अंग्रेजों की धर्म व जाति संबंधी समझ से टकराने का नाम है कन्हैया
अंग्रेजों ने भारत पर राज करने के लिए दो श्रेणियों का जमकर इस्तेमाल किया। पहला धर्म, दूसरा जाति। भारतीय समाज की व्याख्या इन्हीं दोनों आधारों पर की गयी। 1857 के बाद तो भारतीय समाज में मौजूद दरारों को अंग्रेजों ने चौड़ा करने में विशेष दिलचस्पी दिखलाई। अंग्रेज कहा करते थे कि भारत में हिन्दू व मुसलमान दोनों धर्म आपस में लड़ते रहते हैं, दोनों एक दूसरे के खिलाफ हैं फलतः उनका यहाँ रहना आवश्यक है। इसी से उनकी यहाँ मौजूदगी को वैधता प्राप्त होती रही है। द्विराष्ट्रवाद के आर.एस.एस के सिद्धांत की जड़ अंग्रेजों की यही औपनिवेशिक समझ थी कि हिन्दू व मुसलमान दोनों भिन्न-भिन्न हैं कोई तीसरी ताकत ही भारत को बाँध सकती है। ठीक उसी तरह अंग्रेज कहा करते कि भारत विभिन्न जातियों में बॅंटा हुआ है। ये जातियाँ आपस में कभी नहीं मिल सकतीं। दलितों पर सवर्ण तो हजारों सालों से उत्पीड़न करते आ रहे हैं। जितने भी अंग्रेज प्रमुख थे उनके साथ सलाहकार ब्राह्मण थे। इन लोगों ने भारतीय समाज विशेषकर बिहार-उत्तरप्रदेश की ब्राह्मणवादी व्याख्या प्रस्तुत की। जाति की औपनिवेशिक समझ ये है कि ‘जाति’ हजारों वर्षों से एक जड़, ठहरी हुई, रूढ़ ईकाई है जिसमें हजारों वर्षों से कोई परिवर्तन नहीं होता। 1857 के बाद अंग्रेजों ने दलितों को थोड़ी सहूलियतें भी दी जिससे उन्हें फायदा भी हुआ। 1860 में बने भारतीय दंड संहिता सहित दीवानी व फौजदारी कानूनों से दलितों को थोड़ी सहूलियतें मिली। भारतीय समाज के जातीय विभाजनों का औपनिवेशिक शासन के पक्ष में इस्तेमाल करने का ये पहला प्रयास था। जातीय तनावों को चौड़ा करने के लिए अंग्रेजों द्वारा 1871 से प्रारंभ हुए जाति आधारित जनगणना को भी इसी रौषनी देखा जा सकता है। इस जनगणना ने विभिन्न जातियों के मध्य आपसी प्रतिस्पर्धा व प्रतियागिता को काफी बढ़ाया। इसके पीछे अंग्रेजों की सोच थी कि इन विभाजनों के बने रहने से ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ कोई एकताबद्ध चुनौती न मिल सके। अंतिम जातीय जनगणना रिपोर्ट 1931 में आयी।
जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे कट्टर व कुख्यात औपनिवेशिक विचारकों ने अपनी किताब ‘‘ ऑन लिबर्टी’ में भारतीय सुधारकों के मध्य इस विचार को काफी फैलाया कि ‘‘सामाजिक अत्याचार कई बार राजनीतिक गुलामी से कहीं ज्यादा दमनकारी होते हैं।’’ इसका खासा प्रभाव हमारे विचारकों पर पड़ा। फूले वगैरह के लेखन में भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है। लेकिन साम्राज्यवाद विरोधी असहयोग आन्दोलन ने भारत में जाति-धर्म की दीवारों को, पार करते हुए राजनीति को केंद्र में ला दिया। यह संयोग नहीं है कि असहयोग आन्दोलन के बाद यानी 1921 के सामाजिक प्रश्नों पर अधिक ध्यान देने वाली किताब ‘गुलामगिरि’, (इसके व्यापक महत्व के बावजूद) की बिक्री काफी घट गयी थी।
भारत के स्वाधीनता आन्दोलन को भी 1931 के बाद ही आवेग मिला। भगत सिंह की फांसी, किसान आन्दोलन, मजदूर आन्दोलन, कम्युनिस्ट आन्दोलन आदि का सही ढ़ंग से विकास हो सका। स्वतंत्रता आन्दोलन, किसान आन्दोलन व वामपंथी आन्दोलन तीनों ने जाति व धर्म आधारित अंग्रेजों की औपनिवेशिक अवधारणा का मुकाबला कर ही अपना विकास कर सकी फलतः भारत को स्वाधीनता हासिल हुई। आंबेडकर के नेतृत्व में बना संविधान अंग्रेजों की जाति संबंधी औपनिवेशिक समझ को नकारता है और पहली बार सार्विक मताधिकार को स्वीकार करते हुए पिछड़ी व दलित जाति के वोट को उच्च जाति के वोट के बराबर मान्यता प्रदान करता है। भारत में संस्थागत असमानता के शिकार दलित जातियों के क्रांतिकारी दिशा में बढ़ा हुआ यह कदम था।
