पुस्तक-समीक्षा

खाकी में इंसान : पुलिस ‘वाला’ / ठुल्ला से पुलिसकर्मी कहने का संदेश देती आत्मकथा

 

अगर आप ऐसी किसी ख़ालिस किताब के बारे में सोच रहे हैं जो आपको साहित्यिक पाठ पढ़ाए या आपकी राजनीतिक विचारधारा को बदले तो आप ग़लत जगह हैं। सड़क में आप कई बार खाकी की तरफ से खुद को रोके जाने पर उससे भिड़े होंगे। नाटकों में बिन दाढ़ी बनाए इन्स्पेक्टर के ‘सिपाही साहब के लिए कुर्सी लगाओ’ आदेश पर खुद को वही इंस्पेक्टर समझ इतराए होंगे या अस्त व्यस्त वर्दी पहने फ़िल्मी आईपीएस के दो कारों के बीच टांग फ़ैलाने से खुद को रुबिनहुड या दबंग समझे होंगे पर सच यह है कि आप वास्तविकता को नही जानते।

उत्तराखण्ड पुलिस के डीजीपी की पहली किताब जो उनकी डायरी से निकले अनुभवों से बनी आत्मकथा के रूप में है , आपको मेरी तरह सात से आठ घण्टे लगातार बांधे रह सकती है। जिसके लिए अशोक कुमार कहते हैं कि इसे लिखने के लिए उन्हें वी•सी•गोयल की पुस्तक ‘द पॉवर ऑफ इथिकल पुलिसिंग’ से प्रेरणा मिली और इस पुस्तक को सजाने के लिए वह हिंदी के प्रसिद्ध लेखक लक्ष्मण सिंह बटरोही को धन्यवाद देते हैं।

यह ऐसी किताब है जिस पर वास्तविक हालातों को दिखाते हुए ‘दबंग’ से ज्यादा हिट हिंदी फिल्म बनाई जा सकती है। गांव से आईआईटी का सफ़र करने वाले अशोक के मन में भारत के अमीर-गरीब की दूरी को पाटने का एक ही समाधान सिविल सर्विसेज था और वह उससे जुड़ गए। किताब में लेखक ने अपनी इसी नौकरी के अब तक मिले अनुभव को सोलह भागों में बांटा। वह अपनी नौकरी के शुरुआती दिनों में आई मुश्किलों से आगे बढ़ते धीरे-धीरे खुद को समाजहित में समर्पित कर देते हैं।

हर पाठ की शुरुआत किसी मशहूर कविता, गद्य काव्य या लेखक की डायरी में लिखी कुछ पंक्तियों से की गयी है जो यह स्पष्ट कर देती हैं कि आने वाला पाठ किस ओर रुख मोड़ेगा, उदाहरण के तौर पर भूमाफियाओं पर तंज कसने के लिए टॉलस्टॉय की कहानी के किरदार पाहोम के लिए इस्तेमाल की गयी पंक्ति।

पहले ही पाठ में लेखक अपने ही सिस्टम से लड़ते पीड़ित को जिस तरह न्याय दिलाते हैं वह अन्य युवा अधिकारियों के लिए भी उदाहरण है। आगे लेखक पुलिस के अंदर अंग्रेज़ी शासन के प्रभाव और एक आम आदमी को साहेब बना देने पर भी चर्चा करते हैं। ट्रेनिंग में किताबों से वास्तविक परिस्थितियों से परिचय कराता सफ़र लेखक को बहुत कुछ सिखाता है और वह उसे जनता को भी समझाना चाहते हैं, जैसे रजिस्टर नम्बर आठ का वर्णन।

कहीं-कहीं तो बैलों की जगह जुता हाड़मांस का पिंजर इंसान’ जैसी पंक्तियां साहित्यिक तो वहीं आम बोलचाल की भाषा को जस को तस लिखी ‘यदि अधिकारी बनकर तने रहोगे तो जिंदगी पर कुछ नही सीख पाओगे’ पंक्ति दिल को छू जाती हैं।

