चर्चा में

कंगना राणावत के सोच की जानिब से

 

मशहूर अभिनेत्री कंगना राणावत के बयान यूँ तो अक्सर आते रहते हैं, जिनके लिए वे काफ़ी विख्यात व कभी-कभार कुख्यात भी हैं…लेकिन बिना किसी का नाम लिए वॉलीवुड के हवाले से आया उनका बयान सामाजिक संदर्भों में काफ़ी मानीखेज है।

कंगना ने कहा है कि जहां अमीर व समर्थ पुरुषों द्वारा अपने से कम उम्र की कमसिन-सुंदर लड़कियों से शादी रचाने की परम्परा रही है और जहां अपने से अधिक योग्य व सफल स्त्री को पुरुष स्वीकार नहीं करता रहा है…बल्कि एक उम्र के बाद तो स्त्री की शादी ही नहीं होती रही थी, वहीं आज सिने जगत की कई सफल अभिनेत्रियाँ अपने से काफ़ी कम उम्र के लड़कों से शादी करके लिंग (जेंडर) आधारित ऐसी रूढ़िवादी धारणाओँ को तोड़ रही हैं।

इशारे जिनकी तरफ़ हैं, काफ़ी स्पष्ट है – दो तो हर आम-ओ-ख़ास की ज़ेहन में मौजूद हैं -एक को कुछ साल हो गये हैं और दूसरा अभी हाल-फ़िलहाल में सम्पन्न होने के लिए तैयार है। लेकिन बात नाम व संख्या की नहीं है, प्रवृत्ति की है, चलन (ट्रेंड्स) की है।

कंगना की बात में जो इतिहास के चलनों के उल्लेख हैं, बिलकुल सही हैं। वे इतिहास ही नहीं रहे, आज भी शत-प्रतिशत मौजूद हैं और बड़े व सम्भ्रांत लोगों में ही नहीं, आम जीवन में बहुसंख्यक रूप में छाये हुए हैं। अभी एक सप्ताह पहले की बात है कि मेरी एक पोती की शादी सारी पसंदगी के बावजूद इसलिए तय नहीं हुई कि जब सर्टीफिकेट सामने आयी, तो यह उस लड़के से तीन महीने बड़ी निकली। यह मामला सिर्फ़ पुरुषवादी मानसिक जड़ता का है – वह मर्द चाहे किसी काम का न हो, पर इस मामले में उसका पुल्लिंग होना ही काफ़ी है। और यह वॉलीवुड में भी जो हो रहा है, वह वहाँ भी अभी आम नहीं, अपवाद ही है। लेकिन इसकी इस रूप में चर्चा व प्रचार होना चाहिए, जिस तरह कंगना ने शुरू किया है। और वॉलीवुड के फ़ैशन… आदि तमाम आकर्षणों को नक़ल की तरह ही सही, जीवन में उतारने का जो चलन है – ख़ासकर किशोर-युवा पीढ़ी में, उसी तरह यदि ऐसी धारणाएँ भी अपनी जड़ताओं को तोड़कर उतरें – अमल में लानी शुरू हो जाएँ, तो फिर क्या बात है…!! इसलिए ऐसी चर्चा को इस कोण से शुरू करने के लिए कंगना राणावत को शाबाशी देनी ही चाहिए और इसे आगे भी बढ़ाना चाहिए, क्योंकि अच्छी व उपयोगी बात कहीं से भी आये, माननी और ग्रहण होनी चाहिए – पुराणों में तो इसे विष में भी मिले हुए अमृत की तरह ग्राह्य बताया है – विषादमपि अमृतं ग्राह्यं।

