फ़ेक न्यूज़ पर कार्रवाई को लेकर सोशल मीडिया और सरकारों के बीच अधिकार क्षेत्र की शुरू हुई नई जंग
भारत के उच्चतम न्यायालय ने भारत सरकार और ट्विटर को नोटिस जारी करके जवाब दाखिल करने को कहा है कि भारत में सोशल मीडिया खासकर ट्विटर के जरिये फेक न्यूज़ और भ्रामक खबरों को रोकने के क्या उपाय हैं? उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबड़े की अध्यक्षता वाली बेंच ने यह नोटिस भारतीय जनता पार्टी के नेता विनीत गोयनका की जनहित याचिका पर जारी किया। यह याचिका इसलिए महत्वपूर्ण मानी जा रही है क्योंकि हाल ही में भारत सरकार ने ट्विटर से उन कथित भ्रामक सूचना फैलाने वाले और लोगों को भड़काने वाले करीब 1200 अधिक अकाउंट्स और पोस्ट्स को डिलीट करने को कहा है, जो सरकार द्वारा हाल ही में लाये गए तीन नए कृषि क़ानूनों के विरोध में खड़े हुए कथित किसान आंदोलन से जुड़े हुए हैं। सरकार का मानना है कि इस तरह के अकाउंट और पोस्ट में से कई देश के बाहर से संचालित किए जा रहे हैं और वे जानबूझकर देश के बारे में भ्रामक और गलत सूचनाएं फैलाने के साथ सरकार के खिलाफ आंदोलन को हवा देने का काम कर रहे हैं।
भारत सरकार के अनुरोध को दरकिनार करते हुए ट्विटर प्रबंधन ने साफ तौर पर कहा है कि वह स्थानीय क़ानूनों का पालन करने के साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और इन्टरनेट की आज़ादी के साथ हैं, इसलिए कुछ पोस्ट और अकाउंट की पहुंच को भारत में रोक दिया है लेकिन ट्विटर के नियमों के मुताबिक वे भारत के बाहर के देशों में पहले की तरह दिखते रहेंगे। हालांकि ट्विटर प्रबंधन ने यह भी साफ किया है कि उसने भारत सरकार के कुछ बेहद ज़रूरी अनुरोधों को मानते हुए कुछ ट्विटर अकाउंट को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया था लेकिन स्थानीय क़ानूनों के मद्देनजर उसे फिर से रिस्टोर कर दिया है। भारत सरकार ने ट्विटर के रुख पर कड़ी आपत्ति जताते हुए साफ किया है कि अगर ट्विटर भारत सरकार के आदेशों का पालन नहीं करता है तो उस पर भारत के सूचना और तकनीकी अधिनियम की धारा – 69ए के तहत कार्रवाई की जा सकती है।
सोशल मीडिया क्रांति के इस दौर में जहां संचार देशों की सीमाओं और बंधन की बची – खुची लकीर को लगभग मिटा चुका है, वहाँ अब एक नए तरह का संघर्ष जन्म ले रहा है कि सोशल मीडिया पर किसी देश के नागरिक की अभियक्ति की आज़ादी की सुरक्षा और उस पर तार्किक रोक का हक किसके पास होगा, सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म्स के पास या देश की सरकार के पास। इसमें कोई दो राय नहीं है कि किसी भी कंपनी को अपने नियम और शर्ते बनाने का हक है लेकिन ऐसे किसी भी तरह के नियम और शर्त क्या किसी भी देश की संप्रभुता, संविधान, नियमों और क़ानूनों की अनदेखी करने का हक रखते हैं? हालांकि सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म्स का दावा है कि वे देश के स्थानीय क़ानूनों और नियमों के अनुरूप ही काम करती हैं, जिसमें नागरिकों की अभिव्यक्ति की आज़ादी और संचार से जुड़े उनके मौलिक अधिकारों की सुरक्षा भी शामिल है।