अपहृत की स्थिति बताने के प्रयोग की गयी पंक्ति ‘पानी की कमी से उनके होठों पर पपड़ियां जम गयी थी और उनके चेहरे पर मौत का खौफ़ साफ़ झलक रहा था’ अपहृत की स्थिति का वास्तविक चित्रण करती है।

महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों की बहुत सी घटनाओं पर लिखा गया है और साथ ही उसमें प्रयोग की जाने वाली धाराओं से परिचय भी कराया गया है। पंचायत के फरमान पर सोलह लोगों द्वारा महिला से किए गए सामूहिक बलात्कार की घटना हमारे समाज में आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी हो रही तालिबानी हुकूमत को दिखाती हैं। छोटी लड़की के साथ हुए घृणित कार्य वाले किस्से में समाज में रक्तदान को लेकर व्याप्त भ्रांतियों को भी दूर करते सामाजिक सन्देश देने की कोशिश भी की गयी है।

वर्तमान पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में तीन दशक पूर्व शुरू हुए आतंकवाद को ख़त्म करने के अपने अनुभवों को याद करते लेखक बताते हैं कि जनता और पुलिस एक दूसरे के सहयोग बिना अधूरी है। आतंकियों के परिवार या आतंक का रास्ता छोड़ चुके इंसान पर पुलिस की तलाशी का क्या फ़र्क पड़ता है और खुद पुलिस तब क्या सोचती है यह आप क़िताब पड़ जान सकेंगे। साथ ही आतंकवादी रह चुके आदमी से मिलते समय उसके और उसके परिवार के बीच पैदा हुआ खौफ़ लेखक को अपने शहीद पुलिस अधिकारी के परिवार की याद दिलाता है, यह वृतांत भावुक करता है।

हरिद्वार हो या मथुरा की कहानी लेखक अपने अनुभवों को जिस तरह लिखते हैं वह रोचकता तो बनाए ही रखते हैं साथ ही समाज में पुलिस की भूमिका को भी स्पष्ट करते हैं। इन अनुभवों को पढ़ते ही क़िताब आगे बढ़ती है और पाठकों को बांधे रखती है। किसी भी नए पाठ, विषय या घटना को शुरू करने से पहले लेखक ने उसकी पृष्टभूमि भी भलीभांति समझाई है।

‘सड़क पर पड़ रही डकैती’ खबर का इस्तेमाल जस का तस करना लेखक की वर्तमान व्यवस्था पर चोट पहुंचाने की कला है। साहब और सन्तरी के बीच की दूरी कविता से शुरु हुआ अंतिम पाठ पुलिस और समाज के सम्बंध को पूरी तरह से हमारे सामने रख देता है।अक्सर पुलिस के भ्र्ष्टाचारी कहलाने पर पर वह पुलिस का पक्ष रखते हैं जो प्रभावित करता है। ठुल्ला, निठल्ला जैसे तंज सुनते रहने का वह पुलिस की कठिन ड्यूटियों का हवाला देते जवाब देते हैं तो पुलिस पर पड़ रहे राजनीतिक प्रभावों पर भी पूरी तरह से स्थिति स्पष्ट कर देते हैं।

किताब का उद्देश्य कि आम आदमी पुलिस के अंदर झांक उसके बारे में सब समझ सके भी अब पूरा हो जाता है। यह किताब आपको रह रहकर बिकरु कांड की याद दिलाएगी तो अपने थाने चौकियों में लगे चक्कर भी आपको याद आ जाएंगे। उस ख़ाकी में इंसान को जिसके पास कोई जाना नही चाहता पर उसकी जरूरत हर किसी को है जानने के लिए यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए।

पुस्तक- खाकी में इंसान
लेखक- अशोक कुमार ,साथ में लोकेश ओहरी
प्रकाशन- राजकमल पेपरबॉक्स
लिंक- amazon (यहाँ  क्लिक करें)
मूल्य-199
रेटिंग- 4/5

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हिमांशु जोशी

लेखक उत्तराखण्ड से हैं और पत्रकारिता के शोध छात्र हैं। सम्पर्क +919720897941, himanshu28may@gmail.com
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