अब कंगना की बात में निहित एक और पक्ष पर भी सोचना होगा…। मोहतरमा के अनुसार इस धारणा को समर्थ लड़कियाँ तोड़ रही हैं, लेकिन सच यह है कि वस्तुतः लड़के तोड़ रहे हैं। अभी इस बात पर पत्नी कल्पनाजी ने मुझसे बहस कर ली। वे इसे मेरा पुरुष जाति के प्रति पक्षपात कह रही हैं…। लेकिन मेरा तर्क है कि विक्की कौशल जनता के बीच से चयनित रूप में पिछले साल का सर्वाधिक चहेता युवा रहा है। उसे एक से एक हम-उम्र व सुंदर तथा उससे भी युवा (यंगर) लड़कियाँ मिल सकती थीं। ऐसे में उम्र…आदि बनी-बनायी रूढ़िगत मान्यताओं को यह युवक तोड़कर अपने से बड़ी उम्र की महिला से व्याह रचा रहा है। यही हाल प्रियंका-पति निक जोंस का भी है। ऐसा संतुलित-सुलझा व रूढ़िमुक्त सोच वाला लड़का मिले, तो कौन लड़की न ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकारकरे!! सो, इन सम्बंधों में रूढ़ियाँ यदि टूट रही हैं, तो श्रेय लड़के को जाता है, क्योंकि यह अभिशाप मर्दवादी सोच का है। न यहाँ औरत कर्त्ता रही है, न कोई औरतवाद कारण रहा है। वह तो तब भी भोक्ता थी, अब भी सहर्ष स्वीकार करने वाली है, जो उसकी हेठी भी नहीं, शान ही है।

प्रसंगत: कह दूँ की पिछली शताब्दी के छठें दशक के अंत या सातवें के आरंभिक वर्षों में लिखे गये उषा प्रियंवदा के उपन्यास ‘पचपन खम्भे लाल दीवारें’ का नायक नील भी नायिका सुषमा से ६-७ सालों छोटा था, लेकिन उषाजी का सोच उस काल में भी इतना प्रगत था कि उनका नील अपने से इतनी बड़ी लड़की के साथ शादी के लिए तैयार था। यह दूसरी बात है कि वह शादी न हो सकी, जिसका कारण सुषमा की अपनी घरेलू समस्याओं में निहित था।   

लेकिन ये उदाहरण इन औरत-मर्द के विमर्शों व मर्दवादी सामंती मानसिकता…आदि के हैं ही नहीं। न ही ऐसा कुछ सिद्ध करने या कोई चल चलाने (ट्रेंड बनाने) की गरज से हो रहे हैं। ये  तो इन सब लटकों से मुक्त हैं। विशुद्ध रूप से एक दूसरे के प्रति दिली चाहतों के सहज परिणाम हैं। मामला प्रेम का है, जो सब कुछ से ऊपर होता है – सारे रीति-रिवाजों से, धन-दौलत से, बड़े-छोटे…आदि सब कुछ से परे होता है। यही नील का भी था। इस मुक़ाम पर तो और किसी चलन की, किसी गरज-गुरेज़ की दरकार ही नहीं रह जाती। लेकिन आज इस मूल प्रक्रिया के भीतर ये रूढ़ियाँ व मर्दवादी वर्जनाएँ…स्वत: टूट रही हैं…। यह टूटना उसमें आपोआप अनजाने ही समाहित है। विमर्श की भाषा में कहें, तो इसमें इन सब दुनियादारियों का ख़त्म होना इस प्रेममय जीवनरूपी सृजन का गौण उत्पादन (बाइ प्रोडक्ट) है।

अत: इस अंदरूनी प्रक्रिया को, गौण उत्पादन को इस रूप में सामने लाकर उसे समाज की जड़ धारणाओं को तोड़ने के साधन के रूप में खड़ा कर देना, समाज की प्रगति के साथ जोड़ देना इसका बहुत कारगर पक्ष है, जो कंगना राणावत ने किया है या उनसे हो गया है। और इसके लिए हमें उनका इस्तक़बाल करना ही होगा…।

इसमें निहित ऐसे गौण उत्पादन (यौन पावित्र्य…आदि के) और भी बहुत हैं…, पर यहाँ उतना ही, जितने का उल्लेख कंगना के वक्तव्य में हुआ है। बाक़ी फिर कभी…।

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सत्यदेव त्रिपाठी

लेखक काशी विद्यापीठ के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं। सम्पर्क +919422077006, satyadevtripathi@gmail.com
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