सरकार और सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म्स की इस लड़ाई में दो बेहद महत्वपूर्ण बिन्दु हैं, पहला – सोशल मीडिया पर किसी भी देश के नागरिकों को अपनी बात कहने की आज़ादी और दूसरा – सोशल मीडिया के जरिये फ़ेक या भ्रामक न्यूज़ फैलाने पर रोक। इन दोनों बिन्दुओं पर गंभीरता से विचार किए जाने की ज़रूरत है। ऐसे में उच्चतम न्यायालय द्वारा भारत सरकार और ट्विटर से पूछा गया सवाल कि भारत में सोशल मीडिया खासकर ट्विटर के जरिये फेक न्यूज़ और भ्रामक खबरों को रोकने के क्या उपाय हैं, बेहद महत्वपूर्ण है।
आज के दौर में, सोशल मीडिया को फेक न्यूज़ या भ्रामक खबरों से बचाना इसलिए भी बेहद ज़रूरी है क्योंकि किसी भी माध्यम की विश्वसनीयता ही उसके खरे उतरने की कसौटी होती है। किसी भी देश के नागरिक की अभियक्ति की स्वतन्त्रता इस बात पर भी निर्भर करती है कि वह जिस माध्यम से संवाद कर रहा है, वह कितनी विश्वसनीय है। निश्चित रूप से सोशल मीडिया ने जहां एक तरफ दुनिया के हर इंसान को एक – दूसरे का साझीदार बना दिया है, वहीं दूसरी तरफ भ्रामक खबरों के संभावित शिकार या शिकारी के रूप में भी तब्दील कर दिया है।
अगर आंकड़ों पर गौर करें तो पाएंगे कि दुनिया की आबादी करीब 7.8 अरब है, जिसमें करीब 4 अरब के आस-पास लोग सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं यानि 50 फीसदी से भी अधिक लोग सोशल मीडिया पर हैं। हर दिन करीब 10 लाख नए लोग सोशल मीडिया से जुडते हैं यानि हर 1 सेकेंड में 12 लोग। अगर भारत से जुड़े आंकड़ों पर नज़र डालें तो देश की करीब 137 करोड़ आबादी में से करीब 69 करोड़ लोगों के पास इंटरनेट है और 40 करोड़ से भी अधिक लोग सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। इसी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सोशल मिडिया पर किसी भी फेक न्यूज़ या मिसलिडिंग जानकारी को लेकर चिंतित होना क्यों बेहद ज़रूरी है? एक मिसलिडिंग जानकारी या फेक न्यूज़ किस तरह से लोगों के जीवन, समाज और देश को प्रभावित कर सकती है, इसका अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। यही कारण है कि मलेशिया, आस्ट्रेलिया, चीन, जर्मनी, फ्रांस, सिंगापुर, यूरोपियन यूनियन समेत कई देशों ने फेक न्यूज़ के खिलाफ कड़े कानून बनाए हैं।
भारत में अभी तक सोशल मीडिया से जुड़े मामलों को लेकर कोई स्पष्ट नीति या कानून नहीं है। यही कारण है कि भारत में सोशल मीडिया में फेक न्यूज़ या मिसलिडिंग जानकारी फैलाने से जुड़े मामलों से निपटने के लिए सूचना तकनीकी अधिनियम और भारतीय दंड संहिता के विभिन्न धाराओं में कार्रवाई की जाती है, जिसकी वजह से पुलिस और सरकार को काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है। कई बार पुलिस पर ऐसे आरोप लगते हैं कि वह सूचना तकनीकी अधिनियम और भारतीय दंड संहिता की धाराओं का दुरुपयोग करके सोशल मीडिया पर नागरिकों की स्वतंत्र आवाज़ को दबाने का प्रयास कर रही है। पुलिस के इस तरह के मनमाने रवैये के चलते केंद्र सरकार समेत विभिन्न राज्यों की सरकारों को उच्चतम न्यायालय से लेकर विभिन्न उच्च न्यायालयों की प्रतिकूल टिप्पणियों का सामना करना पड़ा है।