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आज बेगूसराय में लगभग फिर से वही पुरानी लड़ाई दुहराई जा रही है। स्वाधीनता आन्दोलन की घनीभूत अभिव्यक्ति संविधान में हुई। आज कन्हैया यदि संविधान बचाने की बात कर रहे हैं तो वे अंग्रेजों की उन्हीं औपनिवेशिक अवधारणाओं को चुनौती दे रहे हैं। बेगूसराय में भाजपा व राजद, धर्म व जाति की औपनिवेशिक अवधारणाओं रखने वालों का समकालीन चेहरा है।
निकटवर्ती उत्पीड़क तक सीमित क्यों है सामाजिक न्याय की लड़ाई आजकल अलग-अलग क्षेत्रों में मौजूद ताकतवर जाति को केन्द्रित कर विश्लेषण करने की प्रवृत्ति घर करने लगी है। जैसा कि कहा जाता है कि जाति व्यवस्था सोपानक्रम आधारित असमानता को वैधता प्रदान करने व्यवस्था है। ओ.बी.सी जातियाँ, सवर्णों के खिलाफ बोलती हैं, अतिपिछड़ी जातियाँ ओ.बी.सी. के खिलाफ उत्पीड़न का इल्जाम लगाते हैं, दलित सभी पिछड़ी-अतिपिछड़ी के खिलाफ उत्पीड़न का आरोप लगाते हैं, आदिवासी दलितों सहित सबों के खिलाफ रहते हैं। सभी जातियाँ, यदि राजनीति विज्ञानी के प्रख्यात चिंतक रणधीर सिंह के शब्दों में कहें, अपने ‘इमिडियेट औप्रेसर’ यानी अपनी निकटवर्ती उत्पीड़क के विरूद्ध रहा करती हैं। उत्तर आधुनिक विचारधारा यही करती है कि वो सिर्फ आपको अपने निकटवर्ती अत्याचारी से लड़ने वाली अस्मितावादी चौखटें में फॅंसा देती है। इसमें ढ़ांचे का प्रश्न, स्ट्रक्चर का सवाल खड़ा नहीं होता। दलित, पिछड़ों के खिलाफ रहते हैं, पिछड़े सवर्णों के विरूद्ध रहते हैं। ठीक है वो पिछड़ा या सवर्ण भी तो रोजगार के संकट से, महॅंगाई से, सत्ता के निरंकुश चेहरे से, पूंजीवादी के निर्मम शोषण से त्रस्त है। लेकिन उस पर कोई बात नहीं होती। इस अस्मितावादी विमर्श में सबसे सुरक्षित पूंजीवाद रहता है, शोषण का ढांचा रहता है, मुनाफे के तर्क पर, निजी संपत्ति पर कोई आंच नहीं आती।
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उत्तरआधुनिक चौखटें में चलने वाला यह अस्मितावादी विमर्श दरअसल गरीबों की, शोषितों की कोई व्यापक एका नहीं बनने देता, कोई मेगा नैरेटिव, मेगा डिस्कोर्स न बन पाए इसके लिए सतर्क रहता है। मेगा डिस्कोर्स के बदले माइक्रो डिस्कोर्स चलते रहें तो कोई हर्ज नहीं। शोषण की जो सोपानक्रमिक श्रृंखला है उसमें एक लिंक पर, एक श्रृंखला को एक्सपोज कर दिया जाता है यानी एक पहलू को मैग्निफाई करके देखा जाता है और ढ़ांचे का प्रश्न नजरों से ओझल हो जाता है। इससे सबसे सुरक्षित शासक वर्ग रहता है। सामाजिक न्याय के संघर्ष को उसके अस्मितावादी चौखटों में फॅंसा दो।
सत्ता में हिस्सेदारी वाला सामाजिक न्याय का मॉडल का मुख्य लक्ष्य सत्ताप्राप्ति है। सत्ता का चरित्र बदलने का प्रश्न कभी उठता ही नहीं। ‘पावर इज द मास्टर की’ यानी ‘सत्ता ही सबसे प्रमुख चाभी है’ सामाजिक न्याय का प्रधान दर्शन है। इस कारण सत्ता के पूंजीवादी-साम्राज्यवादी चरित्र कभी विमर्श का ही मुद्दा नहीं बनता।
फासिस्टों के स्टॉर्म ट्रुपर्स साबित हो रहे हैं दलित
आज भारत में फासिस्ट विचारधारा वाले लोग सत्ता में हैं। कई लोग मानते हैं कि हिन्दूस्तान में सांप्रदायिक फासीवाद का मुख्य स्रोत ब्राह्मणवाद है। लेकिन व्यवहार में देखा गया है कि फासिस्ट आन्दोलन जितना ब्राह्मणवाद से पैदा होता है उतना ही नीची जातियों की राजनीति से भी। कई मौकोंपर दोनों ने हाथ मिला लिया है। अन्यथा आज भारत में दलितों के सभी बड़े नेता ब्राह्मणवाद का सियासी नुमाइंदगी करने वाली भाजपा के साथ हैं। रामविलास पासवान, रामदास अठावले, उदित राय सभी। यहाँ तक कि उत्तरप्रदेश में मायावती खुद भाजपा से कई बार हाथ मिला चुकी है। ब्राह्मणवाद का दंष झेलने वाले अंततः उसी से हाथ मिला लेते हैं।
