लॉकडाउन और अर्थव्यवस्था
- अरुण कुमार
- पुनर्लेखन एवं संक्षेपण : मृत्युंजय
जब लोगों का काम पर जाना लगभग बन्द हो, कल-कारखाने और दफ्तर ठप्प हों और सिर्फ आवश्यक उत्पादन की इजाजत हो तो ऐसे लॉक डाउन में अर्थव्यवस्था कैसे काम करती है?
भारत में चार तरह की उत्पादन इकाइयाँ हैं: बड़ी, मझौली,छोटी और कुटीर। इन उत्पादन इकाइयों को चलाने के लिए दो तरह की पूँजी चाहिए होती है। एक स्थायी पूँजी दूसरी चलायमान पूँजी।
स्थायी पूँजी से जमीन, मशीनरी तथा कारखाने की स्थापना की जाती है। चलायमान पूँजी से कच्चा माल, वेतन एवं मजूरी तथा अन्य व्यवस्था की जाती है। अन्य व्यवस्था मतलब बिजली खर्च, ट्रांसपोर्टेशन का खर्च और ऐसे खर्च जो नियमित करने पड़ते हैं। स्पष्ट है कि उत्पादन इकाइयों के आकार के अनुकूल ही पूँजी की जरूरत पड़ती है। बड़ी के लिए बड़ी, मझौली के लिए उससे कम और कुटीर के लिए और भी कम।
पूँजी की व्यवस्था के बाद और तीन चीजों की जरूरत पड़ती है। पहली : कच्चा माल ; दूसरी : श्रमिक और तीसरी जरूरत होती है माँग। सबसे अधिक पूँजी कच्चे माल में लगती है। कारखाने के मालिकों की यह स्वाभाविक रणनीति होती है कि कच्चे माल का जरूरत से ज्यादा स्टाक न किया जाए। उनकी रणनीति होती है जितनी जरूरत उतना ही स्टाक। स्टाक करने से उत्पादन का लागत बढ़ता है।
अब यह समझना है कि लागत कैसे बढ़ती है। चलायमान पूँजी की व्यवस्था की जाती है ऋण से। ऋण मिलता है बैंकों से या फिर ऐसे ही किसी वित्तीय संस्थानों से या साहूकारों से। उत्पादन इकाइयों को ऐसे ऋण पर ब्याज चुकाना पड़ता है। अगर कच्चे माल का स्टाक अधिक किया जाएगा तो ब्याज अधिक चुकाना पड़ेगा। ऐसे लागत बढ़ जाती है। ऐसे उत्पादन इकाई जो कच्चे माल की व्यवस्था दैनिक जरूरतों के हिसाब से बिलकुल समय पर करती है, उन्हें सक्षम माना जाता है।
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अक्सर उत्पादन इकाई एक दिन से अधिक का कच्चा माल अपने स्टाक में रखती है। ताकि विपरीत परिस्थितियों में भी उत्पादन होता रहे। अब चूँकि लॉक डाउन है श्रमिक कारखाने तक नहीं पहुँच सकते हैं, उत्पादन नहीं हो सकता। चूँकि लॉकडाउन है उत्पादन को बाजार तक पहुँचाने के लिए ट्रांसपोर्टर नहीं हैं। इसकी वजह से, कच्चा माल तथा बना हुआ माल फैक्ट्री के गोदाम में ही पड़ा रह जाता है। वर्किंग कैपिटल ब्लॉक हो जाता है और उस पर ब्याज बढ़ता जाता है। इस वजह से धन्धे को नुकसान उठाना पड़ता है।
चूँकि लॉक डाउन है बाजार बन्द है, माँग नहीं है। यानी कुल मिलाकर कर उत्पादन बन्द है या उत्पादन न करने की बाध्यता है। लॉकडाउन की स्थिति में केवल नितान्त अनिवार्य चीजों का उत्पादन हो रहा है। मसलन खाद्य पदार्थ, दूध, पानी, बिजली, दवाइयाँ या और भी कुछ ऐसी ही चीजें। इन्हीं चीजों की माँग भी है। बाकी की माँगें नीचे गिरी हैं।
अब समझते हैं कि माँगें नीचे क्यों गिरी हैं और माँग गिर जाने का मतलब क्या होता है? मुख्य बात है बिक्री। बिक्री से ही होती है कमाई। कारखाने का मालिक कमाता है। मजदूर और कर्मचारी कमाते हैं। बैंकों और वित्तीय संस्थानों को ब्याज मिलते हैं और सरकारों को टैक्स। बिक्री बन्द यानी सभी की आमदनी बन्द। आमदनी बन्द यानी खरीदने की क्षमता कम। बाजार में खरीदने की क्षमता नहीं मतलब उत्पादन के लिए उत्साह नहीं। उत्पादन बन्द।
एक बात पर और गौर करें। आज की अर्थव्यवस्था में कोई भी देश, यहाँ तक कि बड़ी अर्थव्यवस्था भी, आत्मनिर्भर नहीं है। सभी देशों को आयात पर निर्भर करना पड़ता है। यहाँ तक कि ऐसी चीजें भी आयात करनी पड़ती हैं, जिनसे उत्पादन का पहिया चलता रह सके। अब नजर डालिए उत्पादन व्यवस्था पर। उत्पादन व्यवस्था ऐसी बनी है जिसमें उत्पादन का केन्द्र बना है चीन। यह है भौगोलिक केन्द्रीकरण। चीन में लॉकडाउन हुआ तो उत्पादन बन्द हो गया। चीन में उत्पादन बन्द होने का मायने यह हुआ कि विश्व की सप्लाई चेन भंग हो गयी। विश्व सप्लाई चेन टूटने का एक अर्थ यह हुआ कि बाकी सारे देशों का उत्पादन प्रभावित हुआ।