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इस वजह से भी यह बेहद ज़रूरी है कि सरकार की सोशल मीडिया को लेकर एक स्पष्ट नीति हो और कानूनी प्रावधान हों, जो फेक न्यूज़ पर लगाम लगाने के साथ – साथ नागरिकों की सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आज़ादी भी सुनिश्चित करते हों। सोशल मीडिया को लेकर बनाए जा रहे किसी भी अधिनियम, कानून या नीति में इस बात पर खासतौर से फोकस करने की ज़रूरत है कि देश की सरकार की नीतियों, क़ानूनों, प्रावधानों, निर्णयों, अध्यादेशों, नियमों, विनियमों के साथ – साथ न्यायालय के निर्णयों पर नागरिकों को अपनी राय, असहमति और सुझाव को रखने की पूरी आज़ादी हो। तमाम कमियों के बावजूद इन्टरनेट और सोशल मीडिया लोकतन्त्र की आवाज़ को बुलंदी देने के माध्यम हैं, जिस पर किसी भी देश के नागरिकों की किसी भी देश की सरकार की नीतियों, क़ानूनों और निर्णयों से असहमति होने पर उनके खिलाफ क़ानूनों का किसी भी तरह से दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। आज की ज़रूरत है कि सोशल मीडिया को फेक या हेट न्यूज़ से मुक्ति दिलाने का अभियान चलाया जाय न कि सरकारों की नीतियों से असहमति रखने वालों के खिलाफ फेक या हेट न्यूज़ के नाम पर गलत तरीके से कार्रवाई की जाए।
फेक न्यूज़ के साथ- साथ एक बड़ी समस्या है सोशल मीडिया के चलते सुचनाओं की बढ़ती बाढ़ है। गूगल द्वारा शेयर किए एक डाटा के अनुसार यूट्यूब ने 10,000 कार्मिकों को केवल कंटेन्ट की निगरानी और उसे डिलीट करने के लिए रखा है। यूट्यूब ने जुलाई से सितंबर, 2019 के बीच करीब 88 लाख वीडियो डाउन किए तो करीब 33 लाख डिलीट किए हैं जबकि 5170 लाख कमेंट भी हटाये हैं। इसी तरह से फेसबुक ने इंस्टाग्राम पर सेफ़्टी एवं सिक्यूरिटी चेक करने के लिए 35,000 लोगों को काम पर रखा है। इंस्टाग्राम ने जुलाई से सितंबर, 2019 के बीच करीब 300 लाख से भी अधिक कंटेन्ट के खिलाफ कार्रवाई की है।
इसलिए हम ऐसा नहीं कह सकते है कि सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म्स खुद में सूचनाओं और पोस्ट के कंटेन्ट को लेकर संजीदा नहीं हैं लेकिन असली समस्या वहाँ आती है जहां किसी भी देश की सरकार मानती है कि कोई सोशल मीडिया अकाउंट या उसके द्वारा साझा की जा रही सूचनाएं या पोस्ट उसकी संप्रभुता और अखंडता के लिए खतरा हो सकते हैं और उसके संविधान एवं कानून के खिलाफ हैं, लेकिन सोशल मीडिया के नियमों और विनियमों के अनुसार वह किसी भी तरह से फेक न्यूज़ या हेट कंटेट नहीं है। ऐसे में निश्चित रूप से सरकार को एक नियामक नीति की निर्धारित करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए ताकि फेक न्यूज़ और मिसलिडिंग सूचना के खिलाफ कार्रवाई हो लेकिन इसके साथ नागरिकों की सरकार से असहमति की अभिव्यक्ति के हक की सुरक्षा भी सुनिश्चित होनी चाहिए। इस दिशा में उच्चतम न्यायालय ने सरकार और ट्विटर दोनों से फेक न्यूज़ या मिसलिडिंग सूचना रोकने के उपाय मांगकर एक सकारात्मक पहल की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे फेक न्यूज़ पर लगाम कसने और नागरिकों के अभियक्ति की आज़ादी की एक नई कहानी लिखी जाएगी।
विनय जायसवाल
(मीडिया एवं कम्यूनिकेशन प्रोफेशनल और स्वतंत्र लेखक)
सम्पर्क: vinayiimc2025@gmail.com
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गीता यादव
(पीएचडी स्कॉलर ऑन फ़ेक न्यूज़, इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी, दिल्ली)
सम्पर्क : mgeeta143@gmail.com
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