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ये सोचना गलत है कि सारी उत्पीड़ित जातियाँ मिलकर उत्पीड़क जातियों के खिलाफ या ब्राह्मणवाद के विरूद्ध उठकर खड़ी हो जायेंगी। अगर उन्हें खड़ा नहीं किया जाएगा तो ये कभी खड़ा नहीं हो पायेंगे क्योंकि उनके अपने अनुभव से ऐसी कोई बात नहीं निकलती। अत्याचार के अनुभव से सिर्फ बदला लेने की प्रवृत्ति पैदा होती है। लोग सोचते हैं कि जिन्होंने हम पर जुर्म किए हैं उन पर हम भी जुल्म कर सकते हैं। ऐसे लोगों को बड़ी आसानी से बरगलाया जा सकता है। मसलन भंगियों को भले सबसे नीचा समझते रहिए, उन पर जुल्म करते रहिए, उनका अपमान करते रहिए लेकिन उनका इस्तेमाल करने के लिए कोई कहानी सुना दीजिए कि मुसलमान तो ऐसे होते हैं, और आप तो वाल्मिकी हैं, रामायण तो तुमने ही लिखी है, और रामराज्य लाने के लिए मुसलमानों को मारना जरूरी है तो वो आपके भड़काने पर भड़क जायेंगे। साथ में उनकी थोड़ी-बहुत जरूरतें पूरी कर दीजिए, थोड़ा बहुत आधार दे दीजिए और थोड़ा गोलबंद कर मुसलमानों को मारने के लिए की दीजिए वे चल पड़ेंगे। गुजरात के 2002 के दंगों में ऐसा ही हुआ था।
ऐसा क्यों होता है? सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी चिंतक एजाज अहमद कहते हैं ‘‘फासिस्टों के जो ‘स्टॉर्म ट्रुपर्स’ थे वे हमेशा गरीब-गुरबों और समाज के दुत्कारे हुए लोग हुआ करते थे जिनका अपनी जिंदगी पर किसी प्रकार का अधिकार नहीं होता था। सिर्फ जिंदगी के बारे में जिनके अंदर बहुत गुस्सा होता है।’’ इन्हीं वजहों से एजाज अहमद आगे कहते हैं ‘‘ दलितों-आदिवासियों पर जो जुल्म हुए हैं उसका पूरा अहसास तो उन्हें कराना चाहिए लेकिन उन्हें रोमांटिसाइज नहीं करना चाहिए। उन्हें संगठित करने पर ध्यान देना चाहिए रोमांटिसाइज नहीं करना चाहिए।’’
बिहार में सामंतो की निजी सेना के नाम से कुख्यात ‘रणवीर सेना’ जब नरसंहार करने निकलती तो बेरहमी से कत्ल करने वाली नृशंस कार्रवाई के लिए दलितों को लगया जाता था। ये लोग स्टॉर्म ट्रुपर्स थे उनके लिए।
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सामूहिकता के चयन की स्वतंत्रता और आधुनिकता
आधुनिक समाज की पहचान है कि आप अपनी सामूहिक जिंदगी का खुद चुनाव करते हैं। आधुनिक समाज की सामूहिकता हमारा अपना चुनाव होता है। चयन की स्वतंत्रता होती है यहाँ। जैसे हम मजदूर संगठन में रहेंगे या किसान संगठन में रहेंगे कि छात्र या सांस्कृतिक संगठन में रहेंगे, ये हम खुद तय करते हैं। आधुनिक समाज की सामूहिकता की पहचान हैं ‘च्वायस ऑफ़ कलेक्टिविटी’। जबकि पुराने, पिछड़े प्रतिक्रियावादी और फासिस्टों के लिए प्रीगिवन है, पूर्वप्रदत्त है। सामाजिक न्याय का आन्दोलन का नेतृत्व भी इसी प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण का शिकार है। धर्म व जाति आधारित पहचान को विशेषकर दो-तीन दशकों से उभारा जा रहा है।
पिछड़े-दलितों में आयी विद्रोही चेतना को, उनके स्वर को वे सिर्फ जाति या कहें पूर्वप्रदत्त पहचान के दायरे में कैद रखना चाहता है। सत्ताधारी दलों को यह अपने बेहद अनुकूल लगता रहा है। इन्हीं वजहों से पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शक्तियां द्वारा प्राक् आधुनिक सामूहिक पहचानों- जाति, लिंग, धर्म, रंग- आधारित अध्ययन, विश्लेषण व संगठनों को तरजीह दी जाती है। यही वो वैचारिक साम्यता है जो सामाजिक न्याय की ताकतों के एक हिस्से को हमेशा शासक वर्ग या अभी फासीवादी शक्तियों के आगे घुटने टेकने पर मजबूर करता है।
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