नई तासीर लिए लोकसभा चुनाव
जिसने यूपी जीता…
लोकसभा चुनाव को लेकर सियासी गलियारे में यह कहावत बड़ी चर्चित है, जिसने यूपी जीता, समझो उसने देश पर राज किया। साफ शब्दों में कहा जाए तो सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश के गलियारे से ही होकर जाता है। 18वीं लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की सियासत पर देश -विदेश की निगाह टिकी है। सत्ता के लिए उत्तर प्रदेश की मजबूती खास मायने रखती है। ये बात सियासी दलों को भी भलीभाँति मालूम है। शायद इसीलिए वो भी पूरी तैयारी से जुटे हैं। एक से बढ़कर एक सियासी दाव- पेंच चले जा रहे हैं। तकरीबन सभी दलों का एक ही लक्ष्य, हर हाल में जीत।
कहा जाता है कि इसकी पृष्ठभूमि सालभर पहले से ही तैयार कर ली गई थी। सधे अंदाज में कार्य ही नहीं बल्कि तगड़ा होमवर्क भी हुआ। सत्तापक्ष ने एनडीए को मजबूत करने के लिए कई क्षेत्रीय दलों को साथ शामिल किया। पाले से छिटक चुके ओमप्रकाश राजभर, दारा सिंह चौहान को दुबारा न सिर्फ सरकार में शामिल किया बल्कि मंत्री तक बना डाला। ऐसे तमाम सियासी ‘टोटके’ किए गये जिनसे मजबूती मिल सके। सिराथू विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हार गये डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य। वहां की जनता में इतनी ज्यादा नाराजगी थी कि पूरे कौशांबी जिले में भाजपा का खाता नहीं खुला। खास बात यह कि वहाँ लोग भाजपा जिंदाबाद का नारा तो लगाते रहे पर केशव मौर्य का विरोध करते हुए सपा समर्थित अपना दल (कमेरावादी) प्रत्याशी पल्लवी पटेल को जिता दिया। इधर केशव प्रसाद मौर्य को भाजपा ने दुबारा डिप्टी सीएम बना दिया। एनडीए का सबसे बड़ा घटक रहे भाजपा ने प्रमुख तौर पर पिछड़ी जातियों पर फोकस किया तो अनुसूचित जातियों को भी पाले में लेकर लामबंद किया। इसे रणनीति का हिस्सा माना गया।
इस बार अंडर करेंट :
प्रयागराज डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के युवा अधिवक्ता अनूप केसरवानी कहते हैं – इस बार भी मोदी – योगी लहर है, चुनाव में इसका असर दिखेगा जब कि होलागढ़ के पत्रकार राकेश शुक्ला राजू और रिजवान सैफ तर्क देते हैं – चुनाव में इस बार अंडर करंट है।
गौरतलब है एक दशक पहले, यानी 2014 में एनडीए ने उत्तर प्रदेश में भारी जीत लेकर केंद्र में मजबूत सरकार बनाई थी। तब भारतीय जनता पार्टी एक बड़े घटक और नरेंद्र मोदी बड़े नेता के रूप में सामने आए। दस साल बाद 18वीं लोकसभा चुनाव के मौके पर यह सवाल शिद्दत से उठाये जा रहे हैं कि क्या इस बार भी उत्तर प्रदेश में एनडीए खासकर भाजपा बंपर सीट दर्ज कराने जा रही है?
उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटे हैं। चिलचिलाती धूप और तपिश के बीच चुनावी तापमान गर्म है। कार्यकर्ताओं के साथ प्रत्याशी भी पसीना बहा रहे हैं।
कार्यकर्ताओं के साथ परिचय बैठक :
चुनाव के मौके पर ही केवल सक्रिय होने की बन चुकी ‘रस्म’ का निर्वाह जोरों पर है। दो तिहाई से ज्यादा सीटों पर प्रत्याशी ऐसे हैं जो सीजनल नेता हैं और ऊपर से थोपे गए हैं। तकरीबन सभी दल इस कीचड़ में सने हैं। दलबदलुओं की बम बम। न दलों को परहेज न नेताओं को संकोच।क्षेत्र, प्रत्याशी, कार्यकर्ता तीनों एक दूसरे से अपरिचित हैं। इटावा के एक प्रमुख पदाधिकारी का नाम अभी तक वहां के एक प्रत्याशी को याद नहीं हो सका है। पिछले दस दिनों तक रोज याद करते और रोज भूलते रहे।ज्यादातर सीटों पर अपरिचय की गहरी खाई मुसीबत है। समय रहते इसे पाट पाना किसी चुनौती से कम नहीं है। वोटरों के बीच एक अजीब सी शांति है। माहौल में एक से एक दिलचस्प नारे तैर रहे हैं। भाजपा का प्रमुख नारा है – तीसरी बार मोदी सरकार, अबकी बार चार सौ पार। उधर, कांग्रेस का नारा है- संविधान बचाओ। ‘अस्सी बनेगा आधार, एनडीए करेगा चार सौ पार’ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तरफ से यह नारा तेजी से उछाला जा रहा है। एनडीए ने 2014 में 71 सीटों पर विजय प्राप्त की थी जबकि 2019 के चुनाव में यह सीट घटकर 62 हो गई थी। इस बार चुनाव में 80 में 75 सीटों को जीतने का ऐलान भाजपा बार बार कर रही है। सियासी ‘पंडितों ‘ का मानना है कि राज्य में कम से कम 35 सीटें ऐसी हैं जिन पर भाजपा का विपक्ष से कड़ा मुकाबला दिख रहा है। अंबेडकर नगर, श्रावस्ती, बस्ती, श्रावस्ती, लालगंज, घोसी, गाजीपुर, आजमगढ़, जौनपुर, बलिया, गोंडा, महाराजगंज, प्रतापगढ़, रायबरेली और अमेठी आदि ऐसी सीटें हैं जहां भाजपा को तगड़े संघर्ष से जूझना पड़ रहा है। यूं तो सीधे तौर पर एनडीए और इंडी के बीच टक्कर है, पर कई सीटों पर प्रत्याशियों का वजूद भी मायने रखता है। कई सीटें ऐसी भी हैं, जहां स्थानीय मसले महत्त्वपूर्ण बने हैं। कई सीटों पर प्रत्याशियों को लेकर भी नाराजगी है। कई सीटों पर पैराशूट प्रत्याशी बड़ा फैक्टर है। सूत्र बताते हैं कि पूर्वांचल की कई सीटों पर ऊपर से सीधे थोप दिए गए प्रत्याशियों को पार्टी कार्यकर्ता पचा नहीं पा रहे हैं। अचानक मैदान में उतारे गए प्रत्याशी कई हफ्ते बाद भी एडजस्ट नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे प्रत्याशियों को लेकर बड़ी संख्या में कार्यकर्ता – समर्थकों में असंतोष ही नहीं बल्कि निष्क्रियता बनी है। चर्चा छिड़ने पर कानपुर के छात्र राहुल पाण्डेय, किराना स्टोर संचालक उदय शुक्ला, शोध छात्रा प्रिया सिंह, उन्नाव के रघुवीर यादव व्यंग्यात्मक लहजे में कहते हैं – यह बदलते राजनीति की तासीर है कि भाजपा में ज्यादातर लोकसभा सीटों पर कार्यकर्ताओं के साथ प्रत्याशी की अब परिचय बैठक होने लगी है।
कांग्रेस के राहुल गांधी और सपा मुखिया अखिलेश यादव की जोड़ी अपना कमाल दिखाने को तैयार है। तैयारी की गंभीरता का इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि सपा को बारह सीटों पर दुबारा प्रत्याशी बदलने पड़े।
