल्यांकन प्रणाली लागू करनी होगी। मूल्यांकन में सततता और समग्रता आवश्यक है।

पिछले दिनों शिक्षा मंत्रालय ने राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनटीए) द्वारा सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश हेतु केंद्रीकृत परीक्षा आयोजित करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। इससे कुछ हद तक समस्या का समाधान होगा।  लेकिन कोचिंग आदि की प्रवृत्ति बढ़ने की भी आशंका है। गाँव और गरीबों के बच्चे इस प्रवेश परीक्षा में कैसे और कितनी भागीदारी कर पायेंगे, यह विचारणीय है। इन छात्रों के हित-संरक्षण के लिए स्तरीय और वहनीय उच्च शिक्षा का व्यापक विस्तार करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही, मातृभाषा में उच्च शिक्षा देने की भी जरूरत है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में इस दिशा में ठोस प्रावधान किये गए हैं। 

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रसाल सिंह

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में प्रोफेसर हैं। सम्पर्क- +918800886847, rasal_singh@yahoo.co.in
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