उत्पादन बन्द होने का अर्थ क्या होता है ? अर्थ यह होता है कि बैंकों को या वित्तीय संस्थानों को ब्याज पूरी तरह नहीं मिलेगा और कोई नया ऋण लेने नहीं आएगा। यह एक स्थिति है दूसरी स्थिति यह है कि चूँकि बाजार की सभी गतिविधियाँ बन्द हैं, बाजार में सक्रिय सभी लोगों की आय बन्द है। आय बन्द है लेकिन खर्च बन्द नहीं हैं। जिनके पास बचत हैं वे वहाँ से खर्च कर रहे हैं। जैसा कि अवकाश प्राप्त लोग करते हैं।
लॉकडाउन में अभी अभी बेरोजगार हुए लोग देर सबेर करने लगेंगे। अगर बचत बैंक में रखा हुआ है तो बैंक से पैसे निकल रहे हैं। बैंक से पैसे का निकलते जाना और नये पैसे का नहीं आना अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है। कुल मिला कर निवेश और आय का अवसर समाप्त हो जाता है। इसे ही कहते हैं अर्थव्यवस्था का ठप्प हो जाना। लॉकडाउन में ऐसी ही स्थिति बनी है।
अर्थव्यवस्था के ठप्प होने का अर्थ होता है आय के स्रोत का सूखना। वे जो छोटे और कुटीर उद्योग में लगे थे, लॉकडाउन की वजह से उनकी पूँजी और बचत दोनों ही जल्दी ही खत्म हो जाएँगे। आमतौर पर कुटीर उद्योग वालों और मजदूरों के पास कोई बचत नहीं होती। बचत वही होती है जो खर्च के बाद बचता है। हाशिये पर रहने वाले इस समुदाय के लोगों की जरूरतें भी ठीक से पूरी नहीं होती। यह असमानता को पोसने वाली अर्थव्यवस्था का परिणाम है।
भारत की अर्थव्यवस्था मार्च 2020 के पहले भी अच्छी स्थिति में नहीं थी। दबाव में थी। अब उसका भट्टा बैठ गया है। व्यापार व्यवसाय उजड़ चुके हैं। ऐसी कम्पनियाँ जो पैसा लगाने का धन्धा करती हैं, वे पहले डूबेंगी। बहुत सारी वित्तीय संस्थान हवा हो सकती हैं। हालाँकि सरकार ने तीन महीने तक ब्याज न देने की मोहलत दी है, लेकिन यह सीमित अर्थ में ही सहयोगी है। इतने भर से काम नहीं चलेगा क्योंकि उत्पादन और कमाई दोनों बन्द हैं। इनका फिर से सम्हलना मुश्किल है।
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कृषि उत्पाद और मछली आदि का व्यवसाय अवश्य चलता रहेगा, मगर इनके सही दाम नहीं मिलेंगे। क्योंकि माँग कम होगी। यह पहले नोटबन्दी के दौरान भी देखा गया था। चूँकि सामान शहरों में नहीं आ रहा है,तो शहरी उपभोक्ताओं को जरूरत की चीजें मंहगी मिलेंगी। दूसरी तरफ गैर जरूरी चीजों की माँग कम से कम रहेगी। स्थिति को सुधारा जा सकता है रोजगार देकर और कमाई के अवसर बना कर।
उत्पादन बन्द। बिक्री बन्द। कमाई बन्द सभी की, तो सरकार की आमदनी में भरी कटौती होगी। इतनी कटौती कि सरकार अपने जरूरी खर्चों को भी पूरा न कर सके। इस स्थिति से उबरने के लिए सरकार को ऐसे राहत पैकेज लाने होंगे, जिनसे छोटे और कुटीर उद्योग को बचाया जा सके। गरीबों को खाना उपलब्ध हो सके स्वास्थ्य की सुविधा को बड़े पैमाने पर बढ़ाया जा सके तथा जो वापस गाँव जाना चाहें उनको वापस जाने की सुविधा प्रदान की जा सके। इसको एक ‘सरवाईवल पैकेज’ कहा जा सकता है।
इसके अलावा सरकार के पास और किसी चीज के लिए साधन नहीं होगा। बड़ी उत्पादन इकाइयाँ अपनी बचत से कुछ दिनों तक अपने संकट को कम कर सकती हैं। इसके साथ साथ यह भी अनिवार्य होगा कि लॉकडाउन के बाद समाज के लिए ऐसी अर्थव्यवस्था बनाई जाए जो समाज की विसंगतियों को समाप्त करे। नयी परिस्थिति में नयी सोच की जरूरत है।
लेखक जेएनयू के पूर्व प्राध्यापक एवं प्रसिद्द अर्थशास्त्री हैं।
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