सपा के कभी राष्ट्रीय महासचिव व बड़बोले नेता स्वामी प्रसाद मौर्य सपा से छिटके तो अखिलेश यादव ने बाबू सिंह कुशवाहा को साथ लेकर नुकसान की भरपाई पूरा करने की कोशिश की। अंदरखाने में चल रही नई चर्चा का जिक्र करें तो इंडी गठबंधन में सपा – कांग्रेस के बीच बहुत अच्छा नहीं चल रहा। आठ सीटों पर चुनाव गुजर गया। 17 अप्रैल को प्रथम चरण का प्रचार खत्म होने के बाद तक कांग्रेस के किसी दिग्गज नेता ने राज्य का दौरा तक नहीं किया। पश्चिम उत्तर प्रदेश की आठ सीटों पर चुनाव भी बीत गया। इसमें सहारनपुर सीट से कांग्रेस प्रत्याशी मैदान में अकेला ही जूझता रहा। सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा से लेकर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे में किसी ने भी उत्तर प्रदेश की तरफ रुख तक नहीं किया। चर्चा रही कि कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश चुनाव सहयोगी दल सपा के जिम्मे छोड़ रखा है। चर्चा छिड़ने पर वरिष्ठ पत्रकार बृजेंद्र प्रताप सिंह कहते हैं- ‘पिछले चुनाव में महज एक सीट जीत पाने वाली कांग्रेस इस बार उत्तर प्रदेश के बजाय दक्षिण राज्य में ज्यादा फोकस कर रही है।’
पिद्दी साबित हुए कई बयानवीर :
दर्जनों बयानवीर पैदल कर दिए गए हैं। जहरीले बयानों के लिए मशहूर स्वामी प्रसाद मौर्य के कई बयान पिछले दिनों विवादास्पद रहे। स्वामी प्रसाद मौर्य का एक सार्वजनिक बयान यह भी रहा – हिंदू धर्म नहीं धोखा है। इससे सपा तक असहज हुई। सपा ने बाहर का रास्ता दिखाया। स्वामी प्रसाद ने अलग पार्टी बनाई। हाल ये रहा कि गठबंधन में इनको एक अदद सीट के लिए गिड़गिड़ाना पड़ा। बदायूं से सांसद रही पुत्री संघमित्रा का टिकट भी भाजपा ने काट दिया। कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत पर अभद्र टिप्पणी की तो कांग्रेस ने उनका भी महराजगंज से टिकट काट दिया। बयानवीरों में एक प्रमुख नेता रहे वरुण गांधी को भी भाजपा ने टिकट नहीं दिया। पीलीभीत सीट पर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की बहू मेनका गांधी और पोते वरुण गांधी तीस साल से बतौर भाजपा सांसद लगातार जमे रहे।
लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार अंशुमान शुक्ला बताते हैं कि 27 लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जहां हार – जीत का फैसला मुस्लिम वोटर किया करते हैं।
कुछ सीटों पर सिमटी कांग्रेस, बसपा बनी वोटकटवा :
कभी कई दशक तक देश में पूरी हनक और धमक के साथ सत्ता का परचम लहराने वाली कांग्रेस को इस बार महज दहाई सीटों पर ही प्रत्याशियों को उतारने का मौका मिला। वो भी अकेले लड़ने के बजाय दूसरे दलों के साथ गठबंधन की मजबूरी बनी। इसी प्रकार कई बार सत्ता संभालने वाली बसपा इस बार चुनाव में एकला चलो की नीति अपनाए हुए वोट कटवा की भूमिका में नजर आ रही है। फिलहाल, चुनाव नतीजे आने में अभी लंबा वक्त है, किसके सिर पर सत्ता का ताज होगा, यह तो भविष्य तय करेगा पर एक बात जो साफ दिख रही है वो ये कि 18 वीं लोकसभा चुनाव इस बार कई नई तासीर के साथ सामने है इसका अंत भी कुछ अलग और खास होगा।